शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
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Written By अमित शर्मा

व्यंग्य रचना : खा "ना" खजाना

व्यंग्य रचना : खा
खाली दिमाग शैतान का घर होता हैं और खाली पेट चूहों का। जब दिमाग और पेट दोनों भर जाते हैं तो शैतान और चूहे, रोहित शर्मा के टैलेंट की तरह अदृश्य हो जाते हैं। लेकिन जब ज्यादा खाकर दिमाग और पेट दोनों पर चर्बी चढ़ जाए तो इंसान "विजय माल्या" गति को प्राप्त होता है। हम सब बचपन से सुनते आए हैं, "भूखे, भजन ना होए गोपाला, भूख ने है हमें मार डाला "। भूखे पेट भजन करना हमारे लिए संभव नहीं है, हां अगर कोई बखेड़ा खड़ा करना हो तो बात अलग है। 


हम धार्मिक प्रवृत्त‍ि के श्रद्धालु लोग हैं, इसलिए हमारा दृढ़ विश्वास है कि भगवान हमारे भजन करने का इंतजार ठीक वैसे ही करते हैं जैसे हम भारतवासी अच्छे दिनों और काले धन का...फेसबुक पर 89 लोग अपनी प्रोफाइल पिक में टैग करने के बाद "कूल बॉय अंकित" एवं लाइक का और दलित चिंतक हर घटना के पीछे "ब्राह्मणवादी मानसिकता" को जिम्मेदार ठहराने का।
 
"भूखे, भजन ना होए गोपाला..." दरअसल ऐसा कहना हमारी कोई मजबूरी या कमजोरी नहीं हैं, बल्कि ऐसा कहकर तो हम केवल कूटनीतिक तरीके से भगवान को "एक्सक्यूज मी" कहकर "भगवन-पूजा" से पहले "पेट- पूजा" करते हैं। वैसे अगर इसे मजबूरी भी माना जाए, तो इसमें कुछ गलत नहीं हैं। क्योंकि हम तो मजबूरी को भी महात्मा गांधी का नाम देते हैं। ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर हमारी दिनचर्या के अंग हैं और शरीर के सारे अंग अच्छे से काम करते रहें इसलिए आजकल हमें टीवी पर बताया जाता हैं - "स्वाद का तड़का, अंग-अंग फड़का"। क्योंकि जब खा-पीकर सारे अंग अपने आप ही फड़कने लगे, तो पूरा शरीर बिना किसी योग-प्राणायाम और व्यायाम के वैसे ही स्वस्थ रहेगा। हम आजकल अपनी प्यास भी तूफानी तरीके से बुझाते हैं क्योंकि ये प्यास है, "गरीब अन्नदाता" किसान की जिंदगी की "लौ" नहीं जो आसानी से बुझ जाए।
 
हम बचपन से "खाना-खजाना' देखते आ रहे हैं, टीवी पर भी और राजनीती में भी। टीवी पर संजीव कपूर, पाककला से भरपूर...आमचूर से लेकर मोतीचूर तक हमें अलग-अलग तरह की डिश बनाना सि‍खाते थे, तो वहीं राजनीती में नेता भी वर्षों से जनता की हर तरह की "विश" में अपने "वैचारिक-विष" का तड़का लगाते रहे  हैं। "खाना-खजाना" ने  भ्रष्टाचार और अनैतिकता को बढ़ावा दिया है। जहां पहले लोग सब्जी के लिए मटर छीलते समय 2-3 मटर खा लेने पर भी आत्मग्लानि का अनुभव करते थे, वहीं टीवी पर खाना खजाना देखने के बाद व्रत-उपवास के दिन भी भूखे रहने के बजाए साबूदाने की खिचड़ी, दो दर्जन केले, 5-6 एप्पल, 1 किलो अंगूर, 5-6 संतरे, ड्राई फ्रूट्स और 3-4 गिलास मिल्कशेक/लस्सी भकोसने की लंपटता सीख गए हैं।  
 
एक आम आदमी का हाजमा, उसके बैंक खाते में जमा राशि जितना ही मजबूत होता है, लेकिन राजनेता तो जाति, धर्म और भ्रष्टाचार का "राजनैतिक त्रिफला चूर्ण" खाकर अपना हाजमा इतना मजबूत कर लेते हैं कि "कॉमन-वेल्थ" को भी हजम कर जाते हैं। कुछ नेताओं का हाजमा तो इतना मजबूत होता है कि वो, " मैं देश नहीं झूकने दूंगा" की कसमें खाते हुए झगड़ालू पड़ोसी के बर्थडे पार्टी पर केक तक खाने पहुंच जाते हैं। अगर कभी गलती से कोई कमजोर हाजमे वाला व्यक्ति सत्ता  तक पहुंच जाता हैं तो इस कमजोरी को दूर करने के लिए अपनी कमजोरी को ईमानदारी का मफलर पहनाकर इसे "औड" दिनों में दूसरे राज्यों में और 'इवन" दिनों में अपने राज्य में प्रचारित करके खजाने को खाली कर अपने हाजमा में धीरे-धीरे "स्टेमिना" जमा करता है। 
 
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सरकारी खजाना खाली करके राजनेता, जनता की भलाई और बड़ा पुण्य का कार्य करते हैं, क्योंकि वो चाहते हैं की खजाना खाली देखकर लोगो में और ज्यादा काम करने की इच्छा जागृत हो और वो ज्यादा से ज्यादा कमाकर, सरकारों को टैक्स देकर फिर से खजाना भर सके।

इस तरह से घोटाले करके सरकारें तो बहुत पहले से ही "स्किल इंडिया" के तहत लोगों की उद्यमशीलता को बढ़ावा दे रही है। जब बरसों पहले मनोज कुमार साहब ने  गाया था "काले-गोरे का भेद नहीं, हर दिल से हमारा नाता है..." तो काले-गोरे से उनका संदर्भ "धन" से था क्योंकि हमारे नेता काले-गोरे धन में अंतर ना करते हुए, नस्लभेद मिटाने की अपील करते हुए, सामाजिक समरसता और सदभाव का ही संदेश दे रहे हैं। इतना खाने के बाद भी हमारे नेता कभी "डकार" या "हाजमोला" नहीं लेते हैं। हां, अगर जरूरत महसूस हो तो समर्थकों के साथ "सेल्फी" जरूर ले लेते हैं। 
 
त्रिफला चूर्ण खाने और संसद की कैंटीन में सब्सिडी वाला भोजन करने से नेताओं को "गैस" की प्रॉब्लम कभी नहीं होती। और आम जनता को भी यह समस्या ना हो इसलिए उन्हें अपनी "गैस" सब्सिडी छोड़ने की सलाह दी जाती है। बोफोर्स की तोप से लेकर कोयले की खदानें, चींख-चींख कर राजनेताओं के मजबूत हाजमे की गवाही देती रही हैं। हमारे नेता इतने सालों से अपने हाजमे का लोहा मनवाते रहे हैं और भ्रष्टाचार से लोहा लेते रहे हैं फिर भी यह एक विडंबना ही है कि हमारे देश में "आयरन" की कमी से हर साल इतनी मौतें हो जाती हैं। मजबूत हाजमे की निशानी होती है कि खाने के बाद अगर कहीं कोई "गैस"लीक हो तो उसमें आपका  नाम ना आए। लेकिन अगर "पनामा लीक' हो तो उसमें आपका नाम जरूर आए, क्योंकि "लीक" से हटकर ही हम कहीं "लीक" हो सकते हैं और "पीक" पर पहुंचने के लिए "लीक" होना जरूरी हैं।