सुशील शर्मा
देश के लिए वीरता पूर्वक समर्पित होने वाले देशभक्त भगतसिंह द्वारा अपने पिता को एक पत्र लिखा गया था, जिसमें उन्होंने अपनी देशभक्ति और दादाजी का जिक्र किया था। पढ़िए और क्या लिखा था उस पत्र में -
पूज्य पिता जी,
नमस्ते!
मेरी जिंदगी भारत की आजादी के महान संकल्प के लिए दान कर दी गई है। इसलिए मेरी जिंदगी में आराम और सांसारिक सुखों का कोई आकर्षण नहीं है। आपको याद होगा कि जब मैं बहुत छोटा था, तो बापू जी (दादाजी) ने मेरे जनेऊ संस्कार के समय ऐलान किया था कि मुझे वतन की सेवा के लिए वक़्फ़ (दान) कर दिया गया है। लिहाजा मैं उस समय की उनकी प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूं। उम्मीद है आप मुझे माफ कर देंगे।
आपका ताबेदार
भगतसिंह
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भगत सिंह एक प्रखर देशभक्त और अपने सिद्धांतों से किसी भी कीमत पर समझौता न करने वाले बलिदानी थे। भगतसिंह के जो प्रत्यक्ष योगदान हैं उसके कारण भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष में उनका कद इतना उच्च है, कि उन पर अन्य कोई संदिग्ध विचार धारा थोपना कतई आवश्यक नहीं है। भगतसिंह ने देश की आजादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुकाबला किया, वह आज के युवकों के लिए एक बहुत बड़ा आदर्श है।
भगत सिंह (संधू जाट) का जन्म 1907 में किशन सिंह और विद्यावती के घर चाल नंबर 105, जीबी, बंगा ग्राम, जरंवाला तहसील, ल्याल्लापुर जिला, पंजाब में हुआ, जो ब्रिटिश कालीन भारत का ही एक प्रांत था। उनके पूर्वजों का ग्राम खटकर कलां था, जो नवाशहर, पंजाब (अभी इसका नाम बदलकर शहीद भगत सिंह नगर रखा गया है) से कुछ ही दूरी पर था।
भगत सिंह शहादत के समय एक 23 वर्ष के युवक ही थे। उस काल में 1920 के दशक में भारत के ऊपर दो प्रकार की विपत्तियां थी। 1921 में परवान चढ़े खिलाफत के मुद्दे को कमाल पाशा द्वारा समाप्त किए जाने पर कांग्रेस एवं मुस्लिम संगठनों की हिंदू-मुस्लिम एकता ताश के पत्तों के समान उड़ गई और सम्पूर्ण भारत में दंगों का जोर आरंभ हो गया। हिन्दू मुस्लिम के इस संघर्ष को भगत सिंह द्वारा आजादी की लड़ाई में सबसे बड़ी अड़चन के रूप में महसूस किया गया, जबकि इन दंगों के पीछे अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति थी। इस विचार मंथन का परिणाम यह निकला कि भगत सिंह को "धर्म" नामक शब्द से घृणा हो गई। उन्होंने सोचा कि दंगों का मुख्य कारण धर्म है।उनकी इस मान्यता को दिशा देने में माक्र्सवादी साहित्य का भी योगदान था, जिसका उस काल में वे अध्ययन कर रहे थे।
दरअसल धर्म दंगों का कारण ही नहीं था, दंगों का कारण मत-मतांतर की संकीर्ण सोच थी। धर्म पुरुषार्थ रूपी श्रेष्ठ कार्य करने का नाम है, जो सार्वभौमिक एवं सर्वकालिक है। जबकि मत या मजहब एक सीमित विचारधारा को मानने के समान हैं, जो न केवल अल्पकालिक हैं अपितु पूर्वाग्रह से युक्त भी हैं। उसमें उसके प्रवर्तक का संदेश अंतिम सत्य होता है। माक्र्सवादी साहित्य की सबसे बड़ी कमजोरी उसका धर्म और मजहब शब्द में अंतर न कर पाना है।
