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Last Modified: शुक्रवार, 7 जून 2019 (11:32 IST)

भाषाएं संस्कृति को जोड़ने के साथ आर्थिक विकास का आधार

भाषाएं संस्कृति को जोड़ने के साथ आर्थिक विकास का आधार | Language culture
भारत में तीन भाषा के फॉर्मूले पर फिर से बहस हो रही है। तमिलनाडु में हिंदी को जबरन थोपने का विरोध हुआ है। हिंदी इलाके में दूसरी मातृभाषा के लोगों को भी इससे मुश्किल होगी। बहुभाषी यूरोप के अनुभवों पर नजर डालना दिलचस्प है।
 
 
भारत में यूं तो 1968 से ही स्कूलों में तीन भाषाओं का फॉर्मूला लागू है, लेकिन उस पर हर कहीं अमल नहीं हो रहा है। 1970 के दशक में जब मैं पटना में पढ़ रहा था तो स्कूली सुधार को लेकर बहस छिड़ गई थी क्योंकि संशोधित स्कूल नीति में संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं में तो पढ़ाई की संभावना थी लेकिन मैथिली, भोजपुरी और मगही जैसी स्थानीय भाषाएं स्कूलों से बाहर कर दी गई थीं।
 
 
उस समय मैथिली संविधान की आठवीं सूची में नहीं हुआ करती थी। अजीब सी स्थिति थी क्योंकि मैथिली जैसी करोड़ों लोगों की मातृभाषा कॉलेजों में पढ़ाई जाती थी और विश्वविद्यालयों में पीएचडी भी हो रही थी। व्यापक विरोध के बाद स्थानीय भाषाओं को भी स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया। लेकिन बहुत सालों तक दक्षिण भारतीय भाषाओं की पढ़ाई के लिए स्कूलों में शिक्षक नहीं थे।
 
 
स्कूली शिक्षा में भाषा का बड़ा महत्व होता है। बच्चे घरों में मातृभाषा सीखते हैं और शिक्षा विशेषज्ञ कहते हैं कि बच्चे मातृभाषा में नई बातें आसानी से सीखते हैं। भारत में भारतीय भाषाओं के विकास पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है और अंग्रेजी का महत्व न सिर्फ संपर्क की भाषा के रूप में बल्कि उच्च स्तर पर नई चीजें सीखने और रोजगार पाने के लिए लगातार बढ़ता गया है।
 
 
हालांकि इंटरनेट और सोशल मीडिया की भाषा के रूप में हिंदी का चलन बढ़ा है लेकिन शिक्षा की भाषा के रूप में उसकी स्वीकृति पर अभी और प्रयासों की जरूरत है। क्योंकि इस बीच इंटरनेट की भाषा के रूप में अंग्रेजी का चलन भी बढ़ा है और वह पहले से ही विकसित भाषा है जिसमें साहित्य और संस्कृति के अलावा विज्ञान और शोध के स्तर पर इस बीच बहुत से देशों के लोग नियमित योगदान दे रहे हैं।
 
 
दिलचस्प ये बात है कि भारत को बहुभाषीयता कोख में मिली है जबकि यूरोप ने इसे प्रयासों से हासिल किया है। आज यूरोपीय संघ में जर्मन जैसी भाषा है जो 8 करोड़ की आबादी वाले जर्मनी के अलावा ऑस्ट्रिया और कुछ अन्य देशों में बोली जाती है।  तो स्लोवेननियन जैसी भाषा भी है जिसे स्लोवेनिया के सिर्फ 4 लाख लोग बोलते हैं। भारत की ही तरह यूरोप के हर छोटे बड़े देश की अपनी भाषा है और सारी पढ़ाई तथा सारा काम काज उसी भाषा में होता है। लेकिन मानवीय विकास का एक ऐसा मोड़ भी आता है जहां ज्ञान की प्यास दूसरे इलाकों की और ले जाती है और वहां दूसरी संस्कृतियों को समझने के लिए, वहां के साहित्य को जानने के लिए और वहां हो रहे शोध को समझने के लिए दूसरे देशों की भाषा का ज्ञान जरूरी होता है।
 
