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Written By निर्मला भुरा‍ड़‍िया

शिक्षा हो कला-साहित्य-खेल का संगम

जीवन के रंगमंच से

शिक्षा हो कला-साहित्य-खेल का संगम -
भारतीय माँ-बाप और शिक्षक यहाँ तक कि भारतीय स्कूल- कॉलेजों के प्रबंधक भी पाठ्येतर गतिविधियों को बहुत कम महत्व देते हैं। हमारे यहाँ शिक्षा का मतलब सिर्फ अकादमिक पढ़ाई है। शिक्षा का मतलब छात्र-छात्रा के संपूर्ण व्यक्तित्व को निखारना बहुत ही कम लोग समझते हैं। संपूर्ण शिक्षा का मतलब सिर्फ कोर्स की पढ़ाई नहीं। खेलना, ज्ञान-विज्ञान, प्रयोग, परीक्षण, कलाबोध, कोर्स से इतर पुस्तकों का अध्ययन आदि कई चीजें इसमें आती हैं।

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मगर भारतीय माँ-बाप इन सब चीजों को समय की बर्बादी समझते हैं। अतः वे पाठ्येतर गतिविधियों में संलग्न होने वाले बच्चे को रोकते हैं। बच्चे के हाथ में उपन्यास है तो वे छीन लेते हैं, बल्ला छुपा देते हैं, खेलने आने वाले उनके साथियों को दरवाजे से ही भगा देते हैं। इस तरह वे बच्चे का नुकसान करते हैं।

बच्चों को खेलकूद में रुचि लेने देना चाहिए, क्योंकि खेल लद्दड़पन को तोड़ता है, आलस्य को डंडा मारकर भगा देता है, शरीर और मन दोनों में जोश का संचार करता है। खेलने के लिए शरीर और दिमाग का तालमेल चाहिए, खेलने से व्यक्ति का बैलेंस सुधरता है। निशाने के अभ्यास, कैच लेने, टोल मारने आदि से एकाग्रता बढ़ती है। यह सब बहुत फुर्ती से करना होता है अतः खिलाड़ी व्यक्ति में गजब का चौकन्नापन होता है।

सामूहिक खेल टीम-भावना का विकास करते हैं, जो आजकल के एकल परिवार और इकलौते बच्चों के कारण अलग से विकसित करना जरूरी हो गया है। टीम में खेलने वाले बच्चे 'इक्कलखोरे' नहीं बनते, 'बाँट-चूट के खाना बैकुंठ में जाना' वाली संस्कृति का हिस्सा बनते हैं। शारीरिक रूप से भी खेल स्टेमिना विकसित करते हैं, मांसपेशियाँ बनाते हैं, सही रक्त-संचार करते हैं।

इसके अलावा दौड़ना, साइकल चलाना, तैरना जैसी गतिविधियाँ कार्डियो एक्सरसाइज भी हैं। ये व्यक्ति को तंदुरुस्त रखते हैं। खेलने वाले बच्चों में संघर्ष का माद्दा बनता है। खेलने वाले का मेटाबोलिज्म यानी चयापचय सुधरता है अतः ऐसे लोगों का शरीर कैलोरी बर्न करने में भी सुस्ती नहीं दिखाता। लिहाजा, मोटापा भी खिलाड़ियों से दूर रहता है और उत्साह उनकी शिराओं में हमेशा बहता है। खिलाड़ी कभी कंधे झुकाकर नहीं चलता। खेलने वाले व्यक्ति का पॉश्चर सुधरता है, वह सीधा तनकर उठता है, बैठता और चलता है जिससे उसके व्यक्तित्व में आत्मविश्वास की प्रतीति होती है।

बच्चे यदि कोर्स से अलग किताबें पढ़ रहे होते हैं तो यह अच्छा ही है। इससे उनका भाषा-ज्ञान विकसित होगा, शब्द-विन्यास सुधरेगा और अभिव्यक्ति पुख्ता होगी। ज्ञान की शक्ति और स्वयं को उम्दा तरीके से अभिव्यक्त कर लेने की क्षमता उनके आत्मविश्वास में इजाफा करेगी। पढ़ने की आदत से उन्हें इंसानी मनोविज्ञान समझने में भी आसानी होगी। पुस्तकें उन्हें परिपक्व बनाएँगी। इसी तरह पेंटिंग आदि में रुचि व्यक्ति को तनावमुक्त तो करती ही है, उसमें कलाबोध भी विकसित होता है।

कलाओं को सराहने और अपनाने वाले व्यक्ति में एक विशिष्ट नजर विकसित हो जाती है। पेंटिंग न सिर्फ प्रतियोगिताओं में जाने के लिए है, न सिर्फ पैसा कमाने के लिए है बल्कि यह तो आत्मा को तरबतर करने वाली विधाएँ हैं। इनसे यदि आने वाली पीढ़ी शुद्ध कला के दृष्टिकोण से भी जुड़ती है तो न सिर्फ उसका सौंदर्यबोध बढ़ता है, बल्कि उन्हें जीवन की सुंदरता को देखना आ जाता है, उनके व्यक्तित्व में आध्यात्मिक निखार भी आता है।

दरअसल, लोग हर चीज को बाजार और प्रतिस्पर्धा के तौर पर देखने लगे हैं। यह भौतिकतावादी नजर सामाजिक भ्रष्टाचार को बढ़ा रही है, क्योंकि भौतिकतावाद का बोलबाला यह भ्रम देता है कि पैसा बना लेने की क्षमता के अलावा और कोई चीज उपलब्धि है ही नहीं। जीवन में कई गतिविधियाँ ऐसी हैं, जो पैसा बनाएँ न बनाएँ, जीवन को सुंदर बनाती हैं। इन गतिविधियों के लिए न किसी को धोखा देने की जरूरत है, न किसी का ईमान खरीदने की, बस जीने की जरूरत है खूबसूरत ढंग से।