साहित्य 2010 : खट्टा ज्यादा, मीठा कम
बरसते रहे विवादों के बादल...
साहित्य शब्द के अभिप्राय( जिसमें सबका हित हो) की दृष्टि से अगर बीते साल के साहित्य-संसार पर नजर डालें तो खट्टा या कहें कि कड़वा ज्यादा मीठा कम नजर आता है। बीते साल साहित्य जगत में विवादों की कालिमा छाई रहीं। महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति विभूतिनारायण राय ने 'नया ज्ञानोदय' को दिए साक्षात्कार में शर्मनाक स्त्री विरोधी टिप्पणी की। इस बात की पूरे समाज ने एक स्वर में भर्त्सना की। वहीं बुकर अवॉर्ड विजेता अरुंधति राय ने कश्मीर को भारत का हिस्सा ना बता कर सस्ता प्रचार हासिल करने की चेष्टा की। सम्मान और पुरस्कार की परंपरा जारी रही वहीं कुछ नामचीन हस्ताक्षर हमसे बिछुड़ गए। वीसी विभूति का विवाद व्याप्त रहा एक कुलपति जो साहित्यकार भी कहे जाते हैं। विभूतिनारायण राय के नाम से जाने जाते हैं। महात्मा गाँधी जैसे महापुरुष के नाम से स्थापित अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय वर्धा की बागडोर इनके हाथ में है। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'नया ज्ञानोदय' में एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि आजकल लेखिकाओं में ये साबित करने की होड़ लगी है कि उनसे बड़ी 'छिनाल' कोई नहीं है। राय ने इसके अलावा भी कई सारी आपत्तिजनक बातें कहीं हैं। राय के इस बयान के बाद लेखिकाओं सहित समूचे साहित्य समाज ने उन्हें यूनिवर्सिटी में वाइस चाँसलर के पद से हटाने की माँग की। विभूति नारायण राय 1975 बैच के आईएएस ऑफिसर भी रह चुके हैं और 2008 में उन्हें महात्मा गाँधी यूनिवर्सिटी का कुलपति बनाया गया था। इस अश्लील टिप्पणी पर संज्ञान लेते हुए मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने विभूति नारायण राय के खिलाफ कार्रवाई की।मानव संसाधन मंत्रालय ने कहा, 'यदि यह सही है तो यह संपूर्ण नारी समाज का अपमान है। महिलाओं के खिलाफ ऐसी टिप्पणी उनके सम्मान को ठेस पहुँचाने वाली और मर्यादा के प्रतिकूल है।' महिला साहित्यकारों के बारे में की गई घिनौनी टिप्पणी के सिलसिले में महिलाओं का एक दल मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल से मिला। इससे पहले विभूतिनारायण राय कपिल सिब्बल से मिले। सूत्रों के मुताबिक सिब्बल ने उनको धैर्यपूर्वक सुनने के बाद कहा कि आप एक संवैधानिक पद पर हैं और इस मामले में काफी कंट्रोवर्सी हो चुकी है, लिहाजा आप अनकंडीशनल माफीनामा लिख कर दें। माफीनामे में लिखें कि मैं अपने शब्दों के लिए माफी चाहता हूँ और आगे इस तरह के लेखन, इस तरह के बयान से बचूँगा। विभूतिनारायण राय ने कपिल सिब्बल से गुजारिश की कि वे एक लेखक हैं और भविष्य में लेखन को लेकर ऐसी सतर्कता की गारंटी मुझसे न लें। इस पर कपिल सिब्बल ने कहा कि फिर आपको लेखक ही रहना चाहिए, वीसी नहीं होना चाहिए। हार कर विभूतिनारायण राय ने माफी माँगी और उन्हें माफी मिल गई। मानव संसाधन मंत्री ने कहा कि हम वीसी को बर्खास्त नहीं कर सकते। यह विजिटर के अधिकार की बात है। पहली नजर में