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गीता सार- अनुभूति और ऊर्जा - 5

गीता सार- अनुभूति और ऊर्जा - 5 - srimdbgdgeeta
हम अपनी सभी अनुभूतियां अपनी व्यक्तिगत चेतना (चित्त) में अनुभव करते हैं। वास्तव में जिसे हम अपना चित्त कहते हैं, वह अनुभूतियों का ही एक सतत सिलसिला है। हमारी सभी अनुभूतियां हमारी व्यक्तिगत चेतना का ही संशोधित रूप हैं। इस अनुभूति-प्रवाह को ही आधुनिक साहित्य में 'चेतना का प्रवाह' (stream of consciousness) भी कहा जाता है। 

और क्योंकि हमने अपनी व्यक्तिगत चेतना का निर्माण नहीं किया है इसलिए यह सोचना तर्कसंगत होगा कि हमारी व्यक्तिगत चेतना में उठने वाली अनुभूतियों का स्रोत हमसे ऊपर की चेतना में है। वह पराचेतना ही सभी अनुभूतियों में और इस कारण सभी प्राणियों के सभी कार्यों में अभिव्यक्त हो रही है। साथ ही सभी कामों के लिए, बोलने के लिए और चिंतन के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। जब तक कि उस कार्य को करने के लिए ऊर्जा उपलब्ध न हो, तब तक चेतना न तो अपने आपको अभिव्यक्त कर सकती है और न कोई वांछित कार्य कर सकती है। 
 
जहां भी कोई चेतन कार्य होता है, वह चेतना द्वारा निर्देशित ऊर्जा द्वारा ही किया जाता है। इस प्रकार हमारा सारा जीवन ही केवल इन दो तत्वों- चैतन्य और ऊर्जा- का खेल है। प्राय: सर्वमान्य भारतीय परंपरा में ये दो तत्व सदा ही संयुक्त रहते हैं। इनमें चैतन्य का तत्व प्रमुख है। 
 
चैतन्य तत्व को नर और ऊर्जा तत्व को नारी के रूप में देखा जाता है। पुरुष तत्व निष्क्रिय माना गया है। ऊर्जा तत्व सक्रिय है, जो पुरुष तत्व की ओर आकर्षित होकर सदा उससे मिलने की तलाश में रहता है। भारतीय परंपरा में इन दो तत्वों को पुरुष और प्रकृति, शिव और शक्ति, विष्णु और लक्ष्मी, राम और सीता तथा कृष्ण और राधा आदि अनेक युगलों के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया है।
 
हमारी वर्तमान वैज्ञानिक दृष्टि वाली बुद्धि को यह बात अजीब लगेगी। पर यह तो सच है कि हमारे जीवन में हमारे कार्यों, वाणी और चिंतन के माध्यम से जो कुछ भी हो रहा है, वह हमारे अंदर विद्यमान चेतना द्वारा निर्देशित है और ऊर्जा द्वारा क्रियान्वित किया जा रहा है।
 
अपनी अनुभूतियों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है इसलिए अपने विचारों और कार्यों पर भी हमारा बस नहीं है। मनुष्य अपने कर्मों का स्वतंत्र कर्ता है, यह धारणा अवश्य ही मिथ्या है। इसका जवाब कोई यह कहकर दे सकता है कि लेकिन मैं तो अपने कर्म करने में स्वतंत्र हूं। उदाहरण के लिए, मैं चाहूं तो इस गिलास का पानी पिऊं या न पिऊं? या फिर यह केला खाऊं या न खाऊं? मैं चाहूं तो अपना दायां हाथ उठा सकता हूं या फिर बायां। 
 
अवश्य ही कोई भी ऐसा कर सकता है, पर प्रश्न यह है- पानी पीने या केला खाने की इच्छा कहां से आती है? क्या हम अपने संकल्प द्वारा अपने अंदर प्यास या भूख की अनुभूति जगा सकते हैं? अवश्य ही हम अपनी अनुभूतियों के अनुसार काम कर सकते हैं और संकल्प करने पर अपना दायां या बायां हाथ उठा सकते हैं। 
 
पर क्या हम वैसा संकल्प उत्पन्न करने के लिए एक और संकल्प करते हैं? या फिर जिसे हम अपना संकल्प कहते हैं, वह केवल किसी काम को करने की इच्छा है, जो किसी अज्ञात स्रोत से हमारे अंदर उत्पन्न हो गई है।