मनीष कुमार
बीते करीब 17 दिनों से बिहार के कई शहरों की हवा भारत में सबसे अधिक जहरीली हो गई है। वायु की गुणवत्ता खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी है। इस मायने में सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में एक दिल्ली बिहार के कई शहरों से पीछे छूट गई है।
इस साल 20 नवंबर को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) 423 के साथ मोतिहारी भारत का सर्वाधिक प्रदूषित शहर रहा, वहीं इसके बाद दूसरे नंबर पर 411 एक्यूआई वाला दरभंगा तथा तीसरे नंबर पर 401 के साथ सीवान रहा। आंकड़ों के अनुसार बेगूसराय, कटिहार, बेतिया, पूर्णिया, अररिया, मुजफ्फरपुर, बक्सर, समस्तीपुर और पटना की हवा भी काफी खराब चल रही। बिहार में प्रदूषण और वायु की खराब गुणवत्ता पर पूरे देश में चर्चा हो रही है।
क्यों बढ़ जाता है एयर क्वालिटी इंडेक्स
एक्यूआई वायु की गुणवत्ता मापने का एक पैमाना है। वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) अगर 50 से नीचे है तो वहां की हवा स्वास्थ्य के लिए सबसे अच्छी मानी जाती है। 50 से 100 एक्यूआई के बीच की संतोषजनक, 100 से 200 के बीच संतुलित, 200 से 300 के बीच खराब, 300 से 400 के बीच बहुत ही खराब तथा 400 से ऊपर एक्यूआई वाली हवा खतरनाक हो जाती है। यह स्वास्थ्य के लिए काफी नुकसानदायक है। एक्यूआई लेवल बढ़ने की कई वजहें हैं। ठंड के मौसम में वातावरण में नमी बढ़ने और धूलकण के उड़ने से वायु की गुणवत्ता खराब हो रही है। गर्मी के दिनों में ये धूलकण वायुमंडल में बिखर जाते हैं, लेकिन सर्दियों में ऐसा नहीं हो पाता है और ये धुंध के साथ मिलकर हवा में स्थिर होने लगते हैं।
बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष अशोक कुमार के अनुसार राज्य की भौगोलिक संरचना भी एक हद तक इसके लिए जिम्मेदार है। राज्य के कुछ भाग को छोड़ कर अधिकांश जगहों पर एल्युवियल स्वाइल पाई जाती है, जो आसानी से धूलकण बन जाते हैं। बाढ़ प्रभावित क्षेत्र होने के कारण उत्तर बिहार के बड़े भूभाग में बाढ़ के पानी के साथ-साथ सिल्ट भी आता है। इस मौसम में सिल्ट धूलकण बनकर हवा में फैलने लगता है। इस मौसम में थर्मल इनवर्जन की वजह से गर्म हवा ऊपर जाने लगती है और ठंडी हवा नीचे आने लगती है। जो धूलकण वायुमंडल में ऊपर होता है वह नीचे आने लगता है, इससे धुंध छाने लगता है और जब नीचे से धूल उड़ती है तो वह नहीं फैल पाने के कारण स्थिर होने लगती है।
शिकागो विश्वविद्यालय की एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट की ओर से की गई स्टडी के अनुसार बिहार, उत्तर प्रदेश समेत सात राज्यों की लगभग पूरी आबादी अतिसूक्ष्म धूलकण (पीएम 2।5) की जद में हैं। बिहार में यह 85।9 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन और देश में निर्धारित मानक से काफी अधिक है।
जागरूकता की कमी से बढ़ी मुश्किलें
इसके अलावा भी प्रदूषण बढ़ने के कई कारण हैं जो मानव निर्मित होते हैं। लोगों में प्रदूषण को लेकर अभी भी उतनी जागरूकता नहीं है। पर्यावरणविद आर।के सैनी बताते हैं, पेड़ों की कटाई, शहर के अंदर कचरे को जलाना, सड़क-पुल या भवन निर्माण आदि में निर्धारित मानदंडों का पालन नहीं करना, निर्माण सामग्रियों का बिना ढंके परिवहन भी उन वजहों में शामिल हैं, जिनसे वायु गुणवत्ता सूचकांक में खतरनाक स्तर तक वृद्धि होती है।''