इस विवाद का पटाक्षेप हुआ। बाजार से नया ज्ञानोदय के अंक उठा लिए गए। लेकिन इस सारे प्रकरण में कई साहित्यकारों की दोहरी मानसिकता खुलकर सामने आई जब वे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से विभूतिनारायण के पक्ष में खड़े नजर आए। दूसरी तरफ भारतीय ज्ञानपीठ, जो लेखकों के सम्मान और उनके अधिकारों की रक्षा के प्रतीक के रूप में जाना जाता है, की प्रतिष्ठा पर भी प्रश्नचिन्ह लगे। संपादक रवीन्द्र कालिया के विरोध में भी खासा माहौल बना। ज्ञानपीठ ने विभूति नारायण राय को अवर समिति से निकाल दिया और उनके स्थान पर नामवर सिंह को रखा गया। ज्ञानपीठ के न्यासियों की बैठक में इस कांड की वजह से उत्पन्न हालात पर चर्चा हुई। उससे ठीक पहले अशोक वाजपेयी ने ज्ञानपीठ से अपनी दोनों पुस्तकें वापस लेकर रवींद्र कालिया के खिलाफ कार्रवाई के लिए दबाव बढ़ाया। उनसे पहले गिरिराज किशोर और प्रियंवद ने भी अपनी पुस्तकें वापस लीं। अशोक वाजपेयी ने जनसत्ता को पत्र भेज कर कहा है कि उन्होंने नैतिक आधार पर ज्ञानपीठ से अपने रिश्ते तोड़े हैं। बहरहाल, 2010 का साल भारतीय साहित्य-संसार के लिए इस प्रकरण की वजह से विक्षुब्ध करने वाला रहा। हमारे साहित्यकार आधुनिक होने की त्वरा में मर्यादा को कैसे कूड़ेदान में डाल रहे हैं और लेखिकाओं के प्रति उनके भीतर किस तरह के विकार पल रहे हैं, इस घटनाक्रम ने इसी चिंतन के लिए विवश कर दिया है।
अरुंधति राय का अपरिपक्व बयान साल 2010 में साहित्यकारों की जुबान फिसलने का दूसरा प्रकरण लेखिका अरुंधति राय का सामने आया। इस लेखिका ने बिना सोचे-समझे राष्ट्रीय हित के साथ खिलवाड़ करते हुए कहा कि कश्मीर भारत का अंग कभी रहा ही नहीं। अरुंधति ने यह बात हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी के साथ दिल्ली में एक सेमिनार के दौरान कहीं। बाद में विरोध के स्वर उठने पर सुशील पंडित नामक व्यक्ति की याचिका के तहत एक स्थानीय अदालत के दिशानिर्देश के बाद प्राथमिकी दर्ज की गई। पंडित ने आरोप लगाया कि गिलानी और राय ने 21 अक्टूबर को ‘आजादी : द ओनली वे’ के बैनर तले हुए एक सेमिनार में भारत विरोधी भाषण दिया था। दोनों के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज किया गया। राय और अन्य पर धारा 124-ए (देशद्रोह), 153-ए (वर्गों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना), 153-बी (राष्ट्रीय अखंडता को नुकसान पहुँचाने के लिए लांछन), 504 (शांति भंग करने के इरादे से अपमान) और 505 (विद्रोह के इरादे से झूठे बयान, अफवाहें फैलाना या जन शांति के खिलाफ अपराध) के तहत मामले दर्ज किए गए हैं।