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Written By WD

अंधविश्वासी न बनो : स्वामी विवेकानंद

Swami vivekanand Biography | अंधविश्वासी न बनो : स्वामी विवेकानंद
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यह विलक्षण बालक काफी कम उम्र से ही भय अथवा अंधविश्वास न मानता था। उनके बचपन का एक अन्य खेल था, पड़ोसी के घर चम्पा के पेड़ पर चढ़कर फूल तोड़ना और ऊधम मचाना। पेड़ के मालिक ने अपनडाँट-फटकार से कोई लाभ न होता देख, एक दिन नरेन के साथियों से अत्यंत गंभीरतापूर्वक कहा कि उस पेड़ पर एक ब्रह्मदैत्य निवास करता है और उस पर सभी बच्चे भयभीत हो गए और उस पेड़ से दूर-दूर रहने लगे। परंतु नरेन उन्हें समझा-बुझाकर पुन: वहीं ले आए और पहले के समान ही पेड़ पर चढ़कर खेलने लगे और शैतानीपूर्वक वृक्ष की कुछ डालियाँ भी तोड़ डालीं। फिर वे अपने साथियों की ओर उन्मुख होकर बोले - 'तुम लोग भी कैसे गधे हो। देखो मेरी गरदन कैसी सही सलामत है। बूढ़े बाबा की बात बिल्कुल झूठी है। दूसरे लोग जो कुछ भी कहते हैं, उसकी जाँच किए बिना कभी भी विश्वास न करना।'

सत्य की स्वयं ही उपलब्धि करो
ये सरल तथा स्पष्ट शब्द जगत के प्रति उनके भावी संदेश का संकेत देते हैं। परवर्ती काल में अपने व्याख्‍यानों में वे प्राय: ही कहा करते थे - 'किसी बात पर सिर्फ इसी कारण विश्वास न कर लो कि वह किसी ग्रंथ में लिखी है। किसी चीज पर इसलिए विश्वास न कर लो कि किसी व्यक्ति ने उसे सत्य कहा है। किसी बात पर सिर्फ इस कारण भी विश्वास न करना कि वे परंपरा से चली आ रही है। अपने लिए सत्य की स्वयं ही उपलब्धि करो। उसे तर्क की कसौटी पर कसो। इसी को अनुभ‍ूति कहते हैं।

नीचे लिखी घटना उनके साहस एवं प्रत्युत्पन्नमति का एक अच्‍छा उदाहरण है। व्यायामशाला में एक दिन वे एक भारी झूला खड़ा करना चाहते थे। उन्होंने आसपास उपस्थित कुछ लोगों से इसमें सहायता करने का अनुरोध किया। हाथ बटाने वालों में एक अँगरेज नाविक भी थे। झूला खड़ा करते समय उसका एक भाग नाविक के सिर पर गिर पड़ा और वे चोट खाकर अचेत हो गए।

बाकी सभी लोग उन्हें मृत समझकर पुलिस के भय से रफूचक्कर हो गए परंतु नरेन ने अपने वस्त्र का एक टुकड़ा फाड़कर नाविक के चोट पर पट्‍टी बाँधी, उनके चेहरे पर पानी के छींटे दिए और धीरे-धीरे उन्हें होश में ले आए। तत्पश्चात घायल नाविक को अपने पड़ोस के विद्यालय भवन में लाकर एक सप्ताह तक उनकी सेवा की। उनके स्वस्थ हो जाने के पश्चात नरेन ने अपने मित्रों से थोड़ा धन संग्रह किया और नाविक को सौंपकर उन्हें विदाई दी।

बचपन के इन क्रीड़ा-कौतुकपूर्ण जीवन के बीच भी नरेन के हृदय में परिव्राजक संन्यासी जीवन के प्रति आकर्षण बना रहा था। अपने हथेली पर की एक रेखा विशेष की ओर संकेत करते हुए वे अपने मित्रों से कहा करते - 'मैं अवश्य ही संन्यासी बनूँगा, एक हस्तरेखाविद्‍ ने बताया है।'

किशोरावस्था में प्रवेश करते हुए नरेन के स्वभाव में अब कुछ विशेष परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगे थे। बौद्धिक जीवन की ओर उनका झुकाव बढ़ गया। अब वे इतिहास एवं साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रंथों का अध्ययन करने लगे, समाचार पत्र पढ़ने लगे और सार्वजनिक सभाओं में जाने लगे। संगीत उनके दिल बहलाव का प्रमुख साधन बन गया। उनका मत था कि संगीत के माध्यम से उदात्त भावों की अभिव्यक्ति होनी चाहिए और जिससे गायक की भी भावनाएँ जाग्रत हो उठें।