1919 में, जब वे केवल 12 साल के थे, सिंह जलियांवाला बाग में हजारो निःशस्त्र लोगों को मारा गया। भगत सिंह ने कभी महात्मा गांधी के अहिंसा के तत्व को नहीं अपनाया, उनका यही मानना था की स्वतंत्रता पाने के लिए अहिंसा पर्याप्त नहीं है। वे हमेशा से गांधीजी के अहिंसा के अभियान के पक्ष धर नहीं थे। उनके अनुसार 1922 के चौरी चौरा कांड में मारे गए ग्रामीण लोगों के पीछे का कारण अहिंसक होना ही था। भगत सिंह ने कुछ युवाओं के साथ मिलकर क्रांतिकारी अभियान की शुरुवात की, जिसका मुख्य उद्देश्य हिंसक रूप से ब्रिटिश राज को खत्म करना था।
1923 में, सिंह लाहौर के नेशनल कॉलेज में शामिल हुए। 1923 में, पंजाब साहित्य सम्मलेन द्वारा आयोजित निबंध स्पर्धा जीती, जिसमें उन्होंने पंजाब की समस्याओं के बारे में लिखा था। वे इटली के अभियान से अत्यधिक प्रेरित हुए थे और इसी को देखते हुए उन्होंने मार्च 1926 में नौजवान भारत सभा में भारतीय राष्ट्रिय युवा संस्था की स्थापना की बाद में वे हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन में शामिल हुए , जिसमे कई बहादुर नेता थे जैसे चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल और शहीद अश्फल्लाह खान।
भगत सिंह समाजवाद के पक्षधर थे उन्होंने 1932 के अपने एक लेख में लिख है "हम समाजवादी क्रांति चाहते हैं, जिसके लिए बुनियादी जरूरत राजनीतिक क्रांति की है। यही है जो हम चाहते हैं। राजनीतिक क्रांति का अर्थ राजसत्ता (यानी मोटे तौर पर ताकत) का अंग्रेजी हाथों में से भारतीय हाथों में आना है और वह भी उन भारतीयों के हाथों में, जिनका अंतिम लक्ष्य हमारे लक्ष्य से मिलता हो। और स्पष्टता से कहें तो राजसत्ता का सामान्य जनता की कोशिश से क्रांतिकारी पार्टी के हाथों में आना। इसके बाद पूरी संजीदगी से पूरे समाज को समाजवादी दिशा में ले जाने के लिए जुट जाना होगा। यदि क्रान्ति से आपका यह अर्थ नहीं है तो महाशय, मेहरबानी करें और इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाने बंद कर दें।"
भगत सिंह समझ रहे थे कि अंग्रेजी साम्राज्य लड़खड़ा रहा है। उन्होंने स्थिति को भांपते हुए सभी भारत वासियों से आवाहन करते हुए कहा था "भारत की स्वतंत्रता अब शायद दूर का स्वप्न नहीं रहा। घटनाएं बड़ी तेजी से घट रही हैं इसलिए स्वतंत्रता अब हमारी आशाओं से भी जल्द ही एक सच्चाई बन जाएगी। ब्रिटिश साम्राज्य बुरी तरह लड़खड़ाया हुआ है। जर्मनी को मुंह की खानी पड़ रही है, फ्रांस थर-थर कांप रहा है और अमेरिका हिला हुआ है और इन सबकी कठिनाइयां हमारे लिए सुनहरा अवसर हैं। प्रत्येक चीज उस महान भविष्यवाणी की ओर संकेत कर रही है, जिसके अनुसार समाज का पूंजीवादी ढांचा नष्ट होना अटल है।"
भगत सिंह के अनुसार साम्राज्यवादियों को गद्दी से उतारने के लिए भारत का एकमात्र हथियार श्रमिक क्रांति है। उन्होंने क्रांति का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है "जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना ही वास्तव क्रांति है, बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सड़ांध को ही आगे बढ़ाते हैं। किसी भी हद तक लोगों से या उनके उद्देश्यों से जतायी हमदर्दी जनता से वास्तविकता नहीं छिपा सकती, लोग छल को पहचानते हैं। भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते।"