 
यूरोप ने इसके महत्व को समझा है और स्कूलों में विदेशी भाषा की पढ़ाई को बढ़ावा दे रहा है। यूरोपीय संसद ने 2009 में ही एक प्रस्ताव पास कर कहा था कि यूरोपीय देशों के बच्चों को दो विदेशी भाषाएं सीखनी चाहिए। अब यूरोप के ज्यादातर देशों में बच्चे 8 से 9 साल की आयु में पहली विदेशी भाषा पढ़ना शुरू करते हैं।
 
 
नॉर्वे, माल्टा और लक्जमबर्ग जैसे देशों में छह साल की उम्र में ही पहली विदेशी भाषा सिखाने की शुरुआत हो जाती है। बेल्जियम और स्पेन में यह काम तीन साल की आयु यानि किंडरगार्टन में ही शुरू हो जाता है। इसके विपरीत ब्रिटेन में जो सैकड़ों सालों तक भारत पर राज करने के कारण उसका आदर्श भी है, पहली बार ग्यारह साल की उम्र में यानि छठी क्लास में पहली विदेशी भाषा से संपर्क होता है। जर्मनी में कुछ स्कूलों में पहली क्लास में तो कुछ अन्य में तीसरी क्लास से पहली विदेशी भाषा की शुरुआत होती है। शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे विशेषज्ञों का मानना है कि छोटे बच्चों को नई भाषाएं सिखाना आसान है, इसलिए दो भाषाओं वाले किंडरगार्टन लोकप्रिय हो रहे हैं।
 
 
प्राइमरी स्कूल घर परिवार से बाहर सामाजिकता का पाठ पढ़ाने वाला पहला ठिकाना है। यहां बच्चे नया सीखने, दूसरे बच्चों के साथ सामंजस्य और अनुशासन के पाठ सीखते हैं। जबकि मिडिल स्कूल, हाई स्कूल की तैयारी की जमीन देता है। प्राइमरी स्कूल जर्मनी में बहुत से नए विचारों के प्रयोग की भी जगह है जिससे स्कूली शिक्षा बेहतर करने का मौका मिलता है।
 
 
जर्मनी में भी भारत की ही तरह शिक्षा राज्य सूची में आता है। बहुत से राज्यों ने अपने यहां विदेशी बच्चों की बढ़ती संख्या और बड़े शहरों के बहुसांस्कृतिक होने के कारण प्राइमरी स्कूलों में बाइलिंगुअल व्यवस्था लागू की है। हालांकि जर्मनी में भी इस बात पर बहस है कि विदेशी भाषाओं के मामले में अंग्रेजी और फ्रेंच जैसी विदेशी भाषाओं पर ध्यान दिया जाए या अरबी और तुर्की भाषाओं पर, जिसे बोलने वाले बच्चे इस बीच बड़ी संख्या में जर्मन शहरों में रह रहे हैं।
 
 
जाहिर है कि परंपरागत रूप से पढ़ाई जाने वाली अंग्रेजी और फ्रेंच जैसी औपनिवेशिक भाषाएं लोगों के लिए दुनिया भर में दरवाजे खोलती है लेकिन शिक्षाविदों का मानना है कि अरबी और तुर्की जैसी भाषाएं सीखने से बच्चे अपनी अंतरसांस्कृतिक क्षमताएं बढ़ा पाएंगे। यूरोप के दूसरे देशों में भी पहली विदेशी भाषा के रूप में अंग्रेजी का ही बोलबाला है। दूसरे नंबर पर स्पेनिश है। फ्रेंच और जर्मन का नंबर उसके बाद आता है। स्कूलों में विदेशी भाषा की पढ़ाई ने यूरोप को भावनात्मक तौर पर नजदीक लाने में मदद दी है और लोगों को करीब लाने के साथ साथ पर्यटन को भी बढ़ावा दिया है।
 
 
भारत के प्रांत भी यूरोप से सीख सकते हैं और देश के दूसरे हिस्सों में भाषाई शिक्षा की मदद से अपने लिए समर्थक और सहानुभूति तैयार कर सकते हैं। यूरोप एक ईकाई के रूप में मजबूत होने की कोशिश कर रहा है तो भारत को अपनी एकता को पुख्ता करना है। पड़ोसी की भाषा सीखना न सिर्फ यह एक दूसरे के साहित्य व संस्कृति को समझने में मदद करता है वह भारत को एक राष्ट्र के रूप में भी मजबूत करेगा।
 
 
रिपोर्ट महेश झा
 
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