पंद्रह वर्ष की आयु में उन्हें प्रथम आध्यात्मिक अनुभूति हुई। वे अपने परिवार के साथ मध्यप्रदेश के रायपुर नगर को जा रहे थे। यात्रा का कुछ भाग बैलगाड़ी में तय किया जा रहा था। उस दिन शीतल और मंद वायु प्रवाहित हो रही थी, वृक्ष और लताएँ रंग-बिरंगे पत्र-पुष्पों से झुकी जा रही थीं, तरह-तरह के पक्षी कलरव कर रहे थे। चलते-चलते बैलगाड़ी एक ऐसी सँकरी घाटी के समीप पहुँची, जहाँ दो ऊँचे पर्वत शिखर मानो एक दूसरे को चूम रहे थे। मुग्ध होकर इन पर्वतों की ओर निहालते हुए नरेन ने देखा कि पर्वत के एक दरार से धरती तक एक विशाल मधुचक्र लटक रहा है। यह अद्‍भुत अपूर्व दृश्य देखकर उनका मन ईश्वर विभोर हो उठा और वे बाह्यसंज्ञाशून्य होकर काफी देर तक गाड़ी में ही पड़े रहे। बाह्य चेतना लौटने के पश्चात भी उनके मन में आनंद की हिलोरें उठ रही थीं।

यहाँ पर नरेन के मन की एक दूसरी रोचक विशेषता का उल्लेख किया जा सकता है। बचपन से ही प्राय: ही किसी-किसी व्यक्ति या स्थान को देखकर उन्हें लगता कि उन्होंने पहले भी कहीं उन्हें देखा है परंतु कब और कहाँ देखा है, इसका वे स्मरण न कर पाते। एक बार वे अपने कुछ मित्रों के साथ एक मित्र के मकान के एक कमरे में बैठकर किन्हीं विषयों पर चर्चा कर रहे थे। उनमें किसी एक के कुछ कहने पर नरेन को सहसा ऐसा प्रतीत हुआ मानो उन्होंने पहले भी कभी उसी मकान में, उन्हीं लोगों के साथ उसी विषय पर चर्चा की है। उन्होंने उस मकान को कभी अंदर से देखा न था तथापि उसके चप्पे-चप्पे का सविस्तार वर्णन किया।

पहले तो उन्होंने यह सोचकर कि शायद पिछले किसी जन्म में वे इस भवन में रह चुके हैं, पुनर्जन्म के सिद्धांत से इसकी व्याख्‍या करने का प्रयास किया, पर बाद में इस व्याख्या को असंभव कहकर त्याग दिया गया। अंत में उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि इस जन्म में उनके संपर्क में आने वाले व्यक्तियों, स्थानों तथा घटनाओं का उन्हें पहले से अवलोकन करा दिया गया था। इसी कारण उनके सामने आते ही वे उन्हें पहचान लेते हैं।

रायपुर में नरेन के पिताजी उन्हें प्रसिद्ध विद्वानों से मिलाते तथा उनके साथ विविध विषयों पर चर्चा करने को प्रोत्साहन देते। ऐसे दुरूह विषयों पर चर्चा करते समय इस बालक की तीव्र मेधाशक्ति व्यक्त हो उठती थी। नरेन ने अपने पिता से प्रत्येक विषय का सार ग्रहण करने की पद्धति, सत्य को उसके सभी दृष्टिकोणों से संपूर्ण रूप से देखने का तरीका तथा चर्चा के मुख्‍य विषय को बनाए रखने की कला सीख ली थी।

1879 ई. में उनका परिवार पुन: लौटकर कलकत्ता आ गया। हाई स्कूल की परीक्षा को काफी कम समय बच रहा था, फिर भी नरेन प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। इस बीच वे अँगरेजी तथा बंगला साहित्य की अनेक उच्च स्तरीय पुस्तकें पढ़ चुके थे। इतिहास उनका प्रिय विषय था। इन्हीं दिनों उन्होंने पुस्तकें पढ़ने तथा विषय को आयत्त कर लेने का एक अभिनव उपाय खोज निकाला था। उन्हीं के शब्दों में - 'ऐसा अभ्यास हो गया था कि लेखक का पूरा अभिप्राय समझने के लिए मुझे पुस्तक की प्रत्येक पंक्ति पढ़ने की आवश्यकता न होती थी। अनुच्छेद की प्रथम एवं अंतिम पंक्ति पढ़कर ही मैं उसका पूरा तात्पर्य समझ लेता था।

