रविवार, 21 अप्रैल 2024
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वेद का पावन मंत्र और अर्थ...

वेद का पावन मंत्र और अर्थ... - Veda Mantras
वेद के मंत्र और अर्थ... 
 

 


 
आप देखेंगे कि जिसे भारतीय चिंतन कहा जाता है, उसका प्रारंभ वेदों के समय में ही हो गया था। सबसे पहले हम 'वेद में परमात्मा' विषय से वेदों में वर्णित परमात्मा के विषय में कुछ मंत्र ले रहे हैं। इन मंत्रों के द्वारा आप परमात्मा के उस स्वरूप से परिचित होंगे, जो सभी धर्मों में वर्णित परमात्मा के स्वरूप से भिन्न है। 
 
पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं वेद के कुछ मंत्र एवं उनके अर्थ, संक्षिप्त व्याख्या और उनके शब्दार्थ। 

पुरुष एव इदं सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यम्।
उतामृतत्वस्य ईशानो यद् अन्नेन अतिरोहति।। पुरुष, ऋक्. 10.90.2

 
इस सृष्टि में जो कुछ भी इस समय विद्यमान है, जो अब तक हो चुका है और आगे जो भविष्य में होगा, वह सब पुरुष (परमात्मा) ही है। वह पुरुष उस अमरत्व का भी स्वामी है, जो इस दृश्यमान भौतिक जगत के ऊपर है।
 
आज का विज्ञान भी मानता है कि इस दृश्यमान जगत के अंदर की सच्चाई इसके ऊपर से दिखने वाले रूप से सर्वथा भिन्न है। जो कुछ हमें दिख रहा है वह केवल अन्नमय जगत है अर्थात जगत का वह रूप है जिसका उपभोग किया जा सकता है, क्योंकि हम संसार के उपभोग में व्यस्त रहते हैं इसलिए हमें जगत का यह दृश्यमान रूप स्वभावत: सच्चा प्रतीत होता है। पर जब हम गहराई में जाते हैं तो ज्ञात होता है कि यह संपूर्ण संसार मूल रूप में चैतन्यस्वरूप परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है। 
 
सृष्टि के इस परम चैतन्य को भारतीय परंपरा में मुख्यतया ब्रह्म और पुरुष इन दो नामों से पुकारा गया है। वेदांत में ब्रह्म शब्द प्रधान है (सर्वं खलु इदं ब्रह्म- इस संसार में जो कुछ भी है वह सब ब्रह्म ही है।) सांख्यदर्शन, जो सामान्यतया भारतीय चिंतन का आधार है, उसी परम चैतन्य को पुरुष नाम देता है। (पुरि शेते इति पुरुष:- जो शरीररूपी नगर में शयन कर रहा है, वह पुरुष है।)
 
मनुष्य के जीवन के मूल तत्व उसके शरीर, मन और विचार आदि नहीं हैं अपितु उसके अंदर उठने वाली विभिन्न प्रकार की अनुभूतियां हैं। सुख, दु:ख, चिंता, भय, आशा, निराशा आदि अनुभूतियां प्रत्येक क्षण मनुष्य के जीवन को नियंत्रित करती हैं। हम प्रयत्न के द्वारा कोई अनुभूति अपने अंदर नहीं जगा सकते। न हम जान-बूझकर क्रोध कर सकते हैं और न प्यार। हम केवल उन अनुभूतियों को जान सकते हैं, जो हमारे अंदर उठ चुकी हैं और फिर विवश होकर हम उन अनुभूतियों के अनुसार कार्य करते हैं।
 
हमारी सभी अनुभूतियां हमसे परे किसी स्रोत से आती हैं, पर मन के सदा अशांत रहने के कारण हम अपनी अनुभूतियों के स्रोत को जान नहीं पाते। यदि हम ध्यान द्वारा अपने मन को सर्वथा शांत कर सकें तो हम देखेंगे कि हमारी अनुभूतियों और विचारों में एक ही अरूप चैतन्य अभिव्यक्त हो रहा है। वही चैतन्य पुरुष हमारा आंतरिक जीवन भी है और हमारे बाहर का जगत भी।
 
इदं सर्वं- (सृष्टि में) यह जो कुछ भी इस समय विद्यमान है, यद् भूतं- जो कुछ पहले हो चुका है, यत् च भव्यम्- और जो कुछ भविष्य में होगा, वह सब, पुरुष एव- पुरुष ही है। उत- और, वह पुरुष, यद् अन्नेन अतिरोहति- जो इस अन्नमय अर्थात भौतिक जगत के ऊपर है उस, अमृतत्वस्य- अमरत्व का, ईशान:- स्वामी है।