अर्जुन की आत्मकथा में भोपाल गैस त्रासदी भोपाल गैस त्रासदी मामले के मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन को देश से बाहर जाने का सुरक्षित रास्ता दिए जाने के मामले में चौतरफा आरोप झेल रहे मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता अर्जुन सिंह ने कहा है कि यह मामला उनके हस्तक्षेप करने के अधिकार से बाहर का था। कांग्रेस कार्यसमिति के पूर्व सदस्य अर्जुन सिंह ने संकेत दिया कि उनकी आत्मकथा में भोपाल गैस त्रासदी और एंडरसन मामले का विस्तृत जिक्र होगा। वर्ष 1984 के भोपाल गैस त्रासदी के समय अर्जुन सिंह राज्य के मुख्यमंत्री और स्वर्गीय राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे। उल्लेखनीय है कि भोपाल गैस त्रासदी के बाद भारत आए एंडरसन को सात जुलाई 1984 को गिरफ्तार किया गया था और गिरफ्तारी के कुछ देर बाद ही उसे जमानत पर रिहा कर दिया गया था। बाद में अदालत ने उसे फरार घोषित कर दिया था। इस वक्त वह अमेरिका में है। फिलहाल अर्जुन की आत्मकथा से कितने सच और कितने झूठ निकलेंगे यह तो वक्त ही बताएगा। जॉर्ज मारिओ लोसा को साहित्य का नोबेल साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार पेरू के साहित्यकार जॉर्ज मारिओ पेद्रो वर्गास लोसा को वर्ष 2010 के लिए चुना गया है। 28 मार्च 1936 को पेरू के अरेक्विपा शहर में जन्में इस 74 वर्षीय लेखक को सत्ता के ढाँचे के चित्रण तथा उसके प्रति व्यक्तियों के प्रतिरोध, विद्रोह और पराजय की प्रभावशाली तस्वीर पेश करने के लिए यह पुरस्कार दिया गया।। उनके पिता एक बस चालक थे। 1946 में वह पेरू में लौटे। जब वे 16 साल के थे तब लीमा की कई पत्रिकाओं के लिए काम किया। उनकी पहली पुस्तक-लॉस जेफेस, लघु कहानियों का संग्रह, 1958 में प्रकाशित हुई था तब वे 22 वर्ष के थे। स्पेनी भाषा के साहित्यकार जॉर्ज मारिओ पेद्रो वर्गास लोसा पिछले 45 वर्षों से लैटिन उपन्यासकारों में एक तरफ सबसे सफल रहे हैं वहीं दूसरी तरफ विवादास्पद भी। 1960 और1970 के दशक में युवा उपन्यासकारों ने एक साहित्यिक आंदोलन चलाया था-'लैटिन अमरीकन बूम', लोसा उसके प्रमुख लेखक रहे हैं। उन्होंने 30 से अधिक उपन्यास और निबंध लिखे हैं। जिनमें कन्वर्सेसन्स इन कैथेड्रल और द ग्रीन हाउस काफ़ी प्रसिद्ध हैं। क्रांतिकारी लेखकों के प्रति रुझान के कारण उनका शुरुआती लेखन वामपंथी विचारधारा से प्रभावित था। बाद में उन्होंने फ्रांस के प्रसिद्ध विचारक और अस्तित्ववाद के संस्थापक ज्याँ पॉल सात्र के प्रभाव से लेखन शुरु किया। धीरे-धीरे उनकी सोच व लेखन में परिवर्तन आया। वे साहित्य को विद्रोह का हथियार मानते थे बाद में कला और सौंदर्य की अभिव्यक्ति का साधन भी उन्होंने माना। 1995 में उन्हें स्पेनिश भाषा के सबसे प्रतिष्ठत सरवेंटेज पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 1963
के दशक के दौरान 'द टाइम ऑफ हीरो' उपन्यास से दुनिया की नजर में वे आए थे। इसके दो साल बाद 1965 में प्रकाशित 'द ग्रीन हाउस' ने साहित्य-संसार में हलचल मचा दी। इस उपन्यास में एक किशोरी के वेश्या बनने की कहानी को बेहद संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया गया। आलोचकों ने इसे एक महान उपन्यास की संज्ञा दी। उनके उपन्यास विवाद का केन्द्र भी बने। उनका एक और बहुचर्चित उपन्यास 'आंट जूली एंड स्क्रिप्टराइटर' उनकी पहली पत्नी जूली और उनके रिश्तों पर आधारित है। उनके उपन्यासों पर फिल्में भी बन चुकी हैं, जिनमें प्रमुख हैं 'टाइम ऑफ द हीरो', 'कैप्टन पैंटोजा एण्ड द स्पेशियल सर्विस', 'द फीस्ट ऑफ द गोट'।