फिर बाद में मैंने पाया कि मैं किसी पृष्ठ की प्रथम एवं अंतिम पंक्ति पढ़कर ही उसकी पूरी विषयवस्तु समझ जाता हूँ। फिर कुछ और काल बाद जहाँ लेखक पाँच-छ: पृष्ठों में अपना विषय समझाने का प्रयास करता, वहाँ मैं प्रारंभ की पंक्तियाँ पढ़कर ही लेखक की सारी युक्तियाँ समझ लेता था।'

बचपन के उल्लासपूर्ण दिन समाप्त हुए। उच्च शिक्षा के लिए 1879 ई. में नरेंद्रनाथ ने कलकत्ते के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। फिर एक वर्ष बाद उन्होंने स्कॉटिश जनरल मिशनरी बोर्ड द्वारा स्थापित जनरल एसेम्बलीज इन्स्टीट्‍यूशन में दाखिला लिया। यही संस्था बाद में स्काटिश चर्च कॉलेज के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी कॉलज के प्राचार्य तथा अँगरेजी साहित्य के प्राध्यापक हेस्टी साहब के ही मुख से उन्होंने सर्वप्रथम श्रीरामकृष्ण का नाम सुना था। नरेंद्र अब एक बलिष्ठ, फुर्तीले, हृष्ट-पुष्ट तथा आकर्षक नवयुवक के रूप में परिणत हो चुके थे तथा अध्ययन में गंभीरतापूर्वक रूचि लेने लगे थे। प्रथम दो वर्ष उन्होंने पाश्चात्य तर्कशास्त्र का अध्ययन किया।

फिर वे पाश्चात्य दर्शन तथा यूरोप के प्राचीन एवं अर्वाचीन इतिहास का गहन अध्ययन करने लगे। उनकी स्मरणशक्ति अद्‍भुत थी। ग्रीन द्वारा लिखित अँगरेजों का इतिहास आयत्त करने में उन्हें सिर्फ तीन दिन लगे थे। परीक्षा की पूर्व संध्या को बहुधा वे कड़ी चाय कॉफी लेकर सारी रात पढ़ाई करते थे।

प्राय: इन्हीं दिनों वे श्रीरामकृष्ण देव के संपर्क में आए और हम आगे देखेंगे कि इस घटना ने उनके जीवन को एक विशेष दिशा प्रदान की। श्रीरामकृष्ण के संस्पर्श में आने के फलस्वरूप उनकी अंतर्निहित आध्यात्मिक पिपासा जाग्रत हो उठी। वे जगत की क्षणभंगुरता तथा बौद्धिक शिक्षा की व्यर्थता का बोध करने लगे। अपनी बीए की परीक्षा के पहले दिन ही उन्हें सहसा ईश्वर के प्रति सर्वग्रासी प्रेम की अनुभूति हुई और वे अपने एक सहपाठी के कमरे के द्वार पर खड़े होकर भावुकतापूर्वक गाने लगे। भावार्थ इस प्रकार है -

हे पर्वतो! बादलो! हवाओ!
सब मिलकर उनकी महिमा गाओ!
हे सूर्य! हे चंद्र! हे तारकाओ!
आनंदपूर्वक प्रभु की महिमा गाओ।

मित्र ने विस्मित होकर नरेंद्र को अगले दिन होने वाली परीक्षा की याद दिलाई तो भी उन्होंने ध्यान नहीं दिया। आसन्न संन्यास-जीवन की छाया उन्हें तेजी से आवृत्त किए जा रही थी। फिर भी वे परीक्षा में बैठे एवं आसानी से सफल हुए।

उनकी प्रशंसा करते हुए एक बार प्रो. हेस्टी ने कहा था -
'नरेंद्र एक वास्तविक प्रतिभाशाली युवक है। मैंने दूर-दूर की यात्रा की है परंतु ऐसी प्रतिभा एवं संभावनाओं वाला लड़का कभी भी नहीं मिला, यहाँ तक कि जर्मन विश्वविद्यालय के दर्शन के छात्रों में भी कोई नहीं दिखा। वह जीवन में निश्चय ही कुछ कर दिखाएगा।'

