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पूर्वज-पूजा का विशिष्ट रूप : श्राद्ध

पूर्वज-पूजा का विशिष्ट रूप : श्राद्ध | shraddha karma
-डॉ. आर.सी. ओझा 
शास्त्रों में अश्विन मास कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक की सब तिथियाँ श्राद्ध पक्ष में शुमार की गई हैं। कभी-कभी किसी एक तिथि का क्षय होने से दो श्राद्ध एक दिन भी आ जाते हैं। अनादिकाल में अश्विन मास के श्राद्ध पक्ष में भाद्रपद मास की पूर्णिमा का श्राद्ध शामिल नहीं था। 
ग्रंथों में अश्विन मास के कृष्ण पक्ष को ही श्राद्ध पक्ष माना गया है जो विशेष रूप से पितरों को सम्मानित करने के लिए निर्धारित किया गया है। जहाँ तक अश्विन मास के शुक्ल पक्ष का सवाल है इसे देवपक्ष माना गया है। श्राद्ध पक्ष में भाद्रपद पूर्णिमा का श्राद्ध जोड़ना अपेक्षाकृत आधुनिक कहा जा सकता है। 
 
चूँकि माह के एक पक्ष में अमावस्या व दूसरे पक्ष में पूर्णिमा आती है, इसलिए अश्विन मास कृष्ण पक्ष के पहले की भाद्रपद की पूर्णिमा को श्राद्ध पक्ष में जोड़ा गया है। इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि जो पूर्वज पूर्णिमा को दिवंगत हुए हैं, उनकी तिथि की कृष्ण पक्ष वाले श्राद्धपक्ष में कोई व्यवस्था नहीं है। वैसे सर्वपितृ अमावस्या में सभी पितरों के श्राद्ध की व्यवस्था है। 
 
वाराहपुराण में पितरों की यशोगाथा का उल्लेख मिलता है, जिसमें उनके स्मरण के महत्व और माहात्म्य को रेखांकित किया गया है। श्राद्ध में श्रद्धा का संपूर्ण अंश जुड़ा हुआ है। वस्तुतः श्राद्ध उस कर्मकांड को कहते हैं जो श्रद्धा से किया जाता है। पितरों तथा मृत व्यक्तियों केलिए किया गया संपूर्ण कार्य श्राद्ध की श्रेणी में आता है। श्राद्ध पितरों की तृप्ति के लिए शास्त्रीय विधि से किया गया एक धार्मिक कृत्य है। शास्त्रों में मनुष्यों के लिए तीन ऋण बताए गए हैं जो देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण कहलाते हैं। 
 
ऋषि ऋण ही गुरु ऋण का पर्याय है। परंतु श्राद्ध का संबंध पितृ ऋण से है। कर्मकांड मार्गप्रदीप में उल्लेखित है कि पितृ ऋण और पितृव्रत पूर्ण करने के लिए पूरे श्राद्ध पक्ष में पितरों का तर्पण और विशेष तिथि को श्राद्ध करने से पितृ ऋण शांत हो जाता है। पूरे पक्ष मेंज्ञात-अज्ञात सभी पितरों का स्मरण किया जाता है। 
 
पूर्वजों की स्मृति को अक्षुण्ण रखने का यह एक धार्मिक साधन है।पूर्वजों का स्मरण और उनकी पूजा, जिसे श्राद्ध कहते हैं, वैदिक युग से ही प्रचलन में है। वेद की अनेक ऋचाओं में देवी-देवताओं के आह्वान के साथ पितरों की भी प्रशस्ति गाई गई है। श्राद्धों को गतिशील करने में निमि ऋषि का योगदान उल्लेखनीय माना गया है। निमि ऋषि अत्रिकुल में उत्पन्ना एक ऋषि थे। 
 
वे दत्तात्रेय के पुत्र थे और उन्होंने पितरों का श्राद्ध करने के पक्ष में अनेक कारणों पर प्रकाश डाला था। निमि के अनुसार श्राद्ध पक्ष में पितरों से प्रार्थना की जानी चाहिए कि वे अपने वंशजों के करीब आएँ, अदृश्य आत्मिक स्वरूप होते हुए भी पितर आसन ग्रहण करें, हमारी पूजा स्वीकार करें और हमारे अपराधों को क्षमा करें। पके हुए चावलों का या आटे का गोला श्राद्ध में पितरों को अर्पित किया जाता है। 
 