हॉवर्ड जैकबसन को बुकर पुरस्कार ब्रिटेन के मशहूर लेखक हॉवर्ड जैकबसन को उनकी पुस्तक 'द फिंकलर क्वेश्चन' के लिए साल 2010 का बुकर पुरस्कार दिया गया। उनके हास्य उपन्यास द फिंकलर क्वेश्चन को इस साल का बुकर पुरस्कार दिया गया। जैकबसन का यह उपन्यास स्कूली दिनों के दो दोस्तों और टीचर के बीच उनके रिश्तों को रोचक तरीके से उजागर करता है। लंदन निवासी जैकबसन इससे पहले भी दो बार बुकर की दौड़ में शामिल हो चुके हैं। इस बार उन्होंने दो बार के बुकर विजेता पीटर केरी और टॉम मेक्कार्थी को पीछे छोड़ कर पुरस्कार को अपने नाम किया। 50
हजार पांउड यानी 80 हजार अमेरिकी डॉलर की इनामी राशि वाले इस सम्मान के लिए चुने जाने पर खुद जैकबसन आश्चर्यचकित हुए। 68 साल के जैकबसन का कहना है कि इस किताब को बुकर के लिए चुने जाने की उन्हें भी उम्मीद नहीं थी। पाँच जजों की जूरी ने 3-2 के बहुमत से जैकबसन की किताब को बुकर के लिए चुना। जूरी के प्रमुख अंग्रेजी लेखक एंड्रयू मोशन ने कहा कि जैकबसन का उपन्यास इस प्रतिष्ठित सम्मान के लिए सर्वथा योग्य है। उन्होंने कहा कि 'द फिंकलर क्वेश्चन' बहुत ही उम्दा उपन्यास है। इसमें बेहद हल्के-फुल्के अंदाज में कथानक को उकेरा गया है। उपन्यास का मुख्य पात्र पूर्व रेडियो पत्रकार जूलियन ट्रेसलव है जो यहूदी न होने के बावजूद खुद को यहूदी की तरह विकसित करता है। यहूदी जीवन शैली अपनाने का काम वह बचपन के अपने दो यहूदी दोस्तों की संगत में करता है। इस समूचे घटनाक्रम को उपन्यास में अत्यंत रोचक अंदाज में पेश किया गया है।शहरयार और कुरुप को 44वाँ ज्ञानपीठ उर्दू के नामचीन शायर अखलाक मुहम्मद खान शहरयार को 44वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार देने की घोषणा की गई। उन्हें यह पुरस्कार वर्ष 2008 के लिए दिया जाएगा। साथ ही मलयालम के प्रसिद्ध कवि व साहित्यकार ओएनवी कुरुप को वर्ष 2007 के लिए 43वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाएगा। जाने-माने लेखक और ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता डॉ. सीताकांत महापात्र की अध्यक्षता में ज्ञानपीठ चयन समिति की बैठक में दोनों साहित्यकारों को पुरस्कृत करने का निर्णय लिया गया। उर्दू के जाने-माने शायर शहरयार का जन्म 1936 में आँवला (बरेली, उत्तरप्रदेश) में हुआ। इस 74 वर्षीय शायर का पूरा नाम कुँवर अखलाक मुहम्मद खान है, लेकिन इन्हें इनके उपनाम शहरयार से ही ज्यादा पहचाना जाना जाता है। वर्ष 1961 में उर्दू में स्नातकोत्तर डिग्री लेने के बाद उन्होंने 1966 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू के लेक्चरर के तौर पर काम शुरू किया। वह यहीं से उर्दू विभाग के अध्यक्ष के तौर पर सेवानिवृत्त भी हुए। बॉलीवुड की कई हिट हिंदी फिल्मों के लिए गीत लिखने वाले शहरयार को सबसे ज्यादा लोकप्रियता 1981 में आई 'उमराव-जान' से मिली। वर्ष 2007 के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले कुरुप का जन्म 1931 में कोल्लम जिले में हुआ। वह समकालीन मलयालम कविता की आवाज