नरेंद्र की बहुमुखी प्रतिभा संगीत के माध्यम से भी अभिव्यक्त थी। उन्होंने संगीत विशारदों से वाद्य एवं स्वरसंगीत दोनों ही सीखे थे। वे कई तरह के वाद्य में पारंगत थे, परंतु गायन में तो वे सानी न रखते थे। उन्होंने एक मुसलमान शिक्षक से हिन्दी, उर्दू तथा फारसी के अनेक भक्तिमूलक गाने सीखे।

उस काल के सबसे महत्वपूर्ण धर्म-आंदोलन ब्रह्मसमाज के साथ भी वे जुड़े थे और इसका उनके प्रारंभिक जीवन पर काफी प्रभाव पड़ा था।

ब्रिटिश साम्राज्य से पराभूत हो जाने के पश्चात भारत में अँगरेजी शिक्षा का सूत्रपात हुआ। इसके फलस्वरूप हिन्दू समाज बौद्धिक एवं आक्रामक यूरोपीय संस्कृ‍ति के संपर्क में आया। अभिनव तथा सक्रिय जीवनधारा के सम्मोहन में आकर हिन्दू युवकों को अपने समाज में अनेक दोष ‍दिख पड़े। अँगरेज लोगों के आगमन के पूर्व मुस्लिम शासनकाल में ही हिन्दू समाज की गति अवरुद्ध हो गई थी, जा‍ति प्रथा में ऊँच-नीच का भेद बढ़ गया था तथा पुरोहितगण अपने‍ निजी स्वार्थ के लिए आम जनता का धार्मिक जीवन नियंत्रित करने लगे थे।

उपनिषद एवं भगवद्‍गीता के शक्तिदायी दार्शनिक विचारों के साथ निरर्थक अंधविश्वास तथा निर्जीव रीतिरिवाज घुलमिल गए थे। जमींदार जनसाधारण का शोषण करने लगे थे तथा महिलाओं की दशा दयनीय हो गई थी। मुस्लिम शासन के पतन के बाद से भारतीय जनजीवन के सामाजिक, राजनीतिक धार्मिक तथा आर्थिक - प्रत्येक क्षेत्र में विश्रृंखला फल गई थी। नवोदित पाश्चात्य शिक्षा ने समाज के अनेक दोषों को तीव्र आलोक में ला दिया। अब राष्ट्रीय जीवन को एक बार पुन: नवजीवन के मार्ग पर ले जाने के उद्देश्य से अनेक पुरातनपंथी तथा उदारवादी सुधार आंदोलनों का प्रादुर्भाव हुआ।

ब्रह्मसमाज इन उदारवादी आंदोलनों में एक था जिसने बंगाल के शिक्षित नवयुवकों को आकृष्ट किया। इसके संस्थापक राजा राममोहन राय (1774-1833 ई.) ने परंपरागत हिन्दू धर्म के कर्मकांड, मूर्तिपूजा और पुरोहिती प्रथा का बहिष्कार किया और अपने अनुयाइयों को आह्वान किया कि वे 'इस विश्व-ब्रह्माण्ड के सृष्टि एवं पालनकर्ता - अनंत, अगोचर तथा अक्षर परमात्मा की पूजा-आराधना' करें।


राजा महान मेधाशक्ति से संपन्न थे। उन्होंने हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई एवं बौद्ध धर्मग्रंथों का गहराई से अध्ययन किया था। वे ऐसे पहले भारतवासी थे जिन्होंने हिन्दू समाज के विभिन्न समस्याओं को हल करने में पाश्चात्य बौद्धिक उपाय के महत्व को समझा।
उन्होंने भारत में अँगरेजी शिक्षा के प्रसार में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने प्रारंभ में नव जाग्रत हिन्दू चेतना पर क्षतिकर प्रभाव डाला, परंतु बाद में स्थानीय संस्कृति के महिमामय विरासत को आलोकित कर दिया।

