'कानून सर्वोपरि होता है' यह बात भारतीय परिप्रेक्ष्य में जब-तब सिद्ध होती रही है। जब भी लगता है कि देश में सत्ता की निरकुंशता बढ़ती जा रही है, तब-तब कोई न कोई करिश्मा हो जाता है और देश की गिरती साख एक बार फिर उसी स्थान पर लौट आती है, जिसके लिए सारी दुनिया भारत को सम्मान की दृष्टि से देखती है। मामला चाहे इंदिरा गाँधी को अपदस्थ करने का हो, नरसिंहराव को कठघरे में खड़े करने का या फिर लाभ के बिल का मामला हो या भ्रष्टाचार के पर्दाफाश होने से ही जुड़ा क्यों न हो, तीन अक्षरों का छोटा-सा शब्द 'कानून' हमेशा भ्रष्टाचार जैसे पेचीदे और लहरदार शब्द पर भारी रहा है। उसी क्षण महसूस होने लगता है कि कानून की आँखों पर पट्टी नहीं बंधी है।
यदि भ्रष्टाचार और निरंकुशता अथवा अपराधीकरण की तुलना हमारी न्याय व्यवस्था और कानून से की जाए तो जहाँ देश में भ्रष्टाचार और अपराधीकरण के हजारों-हजार प्रसंग मिलेंगे वहीं सच्चे न्याय और साहसिक फैसलों के गिने-चुने प्रसंग ही दिखाई देंगे। लेकिन ये गिने-चुने प्रसंग इतने अद्भुत और विलक्षण हैं कि इन्होंने देश के हालात को बदलने में निर्णायक भूमिका निभाई है और रसातल की ओर अभिमुख देश को पतन के पथ से विमुख कर प्रशस्ति की राह पर बढ़ने के लिए प्रेरित किया है, गतिवान बनाया है।
यदि हमारे न्यायिक इतिहास के पन्नो को टटोल कर देखा जाए तो गुजरे बरसों में हमारा कानून कुछ ऐसी घटनाओं का साक्षी रहा है जिसने समूचे विश्व को आँखें फाड़-फाड़कर देखने और मस्तिष्क पर जोर देकर सोचने को मजबूर किया है कि भारत में यह क्या हो रहा है? भ्रष्टाचार और अपराधीकरण पर पहरेदारी करने वाले तहलका और स्टिंग ऑपरेशनों ने कुछ प्रभावशाली व्यक्तियों के चेहरे उजागर किए हैं और साबित किया है कि हमारा आम नागरिक और पत्रकार अभी सोया नहीं है।
होश उड़ाने वाले कारनामे दिखाने वालों में पुरुष ही नहीं महिलाएँ भी पीछे नहीं रही हैं। याद कीजिए जब एक नाजुक-सी पत्रकार ने हर्षद मेहता
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प्रकरण को उजागर किया, तो दुनिया दंग रह गई थी और शीतलपेयों में कीटनाशकों की मात्रा का मामला भी एक युवती ने ही उठाया था। डायरी से जुड़ा हवाला कांड हो या बोफोर्स या फिर तेलगी कांड और तेल सौदों का घपला ही क्यों न हो, भ्रष्ट राजनीतिक दलों और राजनेताओं से ऊपर कानून की जीत ने देश का मान बढ़ाया है। इससे एक बार फिर साबित हो गया है कि भले ही हमारे देश में अव्यवस्था का बोलबाला है, लेकिन उसे दुरुस्त करने के लिए बनाया गया कानून बिकाऊ या दब्बू नहीं है।
सारी दुनिया जब-जब भारत को टूटता या झुकता देखने के सपने सँजोने लगती है, तब-तब कोई शख्स अपने महत्वपूर्ण फैसले से उनके सपनों को ताश के पत्तों की तरह बिखेर कर यह धारणा पुख्ता कर देता है कि पाँच हजार साल पुरानी सभ्यता वाला यह देश वैसा नहीं है, जैसा दिखाई देता है। आज दुनिया भर को भारत का स्वरूप बिगड़ता दिखाई दे, लेकिन हकीकत तो यह है कि हम एक सुधारवादी युग की ओर अग्रसर होते जा रहे हैं। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि देश सुधर रहा है।