गीले और सूखे कचरे को अलग करना तो दूर लोग यहां वहां हर तरह के कचरे को फेंक देते हैं। गाड़ियों के प्रदूषण को लेकर भी लापरवाही बरती जाती है। शहरों की तंग गलियां तथा डीजल से चलने वाली गाड़ियों पर निर्भरता प्रदूषण बढ़ाने वाले कारक हैं। बड़ी संख्या में निर्माण कार्य हो रहे हैं, लेकिन साइट को ग्रीन कपड़े से कवर करने में कोताही बरती जाती है। सड़कों पर खुली जगहों में निर्माण सामग्री पड़ी रहती है, जो अंतत: वायुमंडल में धूलकण की मात्रा ही बढ़ाती है। कटिहार का एक्यूआई लेवल देश में सर्वाधिक (420) होने पर वहां के जिलाधिकारी ने तो साफ कहा था कि निर्माण कार्यों की वजह से ही इसमें बढ़ोतरी हुई है।
यूपी में जल रही पराली का असर
जानकारों का मानना है कि उत्तर प्रदेश के खेतों में जलाई जा रही पराली का धुआं भी बिहार में हवा को खराब कर रहा है। बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष अशोक कुमार कहते हैं, उत्तर बिहार के जिन शहरों जैसे मोतिहारी, बेतिया आदि में एक्यूआई लेवल ज्यादा है, उसका एक कारण इन शहरों का यूपी की सीमा से लगा होना भी है। पछुआ हवा की वजह से यूपी का धुआं बिहार की ओर आ रहा है। इसलिए सीमावर्ती जिले इससे खासे प्रभावित हो रहे हैं। बिहार में तो पराली जलाने का मामला नहीं के बराबर है।''
नासा की ओर से जारी सैटेलाइट इमेज को देखने से पता चलता है कि यूपी के वे जिले जो बिहार से लगे हैं, वहां अधिक मात्रा में पराली जलाई जा रही है। बिहार में पहले अधिकतर किसान मजदूरों से फसलों की कटाई करवाते थे लेकिन, धीरे-धीरे अब मशीनों से कटाई का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इससे जो फसल अवशेष बचता है उसे जलाने के लिए माचिस की एक डिब्बी का ही खर्च आता है, जबकि हाथ से की गई कटाई के बाद खेतों की साफ-सफाई में काफी खर्च बैठता है।
इस कड़ी में बिहार सरकार ने खेतों में फसल अवशेष जलाने वाले किसानों को किसी भी तरह की सरकारी योजना या सहायता का लाभ नहीं देने का नियम बनाया है और इस पर सख्ती से अमल भी किया जाता है। अब तक करीब एक हजार से अधिक ऐसे किसानों को चिन्हित किया गया है।
बिहार में प्रदूषण पर लगाम कसने की योजना
बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बढ़ते प्रदूषण पर रोकथाम के लिए एकीकृत कार्य योजना बना रहा है, जो प्रमुख शहरों के लिए नहीं, बल्कि राज्यभर के लिए होगी। सूत्रों के अनुसार ग्रीन बेल्ट विकसित करना, ई-व्हीकल और वातावरण के अनुकूल बायो फ्यूल के इस्तेमाल को बढ़ावा देना, निर्माण सामग्रियों को ढंक कर ले जाना व निर्माण स्थल को ग्रीन शील्ड से कवर करना तथा गाड़ियों के उत्सर्जन पर रोक की कड़ी व्यवस्था, सड़कों पर पानी का छिड़काव एवं स्मॉग गन का इस्तेमाल को कार्ययोजना में व्यापक तौर पर शामिल किया गया है।
इन सबों के अलावा बिहार में करीब आठ हजार से अधिक ईंट भट्ठे हैं जो काफी प्रदूषण फैलाते हैं। इन्हें भी अब जैक मॉडल पर तैयार करने का निर्देश दिया जा रहा है। पटना, गया और मुजफ्फरपुर में ऐसे ही एक्शन प्लान के तहत काम किया जा रहा है। उसके परिणाम भी सामने आए हैं ।
ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है, जिससे यह कहा जा सके कि सब कुछ अचानक हो गया। लापरवाही और अनदेखी से ही हवा खराब हुई। प्रदूषण नियंत्रण के कर्ता-धर्ता ही कहते हैं कि योजना की कमी नहीं है, समस्या इसके अनुपालन की है।