राममोहन राय के बाद ब्रह्म समाज के नेताओं में प्रमुख थे - देवेंद्रनाथ ठाकुर (1817-1905 ई.) जो उपनिषदों के बड़े प्रेमी थे तथा केशवचंद्र सेन जिनका ईसाई सिद्धांतों एवं कर्मकांडों से बड़ा लगाव था। इनके नेतृत्व में ब्रह्म समाज ने हिन्दू धर्म के मूर्तिपूजा आदि अनेक प्रथाओं का परित्याग कर दिया। मुख्‍य रूप से यह एक सुधारवादी आंदोलन था और इसने महिलाओं की स्वाधीनता, हिन्दू विधवाओं के पुनर्विवाह, बाल ‍विवाह के निर्मूलन तथा जनसाधारण में शिक्षा के प्रसार पर विशेष जोर दिया। पाश्चात्य विचारधारा के प्रभाव में आकर ब्रह्मसमाज ने शास्त्रों की प्रामाणिकता का विरोध करते हुए युक्तिवाद को सर्वोपरि महत्व दिया। फ्रांसीसी क्रांति के नारों का भी उन्होंने पुरजोर समर्थन किया। यह आंदोलन बुद्धिवादी तथा उदारवादी प्रकृति का था और समय की माँग पर इसका प्रादुर्भाव हुआ था।

परंपरागत धर्म के समान इसका मूल ऋषि-मुनियों की आध्यात्मिक अनुभूतियों में न था। अन्य समकालीन युवकों के समान ही नरेंद्र भी इसके प्रगतिशील विचारों के प्रभाव में आए तथा इसके सदस्य हो गए। परंतु आगे चलकर हम देखेंगे कि ब्रह्मसमाज उनके हृदय की तीव्र आध्यात्मिक पिपासा को शांत न कर सका।

प्राय: इन्हीं दिनों नरेंद्र के पिता ने उनसे विवाह कर लेने का अनुरोध किया और शीघ्र ही ऐसा एक संयोग भी आ उपस्थित हुआ। एक धनाढ्‍य सज्जन ने प्रस्ताव रखा कि उनकी पुत्री का पाणिग्रहण कर लेने पर वे नरेंद्र के इंग्लैंड जाकर उनकी भारतीय राजकीय सेवा की उच्चशिक्षा का पूरा व्ययभार वहन करेंगे। नरेंद्र ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया तथा इसी तरह अन्य कई प्रस्ताव भी अस्वीकृत हुए। संभवत: गृहस्थ का जीवन बिताना उनकी नियति को मंजूर न था।

बचपन से ही नरेंद्रनाथ को पवित्रता की धुन लगी रहती थी। जब कभी उनका युवकोचित स्वभाव अवांछनीय कर्म की ओर आकृष्ट होता तो कोई अदृश्य शक्ति उन्हें नियंत्रित कर देती। उनकी माताजी ने उन्हें पवित्रता का महत्व समझाया था तथा ब्रह्मचर्य पालन का उपदेश दिया था। नरेंद्र की दृष्टि में पवित्रता एक नकारात्मक गुण अर्थात दैहिक सुखों का वर्जन मात्र न था, बल्कि उनके लिए पवित्रता से तात्पर्य था ऐसी आध्‍यात्मिक शक्ति का संचनय करना, जो भावी जीवन में उदात्त इच्छाओं के माध्यम से अभिव्यक्त होगी।

उन्होंने अपने समक्ष हिन्दू परंपरा के ऐसे ब्रह्मचारी विद्यार्थी का आदर्श रखा था, जो कठोर परिश्रम करता था, संयममय जीवन को महत्व देता था, पवित्र चीजों के प्रति श्रद्धा का भाव रखता था और मनसा-वाचा-कर्मणा शुद्ध जीवन बिताया करता था। हिन्दू शास्त्रग्रंथों ने ब्रह्मचर्य को सर्वश्रेष्ठ गुण माना है। इसी की सहायता से मानव सूक्ष्मतम आध्‍यात्मिक तत्वों की अनुभूति कर सकता है। नरेंद्र की गहन एकाग्रता, तीव्र स्मरण शक्ति, उनकी अंतर्दष्टि, अदम्य मानसिक क्षमता एवं शारीरिक बल का यही रहस्य है।

नरेंद्र की युवावस्था में प्रतिदिन रात को सोने के पूर्व उनके सम्मुख दो परस्परविरोधी कल्पनाएँ व्यक्त हो उठती थीं। इनमें से एक में वे देखते कि वे एक संसारी व्यक्ति के समान अपने बाल-बच्चों के साथ धन, मान प्रतिष्ठा एवं ऐश्वर्यमुक्त जीवन बिता रहे हैं और दूसरी कल्पना में देखते कि वे एक सर्वत्यागी अकिंचन संन्यासी होकर ईश्वर के ध्यान में तन्मय होकर काल यापन कर रहे हैं।