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Written By संदीप तिवारी

जी-20 : आर्थिक सहयोग से राजनीतिक अखाड़ा तक

जी-20 : आर्थिक सहयोग से राजनीतिक अखाड़ा तक - G-20 summit
हाल ही में चीन के हांगझू शहर में जी-20 देशों की शिखर बैठक में सदस्य देशों के बीच आर्थिक  सहयोग को बढ़ाने को लेकर विचार, विमर्श समझौते होने थे लेकिन सोमवार को जब सम्मेलन समाप्त हुआ मेजबान चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने घोषणा की कि भगोड़े आर्थिक अपराधियों के प्रत्यर्पण और उनसे बकाया वसूली के लिए चीन में एक रिसर्च सेंटर बनाया जाएगा। इस शिखर बैठक की अन्य सुर्खियां हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने दक्षिण चीन सागर में दबाव बनाने पर चीन को परिणाम भुगतने की चेतावनी दी। 
 
जी-20 ने पहली बार विकास एजेंडा 2030 पर अमल करने और अफ्रीकी व अल्प विकसित देशों में औद्योगिकीकरण को सामूहिक रूप से बढ़ावा देने पर जोर दिया गया है। चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग ने कहा कि जी-20 को अंतरराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग की अग्रणी फोरम बने रहने का भरोसा जताया,  लेकिन सम्मेलन से जो समाचार खासतौर पर आए वे आर्थिक मसलों की बजाय क्षेत्र की भूराजनीतिक स्थितियों को लेकर थे।  
 
शिखर सम्मेलन में ही दक्षिण सागर पर जहां चीन ने जापान को चेताया तो ओबामा ने चीन को गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी दे डाली। सम्मेलन में जुड़े एक नए अध्याय के तहत फिलीपींस के राष्ट्रपति दुर्तेते ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को मां-बहनों की गालियों से सराहा। बाद में जब ओबामा ने उनसे मिलने से इनकार कर दिया तो उन्होंने माफी भी मांग ली। भारतीय प्रधानमंत्री मोदी ने प्रधानमंत्री ओलां के समक्ष उठाया स्कॉर्पीन लीक मुद्दा उठाया तो इससे पहले वह ब्रिटिश प्रधानमंत्री टेरेसा मे से भी मिले और दोनों देशों के संबंधों और कारोबारी संभावनाओं पर चर्चा की।
 
इसी तरह जब समिट के दौरान ओबामा और पुतिन आमने-सामने आए तो दोनों की एक-दूसरे को घूरती तस्वीरें सामने आईं। ओबामा ने पुतिन को 'खा जाने वाली नजरों' से देखा जबकि दोनों नेताओं सीरिया के मुद्दे का कोई समाधान खोजना था। कोई समाधान नहीं निकला लेकिन दोनों इस मुद्दे पर जरूर सहमत हुए कि वे समझौते के लिए प्रयास करते रहेंगे। विदित हो कि सीरिया में पिछले पांच सालों में 3 लाख से अधिक लोग मारे गए हैं और लाखों लोगों को पलायन को मजबूर होना पड़ा है और समूचे यूरोप को शरणार्थियों की समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। 
 
वहीं ओबामा ने टेरेसा मे को ब्रिटेन के यूरोपीस संघ से अलग होने के खतरों से चेताया तो भारत ने अपने पड़ोस में आतंकवादियों की मौजूदगी और कश्मीर में पाकिस्तानी हस्तक्षेप का दुखड़ा सुनाया। उल्लेखनीय है कि सम्मेलन में सभी देशों के नेताओं को जहां 2008 की वैश्विक मंदी से उबरने के लिए बेहतर मौद्रिक, वित्तीय और संस्थागत नीतियों को प्रभावी बनाने पर बातचीत करनी थी लेकिन समाचार पत्रों में जो कवरेज रहा उससे लगता है कि यह भारत-चीन के बीच कोई मैच हो रहा था।
 
चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग ने जहां किर्गीज गणराज्य में राजधानी बिश्केक में चीनी दूतावास पर आतंकी हमले की बात की तो मोदी का कहना था कि 'दक्षिण एशिया में आतंकवादी या दुनिया के अन्य क्षेत्रों में बैंक या हथियार की फैक्ट्रियां नहीं रखते हैं। निश्चित रूप से कुछ देश (पाकिस्तान, चीन)  इनको पैसा उपलब्ध कराते हैं।' उन्होंने ब्रिक्स देशों से आतंक के खिलाफ लड़ाई छेड़ने या आतंक को बढ़ावा देने वाले एकमात्र एशियाई देश (पाकिस्तान) का जिक्र किया। इन बातों का चीन पर कोई असर पड़ने वाला नहीं था क्योंकि यह अतीत में ऐसे तानाशाहों का मददगार रहा है जिन्होंने मानवता पर बहुत जुल्म किए हैं।     
 
