'वे नितांत उज्जवल हैं और उनकी सचाई संदेह के परे है। राष्ट्र उनके हाथों में सुरक्षित है।' - महात्मा गांधी
ऐश्वर्य को त्यागकर, स्वाधीनता आंदोलन के कंटकाकीर्ण पथ पर चल पड़ना और वर्षों तक कारावास भोगना, इस दृढ़ विश्वास के साथ कि एक न एक दिन दिल्ली के लाल किले पर यूनियन जैक की जगह तिरंगा अवश्य फहराएगा, केवल नेहरू के बस की ही बात थी।
देश के जननायक, आधुनिक भारत के निर्माता और विश्व शांति के अग्रदूत, न जाने कितने संबोधनों से भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरू को पुकारा जाता है। आज जिस भूमंडलीकरण की सर्वत्र चर्चा हो रही है, उसके महत्व को असाधारण दृष्टि वाले इस महानायक ने बहुत पहले ही प्रतिपादित करते हुए कहा था, 'विश्व का अंतरराष्ट्रीयकरण हो चुका है। उत्पादन, बाजार तथा परिवहन अंतरराष्ट्रीय है और मनुष्य के रूढ़िवादी विचार आज मूल्यहीन हैं। वास्तव में कोई भी राष्ट्र स्वावलंबी न होते हुए एक-दूसरे पर निर्भर है।'
उन्होंने विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का भी मानवतावादी आदर्शों के साथ समन्वय करने पर बल दिया। उनके नेतृत्व में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में भारत ने उल्लेखनीय प्रगति की।
युद्घोत्तरकाल में जब परस्पर विरोधी व्यवस्थाओं के बीच सदैव संघर्ष और युद्घ की स्थिति निर्मित रहती थी, नेहरू का विचार था कि यह स्थिति स्वाभाविक या अनिवार्य नहीं है। विभिन्न देश एक-दूसरे के साथ 'शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व' की स्थिति में रह सकते हैं। यह एक महान और युगांतरकारी विचार था, जो समस्त मानव-जाति को विनाश से बचाने के लिए आज भी हर दृष्टि से प्रासंगिक है।
पंचशील के प्रसिद्घ सिद्घांतों को आधुनिक युग में जब मूर्त रूप देने का समय आया तब चीन ने विश्वासघात का घृणित उदाहरण पेश करते हुए इस सिद्घांत की धज्जियां उड़ा दीं और भारत पर हमला कर दिया। एक महान विचार जो अन्य देशों के बीच भी शीत-युद्घ की स्थिति समाप्त कर शांति का 'सीमेंटिंग-फोर्स' बन सकता था, एक स्वार्थी और मदांध राष्ट्र द्वारा अप्रासंगिक कर दिया गया। इस नीति के आलोचकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि तत्कालीन परिस्थितियों में नेहरू ने राष्ट्रहित में सर्वश्रेष्ठ विकल्प का ही चयन किया था।
यही नहीं, जब पूरी दुनिया पूं जीवादी और साम्यवादी शिविरों की द्विध्रुवीय व्यवस्था में बंट गई थी, तब नेहरू ने गुटनिरपेक्षता का सशक्त और सामयिक विकल्प पेश कर समान मानसिकता वाले विश्व के अन्य देशों को एक नया मार्ग सुझाया।
उनकी कल्पनाशीलता और लगन से जिस तरह गुटनिरपेक्ष आंदोलन पल्लवित हुआ और उसे व्यापक मान्यता मिली, उसने न केवल उन्हें विश्वनेता के रूप में स्थापित कर दिया, बल्कि उन आलोचकों को भी करारा जवाब दिया जो इस नीति को 'अवसरवादी व निष्क्रिय' घोषित कर चुके थे।
नेहरू आजीवन सांप्रदायिकता के प्रबल विरोधी रहे। उन्होंने सांप्रदायिक संगठनों को धार्मिक समूहों से संबंधित बताया, जो धर्म के नाम का दुरुपयोग करते हैं, लेकिन ये धर्म की मूल भावना के विरुद्घ है। उनके बारे में गांधीजी ने कहा था, 'वे नितांत उज्जवल हैं और उनकी सचाई संदेह के परे है। राष्ट्र उनके हाथों में सुरक्षित है।' किसी के लिए भी इससे बड़ा प्रमाण-पत्र और सम्मान क्या हो सकता है!
'विश्व इतिहास की झलक', 'आत्मकथा' और 'भारत की खोज' जैसी कृतियों की रचना कर साहित्य जगत में भी अपनी गहरी छाप छोड़ने वाले इस प्रखर विचारक का राष्ट्रप्रेम अद्वितीय था।
अपनी मृत्यु के कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने अपने संबंध में कहा था, 'यदि कोई व्यक्ति मेरे संबंध में सोचना पसंद करे तो मैं उसे कहना चाहूंगा कि वह सोचें नेहरू एक ऐसा व्यक्ति था, जिसने अपने संपूर्ण मन और मस्तिष्क से भारतीय जनता को प्रेम किया और बदले में भारतीय जनता ने भी उसे अपार प्रेम प्रदान किया।'
इस अमर राष्ट्रशिल्पी के योगदान को डॉ. राधाकृष्णन के शोक संदेश से भली-भांति समझा जा सकता है। उन्होंने नेहरू की मृत्यु के बाद ठीक ही कहा था कि 'श्री नेहरू की मृत्यु से देश का एक युग समाप्त हो गया है। श्री नेहरू का जीवन अनंत सेवा और समर्पण का जीवन था। वे हमारी पीढ़ी के महानतम व्यक्ति थे। आधुनिक भारत के लिए उनका योगदान अभूतपूर्व था। उनके जीवन और कार्यों का हमारे चिंतन, हमारे सामाजिक संगठन और बौद्घिक विकास पर गहरा प्रभाव पड़ा है। वे मानव सभ्यता को परमाणु युद्घ के विनाश से बचाना चाहते थे।'