भगत सिंह को भारत के युवाओं से बहुत आशाएं थीं उन्होंने अपने एक लेख जो की 16 मई 1925 में मतवाला में युवक शीर्षक से छपा था लिखा है - अगर रक्त की भेंट चाहिए तो सिवा युवक के कौन देगा? अगर तुम बलिदान चाहते हो तो तुम्हे युवक की ओर देखना होगा। प्रत्येक जाति के भाग्य विधाता युवक ही होते हैं। सच्चा देशभक्त युवक बिना झिझक मौत का आलिंगन करता है, संगीनों के सामने छाती खोलकर डट जाता है, तोप के मुंह पर बैठकर मुस्कुराता है, बेड़ियों की झनकार पर राष्ट्रीय गान गाता है और फांसी के तख्ते पर हंसते हंसते चढ़ जाता है।
अमेरिकी युवा पैट्रिक हेनरी ने कहा था, जेल की दीवारों के बाहर जिंदगी बड़ी महंगी है। पर, जेल की काल कोठरियों की जिंदगी और भी महंगी है क्योंकि वहां यह स्वतंत्रता संग्राम के मू्ल्य रूप में चुकाई जाती है। ऐ भारतीय युवक ! तू क्यों गफलत की नींद में पड़ा बेखबर सो रहा है। उठ! अब अधिक मत सो। सोना हो तो अनंत निद्रा की गोद में जाकर सो रहा। धिक्कार है तेरी निर्जीवता पर। तेरे पूर्वज भी नतमस्तक हैं इस नपुंसत्व पर। यदि अब भी तेरे किसी अंग में कुछ हया बाकी हो तो उठकर माता के दूध की लाज रख, उसके उद्धार का बीड़ा उठा, उसके आंसुओं की एक एक बूंद की सौगंध ले, उसका बेड़ा पार कर और मुक्त कंठ से बोल- वंदे मातरम!"
काकोरी केस के सेनानियों को भगत सिंह ने सलामी देते हुए एक लेख लिखा था जो जनवरी 1928 में किरती में छपा था जिसमे उन के मन की पीड़ा स्पष्ट झलकती है उन्होंने लिख है - हम लोग आह भरकर समझ लेते हैं कि हमारा फर्ज पूरा हो गया। हमें आग नहीं लगती। हम तड़प नहीं उठते। हम इतने मुर्दा हो गए हैं। आज वे भूख हड़ताल कर रहे हैं। तड़प रहे हैं। हम चुपचाप तमाशा देख रहे हैं। ईश्वर उन्हें बल और शक्ति दे कि वे वीरता से अपने दिन पूरे करें और उन वीरों के बलिदान रंग लाएं। "
इतिहास साक्षी है कि युवाओं ने सदैव समय की पुकार को सुना है। चाहे क्रान्ति आध्यात्मिक, सांस्कृतिक रही हो अथवा फिर राजनैतिक एवं सामाजिक। भगत सिंह ने जो ज्योति भारतीय युवाओं के मन मस्तिष्क में जलाई है वो अक्षुण्य है। ऐतिहासिक परिवर्तन के इस दौर में भगत सिंह ने समग्र क्रांति के लिए युवाओं का आह्वान किया है। आज जहां एकतरफा असुरता अपना पूरा जोर लगाकर सर्वतोन्मुखी विध्वंस का दृश्य प्रस्तुत करने पर तुली है, तो वहीं सृजन की असीम सम्भावनाएं भी अपनी दैवी प्रयास में सक्रिय हैं। इस बेला में युवा हृदय से यह आशा की जा रही है कि वे अपनी मूर्छा, जड़ता, संकीर्ण स्वार्थ एवं अहमन्यता को त्यागकर भगत सिंह के अभूतपूर्व साहसिक अदम्य व्यक्तित्व का अनुगमन कर स्वयं एवं अपने समाज, राष्ट्र व विश्व के उज्ज्वल भविष्य को साकार करने में अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाएं । और अंत में भगत सिंह के कुछ शेर मातृभूमि को समर्पित हैं।
उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है?
हमें यह शौक है देखें, सितम की इंतहा क्या है?
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख का क्या ग़िला करें।
सारा जहां अदू सही, आओ मुक़ाबला करें।।