बने। उन्होंने प्रगतिशील लेखक के तौर पर अपने साहित्य सफर की शुरुआत की और वक्त के साथ मानवतावादी विचारधारा को सुदृढ़ किया। साथ ही सामाजिक सोच और सरोकारों का दामन भी थामे रखा। बाल्मीकि, कालीदास और टैगोर से प्रभावित कुरुप की उज्जयिनी और स्वयंवरम जैसी कविताओं ने मलयालम कविता जगत को समृद्ध किया। उनकी कविता में संगीतात्कता के साथ मनोवैज्ञानिक गहराई भी है। कुरुप के अब तक 20 कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी नई दिल्ली में साहित्य अकादमी के सचिव अग्रहार कृष्णमूर्ति ने घोषणा की कि देश के कुल 22 साहित्यकारों को साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए चुना गया है। इनमें हिंदी में उदय प्रकाश की महाकाव्यात्मक कहानी ‘मोहन दास’ को 2010 के अकादमी पुरस्कार के लिए चुना गया है। इसके अलावा दो अन्य भाषाओं के कथाकारों मनोज (डोगरी) और नांजिल नाडन (तमिल) को भी भारत के इस प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए चयनित किया गया है। इसके साथ ही 8 कवियों साहित अन्य विविध विधाओं के रचनाकारों को भी यह भारत का सुप्रतिष्ठित पुरस्कार दिया जाएगा। उदय प्रकाश को हिंदी में बहुत गंभीर और सार्थक लेखन के लिए जाना जाता है। दिनेश कुमार शुक्ल को पहला सीता स्मृति सम्मान हिंदी लेखन के लिए प्रथम सीता स्मृति सम्मान हिंदी कवि दिनेश कुमार शुक्ल को मिला है। उन्हें यह सम्मान कविता संग्रह 'ललमुनिया की दुनिया' के लिए मिला है। डॉ सीता श्रीवास्तव मशहूर शिक्षाविद और राजनीतिशास्त्र की विद्वान थीं। वह दिल्ली विश्वविद्यालय की मैत्रेयी कॉलेज की 15 वर्ष से ज्यादा समय तक प्रधानाचार्य रहीं। वाशिंगटन डीसी स्थित अमेरिकन यूनीवर्सिटी में वरिष्ठ फुल ब्राइट स्कॉलर और लिंचबर्ग के रांडोल्फ मेकन विमेन कॉलेज में विज़िटिंग प्रोफेसर भी थीं। इससे पहले सीता श्रीवास्तव बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र पढ़ाती थीं और वहाँ के महिला महाविद्यालय में राजनीतिशास्त्र की विभागाध्यक्ष थीं। उन्होंने छात्र जीवन में लखनऊ में रहते हुए आजादी के आंदोलन में भी हिस्सा लिया था और जेल गईं थीं। उनका शोध राज्य-सभा पर था। शोध आगे चल कर पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित हुआ और काफी लोकप्रिय रहा। डॉ सीता श्रीवास्तव ने दिल्ली की झुग्गियों में रहने वाली गरीब महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण और बेहतरी के लिए पेशेवर प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों के माध्यम से कई विकास कार्यक्रम चलाए। वह एक कवयित्री भी थीं और हिन्दी साहित्य से उनका गहरा जुड़ाव था। हिन्दी साहित्य के प्रति डॉ सीता श्रीवास्तव के लगाव के कारण ही उनके परिवार ने उनके नाम पर एक वार्षिक पुरस्कार की घोषणा की है। इसमें एक साहित्यकार को प्रशस्ति पत्र और 51,000 रुपये दिए जाएँगे। वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह और कथाकार ममता कालिया के प्रतिष्ठित निर्णायक मंडल ने 2009-10 के सीता स्मृति पुरस्कार विजेता का चयन किया। दिनेश कुमार