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Last Updated : मंगलवार, 28 जून 2016 (15:32 IST)

जवाहरलाल राठौड़ : पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी

जवाहरलाल राठौड़ : पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी - Jawaharlal Rathore, journalist, freedom fighter
वरिष्ठ पत्रकार जवाहरलाल राठौड़ का 28 जून, 2016 को 85 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने इंदौर के नईदुनिया समेत विभिन्न अखबारों में पूरी दबंगता से पत्रकारिता की। राठौर कलम के सिपाही तो थे ही, वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे। छ: दशक से भी ज्यादा समय तक उन्होंने पत्रकारिता की। 
जितनी कुछ लोगों की उम्र होती है या जीवन के जितने साल पूरे कर लेनेपर सेवानिवृत्ति हो जाती है, उतने 60 साल तक जवाहरलालजी राठौड़ ने पत्रकारिता की। यह उपलब्धि कम ही लोगों के खाते में दर्ज हो पाती है। वह भी तब, जब वे ठेठ ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं। 
 
करीब पांच साल तक अपनी जन्मभूमि झाबुआ में नईदुनिया के संवाददाता, फिर इंदौर आकर विभिन्न अखबारों में संवाददाता, विशेष संवाददाता, घूमंतू संवाददाता रहने के बाद वे करीब 30 बरस तक स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर सक्रिय रहे। यदि तबीयत ने अड़गा नहीं डाला होता तो आज 85 बरस की उम्र में भी वे प्रेस कॉन्फ्रेंस में नेता, मंत्री, अधिकारियों के धुर्रे बिखेर रहे होते, किसी भी महत्वपूर्ण घटना में शरीक हो रहे होते और निहायत तथ्यपूर्ण व विश्लेषणात्मक आलेखों के जरिए समाज को खबरदार कर रहे होते।
 
तपस्वी और खालिस पत्रकारों की परंपरा के वाहक और स्वतंत्रता सेनानी जवाहरलालजी का जीवन स्वतंत्र भारत के संघर्षशील और पेशेगत ईमानदारी रखने वाले पत्रकारों की दास्तान बयान करने में सक्षम है। निहायत मामूली परिवार में जन्मे जवाहरलालजी राठौड़ 11 वर्ष की उम्र में सातवीं कक्षा में पढ़ते हुए 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन के तहत विद्यालय में झंडा फहराने के आरोप में झाबुआ स्टेट की प्रताड़ना के शिकार हुए। तीन अध्यापकों को निष्कासित कर दिया गया। 1946 में राष्ट्रीय सेवादल से जुड़े। 4 मार्च 1946 को वंदे मातरम गाने वालों की गिरफ्तारी शुरू हुई तो भागकर बुआ की बेटी के यहां नरसिंहगढ़ चले गए, जहां 15 अगस्त 1947 तक रहे।
 
आजाद भारत में प्रजा मंडल के नेताओं की सिफारिश पर 16 अगस्त 1947 से वे झाबुआ में नईदुनिया के संवाददाता नियुक्त कर दिए गए। इसके बाद वे शेष जीवन पत्रकार के तौर पर समर्पित हो गए। पांच बरस तक इस भूमिका को निभाने के बाद उन्हें लगा कि ऊंची उड़ान भरने के लिए वे अक्टूबर 1952 में इंदौर चले आए। हाईस्कूल के दौरान गणेशोत्सव में राजमहल के दरबार हॉल में राजशाही के खिलाफ एक नाटक वहां के राजा के सामने खेलने के बदले बेंतों से पिटाई हो गई तो उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी।
 
इंदौर आने के बाद वे जागरण में नगर प्रतिनिधि हो गए। इसके बाद कुछ वर्षों तक इंदौर समाचार में भी काम किया। फिर इंटक से जुड़कर मजदूर संदेश के संपादक का दायित्व 1964 से 1977 तक निभाया। इस दौरान वे 1961 में दैनिक हिन्दुस्तान के संवाददाता नियुक्त हुए, जिससे वे 2003 तक जुड़े रहे। 1977 से 2003 तक वे नईदुनिया में घूमंतू संवाददाता के तौर पर संबद्ध रहे तो 2004-05 में वे भास्कर के समीक्षक की भूमिका में भी रहे।
 
उनकी अध्ययनशीलता और संदर्भ प्रेम का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि वे नियमित रूप से करीब 10 अखबार पढ़ा करते और खुद का जो संदर्भ उन्होंने तैयार किया, वैसा अनेक अखबारों का आज भी नहीं है। अपने उसी संदर्भ को जवाहरलालजी राठौड़ ने 2008 में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय को दान कर दिया, ताकि आने वाली पीढ़ी उससे लाभान्वित हो सके।
 
जवाहरलालजी ने सवाल-जवाब में तमाम आक्रामकता रखी, लेकिन कभी-भी सामने वाले को अपमानित करने का भाव उसमें नहीं रहा। वे सकारात्मक और विकासपरक पत्रकारिता के पुरोधा माने गए। उनके आलेखों से कई बार विधानसभा में हलचल मच जाती और अनेक सरकारी योजनाओं की कमियों को उजागर कर उन्हें दुरुस्त तक कराने में उन्होंने कोई कसर नहीं रखी। अपनी सक्रियता के दौर में वे जब भी प्रेस क्लब आते तो कम उम्र पत्रकारों से चर्चा करना पसंद करते।
 
जवाहर लाल राठौड़ जी को जीवन में अनेक पुरस्कार और सम्मान मिले, फिर भी शासन की ओर से यथोचित सम्म्मान दिया जाना बाकी है। सही मायनों में वे अपनी सक्रियता के दौर में पत्रकारिता की चलित पाठशाला रहे हैं।
 
बहुमुखी समाजसेवी : प‍त्रकारिता के साथ वे समाजसेवा में भी सक्रिय रहे। झाबुआ में आदिवासियों के लिए कल्याण के लिए स्थापित गांधी आश्रम में 1948 से 1952 तक निस्वार्थ रूप से नि:शु्ल्क सहयोग दिया। इंदौर के श्रीरामकृष्ण आश्रम की स्थापना से ही आजीवन सदस्य रहे। इसके अलावा उन्होंने कई सामाजिक संगठनोंमें सक्रिय भूमिका निभाई।
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