वैसे भी चीन अगर कोई भाषा समझता है तो यह भाषा ‍अपने निजी हित, ऐसी राजनीतिक या नैतिक विचारधारा को प्रश्रय देता है जो कि उसके व्यावहारिक लाभों की हो। इसलिए चीनी नेताओं का जोर दक्षिण चीन महासागर में अपने वर्चस्व पर था तो अमेरिका को भरोसा है कि दक्षिण चीन महासागर में चीनी घुसपैठ को रोकने में भारत मदद करे तो रूसी समर्थन को पाने के लिए चीनी-रूसी भाई-भाई का नजारा था। चीन को यह बात अच्छी तरह पता है कि समुद्र पर उसके कब्जे को रोकने के लिए ताइवान, फिलीपींस, वियतनाम, भारत और इन सबके पीछे अमेरिकी कोशिशें होंगी।
 
इस संदर्भ में चीन- अमेरिका के प्रमुखों की वार्ता पर सभी की नजर थी। दूसरी ओर, रूस ने सीरिया, तुर्की और जापान के साथ संबंधों को बेहतर बनाने के लिए पहल की। शी जिनपिंग और ओबामा के बीच हुई वार्ता का जो रिकार्ड व्हाइट हाउस ने दिया वह किसी फैक्ट शीट से ज्यादा नहीं है जबकि शिन्हुआ की रिपोर्ट में चीन ने अपना पक्ष सधे हुए शब्दों में रखते हुए अमेरिका को रचनात्मक रुख अपनाने की सलाह दे डाली। चीन ने ओबामा से दक्षिण कोरिया में थाड मिसाइलें तैनात करने, ताइवान की 'स्वतंत्रता संबंधी गतिविधियों' को सीमित करने और 'तिब्बत की स्वतंत्रता' का समर्थन न करने को कहा।
 
शी के बाद चीन के उपराष्ट्रपति ने दुनिया के नेताओं को बताया कि ताइवान और तिब्बत, चीन के विकास के रास्ते के अहम पड़ाव हैं। लेकिन अपने सरकारी बयानों ने अमेरिका ने अपनी मंशा को शब्द नहीं दिए और इशारा किया कि सेनकाकू द्वीप समूहों पर चीनी सामरिक तैयारियों को लेकर वह जापान का समर्थन करता है। इस क्षेत्र में चीन की नौसैनिक शक्ति बढ़ रही है और अमेरिका के कड़े रुख के बावजूद इसकी ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) इसके 11 अन्य सहयोगी देशों के साथ आगे बढ़ती नजर नहीं आ रही है। इस कारण से भारत, अमेरिका के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण साझेदार के तौर पर उभरा है।   
 
जबकि भारतीय प्रधानमंत्री मोदी और शी जिनपिंग के बीच की बैठक में चीन को कहा गया कि जब तक आप हमारी मुख्य चिंताओं- एनएसजी में प्रवेश और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को- लेकर सकारात्मक नहीं होते हैं। भारत को संयुक्त राष्ट्र में मसूद अजहर के मामले में चीनी रुख भी बर्दाश्त से बाहर लगा है। दोनों की बातचीत के बाद भारतीय बयानों में दक्षिण चीन महासागर को लेकर तल्‍खी कम हो गई है जबकि चीनी-रूसी संबंधों में सहयोग की नई-नई संभावनाएं सामने आ रही हैं। वैसे भी पुतिन ने दक्षिण चीन महासागर के मामले में चीन को अपना सहयोग दिया है इसलिए अमेरिका इस मुद्दे पर भारत का समर्थन पाने के लिए बेचैन है।
 
इस दौरान अमेरिका के सामने सबसे घटना राष्ट्रपति का चुनाव है और इस मामले को लेकर जो कुछ भी किया जाना है, वह नया अमेरिकी राष्ट्रपति ही करेगा। यह तो जगजाहिर है कि इस मामले में आठ वर्षों तक सत्ता में रहने के बावजूद ओबामा, चीन पर लगाम लगाने में कामयाब नहीं हो पाए है। लेकिन इस बार के जी-20 का सबसे अहम बदलाव यह रहा है कि यह आर्थिक मंच से बदलकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति के आयोजन में बदल गया है।
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