शुक्ल जाने-माने समकालीन हिन्दी कवि हैं। इनकी कविताएँ और आलेख तकरीबन सभी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं और पत्रों में प्रकाशित हुए हैं। इनकी अद्भुत शैली ने समकालीन कविता के साहित्यिक मानकों से समझौता किए बगैर कविता को आम लोगों के करीब लाने का काम किया है। पारंपरिक साहित्यिक व लोकरूपों के प्रयोग ने दिनेश कुमार शुक्ल की कविताओं को एक नई धार दी है। उन्हें यह पुरस्कार नई दिल्ली में 2010 के अंत में दिया जाएगा।
हृषिकेश सुलभ को इंदु शर्मा कथा सम्मान कथा (यू के) के महासचिव एवं कथाकार श्री तेजेन्द्र शर्मा ने लंदन से सूचित किया कि वर्ष 2010 के लिए अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान कहानीकार और नाटककार-रंगचिन्तक हृषीकेश सुलभ को राजकमल प्रकाशन से 2009 में प्रकाशित उनके कहानी संग्रह 'वसंत के हत्यारे' पर देने का निर्णय लिया गया है। इस सम्मान के अन्तर्गत दिल्ली-लंदन-दिल्ली का आने-जाने का हवाई यात्रा का टिकट (एअर इंडिया द्वारा प्रायोजित) एअरपोर्ट टैक्स़, इंगलैंड के लिए वीसा शुल्क़, एक शील्ड, शॉल, लंदन में एक सप्ताह तक रहने की सुविधा तथा लंदन के खास-खास दर्शनीय स्थलों का भ्रमण आदि शामिल हैं यह सम्मान श्री हृषीकेश सुलभ को लंदन के हाउस ऑफ कॉमन्स में 08 जुलाई 2010 की शाम को एक भव्य आयोजन में प्रदान किया गया।। 15
फरवरी 1955 को बिहार के सिवान जिले के लहेजी गाँव में जनमे कथाकार, नाटककार, रंग-चिन्तक हृषीकेश सुलभ की विगत तीन दशकों से कथा-लेखन, नाट्य-लेखन, रंगकर्म के साथ-साथ सांस्कृतिक आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी रही है। उनके कहानी संग्रह ‘बसंत के हत्यारे’, ‘तूती की आवाज’, ‘बँधा है काल’, ‘वधस्थल से छलाँग’ और ‘पत्थरकट’ प्रकाशित हैं। रंगचिन्तन की पुस्तक ‘रंगमंच का जनतंत्र’ के अलावा तीन मौलिक नाटक ‘अमली’, ‘बटोही’ और ‘धरती आबा’ तथा संस्कृत नाटक मृच्छकटिक की पुनर्रचना ‘माटीगाड़ी’ और रेणु के उपन्यास ‘मैला आंचल’ का नाटयान्तर प्रकाशित हैं।इंदु शर्मा मेमोरियल ट्रस्ट की स्थापना संभावनाशील कथा लेखिका एवं कवयित्री इंदु शर्मा की स्मृति में की गई है। इंदु शर्मा का कैंसर से लड़ते हुए अल्प आयु में ही निधन हो गया था। अब तक यह प्रतिष्ठित सम्मान चित्रा मुद्गल, संजीव, ज्ञान चतुर्वेदी, एस आर हरनोट, विभूति नारायण राय, प्रमोद कुमार तिवारी, असग़र वजाहत, महुआ माजी, नासिरा शर्मा और भगवान दास मोरवाल को प्रदान किया जा चुका है। पद्मानन्द साहित्य सम्मान वर्ष 2010 के लिए पद्मानन्द साहित्य सम्मान इस बार संयुक्त रूप से श्री महेन्द्र दवेसर दीपक को मेधा बुक्स, दिल्ली से 2009 में प्रकाशित उनके कहानी संग्रह अपनी अपनी आग के लिए और श्रीमती कादम्बरी मेहरा को सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित उनके कहानी संग्रह पथ के फूल के लिए दिया जा रहा है। दिल्ली में 1929 में जन्मे श्री महेन्द्र दवेसर ‘दीपक’ के इससे पहले दो कहानी संग्रह पहले कहा होता और बुझे दीये की आरती प्रकाशित हो चुके हैं। दिल्ली में जन्मी श्रीमती कादम्बरी मेहरा अंग्रेजी में एमए हैं और उन्हें वेबजीन एक्सेलनेट द्वारा साहित्य सम्मान मिल चुका है। इससे पहले उनका एक कहानी संग्रह 'कुछ जग की' प्रकाशित हो चुका है।