हिन्दी पर कविता : हिन्दी को भी समझ न आए
- रुद्र श्रीवास्तव
मेंढक हिन्दी में टर्राए,
कुत्ते हिन्दी में गुर्राए।
रात-रातभर सारे बगुले,
हिन्दी-हिन्दी ही बर्राए।
सुबह उठे तो सबने देखा,
हिन्दी भागी पूंछ दबाए।
हिन्दी भूखी अब क्या खाए,
क्या अब प्यासी ही मर जाए।
कहां रहे हैं अब जगह नहीं है,
हिन्दी को भी समझ न आए।
खड़ी हुई है बीच सड़क पर,
कोई तो अब राह बताए।