इसमें तीन पीढ़ियों को पिंडदान किया जाता है : पितृ, पितामह और प्रपितामह। ऐसी मान्यता है कि मंत्र शक्ति से पितरों तक वंशजों की यह प्रार्थना पहुँच जाती है। मंत्रों का उच्चारण गोत्र उच्चारण के साथ करने से पितृ प्रार्थना स्वीकार करते हैं। श्रवण नक्षत्र में पितरों काश्राद्ध करने वाले मनुष्य का गृहकलह तुरंत नष्ट हो जाता है। 
 
अश्विन मास कृष्ण पक्ष के श्राद्ध पक्ष के अतिरिक्त चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के सात दिनों तक सात पितरों की पूजा करना चाहिए, जिससे घर में व हर मंगल कार्य में किसी तरह का व्यवधान नहीं आता।भविष्यपुराण में मुनि विश्वामृत का हवाला देकर बारह प्रकार के श्राद्धों का वर्णन किया गया है। विष्णु पुराण और गरुड़ पुराण में भी श्राद्ध संबंधी संदर्भ है। पहला, नित्य श्राद्ध है जो प्रतिदिन किया जाता है। 
 
प्रतिदिन की क्रिया को ही 'नित्य' कहते हैं। दूसरा नैमित्तिक श्राद्ध है जो एक पितृ के उद्देश्य से किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। तीसरा काम्य श्राद्ध है जो किसी कामना या सिद्धि की प्राप्ति के लिए किया जाता है। चौथा पार्वण श्राद्ध है जो अमावस्या के विधानके अनुरूप किया जाता है। पाँचवीं तरह का श्राद्ध वृद्धि श्राद्ध कहलाता है। इसमें वृद्धि की कामना रहती है जैसे संतान प्राप्ति या परिवार में विवाह आदि। 
 
छठा श्राद्ध सपिंडन कहलाता है। इसमें प्रेत व पितरों के मिलन की इच्छा रहती है। ऐसी भी भावना रहती है कि प्रेत, पितरों की आत्माओं के साथ सहयोग का रुख रखें। सात से बारहवें प्रकार के श्राद्ध की प्रक्रिया सामान्य श्राद्ध जैसी ही होती है। इसलिए इनका अलग से नामकरण गोष्ठी,प्रेत श्राद्ध, कर्मांग, दैविक, यात्रार्थ और पुष्टयर्थ किया गया है। ऐसी भी मान्यता है कि पितरों के निमित्त दो यज्ञ किए जाते हैं जो पिंडपितृयज्ञ तथा श्राद्ध कहलाते हैं। 
 
इसी संदर्भ में पितृव्रत भी किया जाता है जिसमें एक वर्ष तक प्रति अमावस्या को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। वर्ष के पूर्ण होने पर श्राद्ध कर वस्त्र, जलपूर्ण कलश और श्रद्धा हो तो गौ दान किया जाता है। इस प्रक्रिया से अनेक पीढ़ियाँ क्लेशमुक्त होकर तर जाती हैं। फिर पितृ तृप्त होने के बाद कामना करते हैं कि उनके कुल में ऐसे पुरुष की उत्पत्ति हो जो सदाचारी, दयावान, धर्म में आस्था रखने वाला और लोकोपकारी हो। 
 
शास्त्रों के नियमों के अनुसार श्राद्ध का अधिकार केवल पुत्र को है। हो सकता है कि पुत्र की कामना के पीछे यह परंपरा भी एक वजह रही हो। पुत्र के अभाव में विधवा स्त्री को अपने पति का श्राद्ध करने का अधिकार दिया गया है। पुत्री के पुत्र यानी नाती को भी श्राद्ध करने के योग्य माना गया है। व्यावहारिक कठिनाइयों को देखते हुए गोत्र भाई या किसी भी सगोत्री को श्राद्ध का अधिकार दिया गया है।श्राद्ध की प्रथा पूर्वज-पूजा का ही एक विशिष्ट रूप है और दिवंगत प्रियजनों की आत्मा की शांति हेतु एक तर्पण है।