इससे पूर्व इंग्लैण्ड के प्रतिष्ठित हिन्दी लेखकों क्रमश: डॉ सत्येन्द श्रीवास्तव, सुश्री दिव्या माथुर, श्री नरेश भारतीय, भारतेन्दु विमल, डा.अचला शर्मा, उषा राजे सक्सेना, गोविंद शर्मा, डा. गौतम सचदेव, उषा वर्मा और मोहन राणा को पद्मानन्द साहित्य सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है।ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार वर्ष 2010 के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार सीहोर के युवा कहानीकार पंकज सुबीर को उनके उपन्यास 'ये वो सहर तो नहीं' के लिए दिया गया। चयनित पांडुलिपि को भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित करके का भी फैसला लिया गया। वर्ष 2010 के ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार के लिए सीहोर के युवा कथाकार पंकज सुबीर तथा दिल्ली के कथाकार कुणाल सिंह को संयुक्त रूप से प्रदान करने का निर्णय लिया गया। उल्लेखनीय है कि गत वर्ष भी पंकज सुबीर का एक कहानी संग्रह ईस्ट इंडिया कम्पनी भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार योजना के अंतर्गत प्रकाशित होकर आया था, जो साहित्यिक हलकों में काफी चर्चित रहा था। मध्य प्रदेश के सीहोर के युवा कथाकार पंकज सुबीर की पचास से भी अधिक कहानियाँ देश भर की साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। पेशे से स्वतंत्र पत्रकार पंकज सुबीर अपनी विशिष्ट शैली तथा शिल्प के लिए जाने जाते हैं। युवा पीढी के नए कथाकारों में अपनी व्यंग्य निहित भाषा से वे अपनी अलग ही पहचान बन चुके हैं। उनको जिस उपन्यास 'ये वो सहर तो नहीं' के लिए पुरस्कार दिया गया उसमें उन्होंने 1857 से लेकर 2008 तक की कथा को व्यंग्य निहित भाषा में समेटा है। निर्णायकों के अनुसार इस उपन्यास में व्यंग्य का जो भाव है वह राग-दरबारी की याद दिला देता है। इस उपन्यास में दो समानांतर कथाओं को समेटने की कोशिश की गई है। डॉ. घासीराम वर्मा साहित्य पुरस्कार श्री हेमंत शेष की भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित काव्य कृति 'जगह जैसी जगह' के नाम वर्ष 2010 का डॉ. घासीराम वर्मा साहित्य पुरस्कार घोषित किया गया।। यह पुरस्कार श्री हेमंत शेष को 28 अगस्त, 2010 को चूरू में प्रदान किया गया। 28 दिसम्बर, 1952 को जयपुर में जन्में हेमंत शेष हिन्दी साहित्य में काफी दखल रखते हैं। उनकी अब तक बीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। जिनमें 'जारी इतिहास के विरूद्ध', 'घर बाहर', 'वृक्षों के स्वप्न', 'नींद में मोहनजोदड़ो', 'अशुद्ध सारंग', 'कष्ट के लिए क्षमा', 'रंग अगर रंग है', 'कृपया अन्यथा न लें', 'आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी', 'बहुत कुछ जैसा कुछ नहीं' व 'प्रपंच सार सुबोधिनी' काव्य कृतियां शामिल हैं।श्री हेमंत शेष चित्रकला एवं फोटोग्राफी में काफी दक्षता रखते हैं। उनकी अनेक प्रदर्शनी इसके संबंध में लग चुकी हैं। श्री शेष 'कला प्रयोजन' नामक पत्रिका का संपादन भी कर रहे हैं।स्मृति-शेष * साहित्य जगत को 25 सितंबर का दिन शोकमग्न कर गया। इस दिन साहित्यकार और पत्रकार कन्हैयालाल नंदन हमारे बीच नहीं रहें। वे कुछ दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे। 1
जुलाई 1933 को गाँव परस्तेपुर, जिला फतेहपुर, में जन्में कन्हैयालाल नंदन सारिका,पराग,दिनमान,नवभारत टाईम्स, संडे मेल, इंडसइंड जैसी पत्रिकाओं के संपादक रहे। उन्होंने अपने जीवन के शुरुआती दौर में 4 साल तक मुंबई विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कॉलेजों में अध्यापन किया।1961 से 1972 तक टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशन समूह के धर्मयुग में सहायक संपादक और 1972 से दिल्ली में क्रमशः पराग, सारिका और दिनमान में बतौर संपादक काम किया। उन्होंने तीन वर्ष तक दैनिक नवभारत टाइम्स में फीचर संपादक के पद पर काम करने के बाद 6 सालों तक हिन्दी संडे मेल में प्रधान संपादक के पद पर काम किया। 1995 से वह इंडसइंड मीडिया में निदेशक के पद पर काम कर रहे थे। उन्हें भारतेंदु पुरस्कार, अज्ञेय पुरस्कार, मीडिया इंडिया, कालचक्र और रामकृष्ण जयदयाल सद्भावना पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।1999 में उन्हें पद्मश्री प्रदान किया गया था।इस दौरान उन्होंने कई किताबें लिखीं, जिनमें लुकुआ का शाहनामा, घाट-घाट का पानी, अंतरंग नाट्य परिवेश, आग के रंग, अमृता शेरगिल, समय की दहलीज, बँजर धरती पर इंद्रधनुष, गुजरा कहाँ कहाँ से प्रमुख हैं। * 42वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित रवीन्द्र केलेकर का गोवा में देहांत हो गया।श्री केलेकर कोंकणी भाषा साहित्य के मूर्धन्य रचनाकार थे। उनकी अभी तक कोंकणी,हिन्दी व मराठी में विविध विधाओं के अंतर्गत बत्तीस से अधिक मौलिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। * साहित्य और पत्रकारिता को विरासत में प्राप्त करने वाले नियमित स्तंभकार कैलाश नारद का 13 दिसंबर को 72 वर्ष की आयु में मिर्जापुर में इलाज के दौरान निधन हो गया। उन्होंने कई उपन्यास लिखे। इतिहास से जुड़े विषयों को लेकर लिखे गए लेखों ने उन्हें राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। आजाद भारत के अलावा उनके लेखों में परतंत्र भारत की तस्वीरें भी लेखनी के जरिए उकेरी गईं, जिन्हें हमेशा ही ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना गया। कैलाश नारद को पश्चिम बंगाल में विमल मित्र सम्मान से भी सम्मानित किया जा चुका है। वे जबलपुर विवि में हिन्दी एवं पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। उन्हें केन्द्रीय सेंसर बोर्ड दिल्ली पैनल का सदस्य मनोनीत किया जा चुका है। वे दिल्ली प्रेस क्लब ऑफ इंडिया द्वारा सम्मानित मध्यप्रदेश के पहले पत्रकार रहे जिन्हें साहित्यजगत में रहते हुए प्रतिष्ठित सम्मान दिया गया। ईस्ट इंडिया कंपनी के कालखण्ड पर विशेष जानकारी प्राप्त करने इंग्लैण्ड और यूरोप की यात्राएँ कीं।