उत्साह और उम्र का भला क्या संबंध? उत्साह पैदा होते ही उम्र को कहीं पीछे धकेल देता है। उम्र कितनी ही हो जाए, बेटियों का राखी पर पीहर जाने का उत्साह सदा एक-सा रहता है। इस बार भैया के जुड़वां बेटे-बेटी की पहली राखी थी, तो उत्साह के साथ उपहार भी दुगुने हो गए। सामान ज्यादा होता देख टैक्सी बुलवा ली। वरना उज्जैन से इंदौर का सफर तो बस से भी आराम से हो जाता।
मैंने गाड़ी में बैठते ही घर से रवाना होने की सूचना भाभी को अति उत्साह से दी थी, तभी ड्राइवर ने मुझसे पूछ लिया - आप भाई के घर जा रही हैं न ? मैंने बिना एक क्षण देर किए उत्तर दिया, “हां, राखी के एक दिन पहले इतना सामान लेकर और कहां जाऊंगी ? इस नौकरी के चक्कर में तो हम कहीं आने-जाने से भी मोहताज हो जाते हैं। पीहर जाने के लिए भी त्यौहार का इंतजार करना पड़ता है। तुम्हारी बहनें भी तो आती होंगी तुम्हारे घर ?
मेरे प्रश्न के उत्तर में उसने गाड़ी की गति कुछ धीमी कर दी और निःश्वास लेकर बोला, एक ही बहन है मेरी। राखी पर आती है। पर मैं उससे राखी नहीं बंधवाता। वह पटिये पर राखी रखकर चली जाती है।
“क्यों ? ऐसा क्यों करते हो तुम ? बहन इतने प्यार से राखी लाए और भाई न बंधवाए, यह तो गलत है। तुम राखी क्यों नहीं बंधवाते ? कोई तो कारण होगा ?
मैंने किसी पुलिसवाले की तरह प्रश्नों की झड़ी लगा दी। उसने गाड़ी की रफ्तार कम ही रखी। फिर बोला, मैं जानता था आप इतने प्रश्न करेंगी। यदि आप मेरी पूरी कहानी सुनेंगी तो उत्तर खुद ब खुद ही मिल जाएंगे।
मैंने मोबाइल को झट से साइलेंट मोड पर करते हुए कहा, “बताओ न, मुझे जानना है तुम्हारी कहानी। पता है, मैं कहानी लिखती भी हूं। हो सकता है किसी दिन तुम्हारी कहानी लिख दूं। हां, ऐसे सुनाना कि इंदौर आने से पहले कहानी पूरी हो जाए। बीरबल की खिचड़ी की तरह नहीं। और अधूरी कहानी सुनना तो मुझे जरा पसंद नहीं।
नहीं मैडम, मेरी कहानी मत लिखना। सबको वही कहानी पसंद आती है जिसका अंत सुखद हो। मेरी कहानी का अंत दुखद है। राखी पर मेरी कलाई सूनी ही रहती है। आप सुनना चाहती हैं तो सुना दूंगा। उसने सुनाने की शर्त रखते हुए कहा।
मेरी सुनने की आतुरता देख उसने अपनी सीट के नीचे की गादी को ठीक किया और सुनाने लगा, “बचपन में मेरी कोई बहन नहीं थी। सात साल का हो गया तब तक अकेला था। दो छोटे भाई हुए पर वे बचे नहीं। मैं स्कूल भी जाने लग गया था। सब लड़कों की बहन थी मेरी नहीं। मुझे बहुत चाह थी बहन की। खासकर राखी पर मुझे बहन की कमी बहुत अखरती। दोस्त कलाइयों पर रंग बिरंगी राखी बांधकर आते। कोई रेशम-मोती की बंधवाता तो कोई चमकीली। अपने सजे-धजे हाथ दिखाकर मुझे चिढ़ाते। तेरी तो बहन ही नहीं है, तुझे कौन राखी बांधेगा। मैं सूनी कलाई को पकड़े चुपचाप खड़ा रहता।
एक बार तो मैं राखी के दिन गुस्से में आकर घर से दूर जंगल की तरफ चला गया। अपनी दाहिनी कलाई पर पत्थर से गोद-गोदकर राखी बना ली। गोल चमड़ी छिलने तक दर्द सहता गया। दर्द सहन नहीं हुआ तो रोते हुए घर आया। मेरी राखी की तड़प और कलाई से निकलता खून देख मां भी रो दी।
ओह ! फिर तो बहुत डांटा होगा मां ने। मैं सामने के कांच में उसके चेहरे के अबोध बच्चे की तरह उठते भावों को देख बोली।
नहीं, डांटा नहीं। कुछ देर मेरे साथ रोई। फिर हल्दी लगाकर पट्टी बांध दी। उस दिन तो कलाई पर बंधी पट्टी भी मुझे राखी की तरह नजर आ रही थी। शाम को मां मुझे मंदिर ले गई। बोली, गजानन गणपति से अपने लिए बहन मांग ले। उन्होंने सुन ली तो अगले साल तेरी कलाई में भी बहन राखी बांधेगी। मैंने रोते हुए गणपतिजी से मन की बात कह दी। अब उसके चेहरे पर बच्चों का सा उत्साह आ गया था।
तो क्या तुम्हारी मुराद पूरी हुई ? मैंने बिना देर किए पूछा।
वह चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट लाकर बोला, हां मैडम। राखी आने से पहले ही मेरे घर बहन आ गई। मैं इतना खुश हुआ कि उसके आने के बाद रोज कैंलेडर देखकर राखी आने के दिन गिनता। और जब राखी आई तो मैं खुद पूरी बीस राखियां खरीदकर लाया। पिताजी ने डांटा भी पर मैं नहीं माना। दोनों हाथों में दस-दस राखियां बंधवाई। सब दोस्तों को बताने गया। उस दिन मैं खुद को राजा से कम नहीं समझ रहा था। कई दिनों तक राखी निकाली ही नहीं। स्कूल में सर ने डांटा, तब कहीं जाकर निकाली। फिर तो हर साल बहुत खुशी से राखी बंधवाता। उसे उपहार भी लाकर देता। बड़ी हुई तो उसकी शादी हो गई। मेरी भी शादी हो गई।
शादी के बाद तो बहन और उत्साह से आने लगी होगी। भाभी के लिए भी चूड़ा राखी लाती होगी ? मैंने कहानी में रस लेते हुए पूछा।
चूड़ा राखी तो नहीं वह हम दोनों के लिए एक सी राखी लाती। पटिये पर बैठाकर पहले मुझे बांधती फिर मेरी पत्नी को। दोनों एक-सी राखी बंधवाकर बहुत खुश होते। पर ज्यादा साल ये सिलसिला नहीं चल पाया। कुछ साल पहले मेरी पत्नी को टीबी हो गई। मैं बहुत घबरा गया। तुरंत इलाज शुरू किया। मैं दिन-रात गाड़ी चलाता। उसकी दवा और खिलाई-पिलाई में कमी नहीं आने दी। पर मेरी बहन की सास ने जाने क्या सिखा दिया। वह देखने आई तो मेरी पत्नी से बात तक नहीं की। मुझसे मिलकर चली गई। शायद उसे डर था, टीबी छूत की बीमारी होती है। कहीं उसे न लग जाए। उसकी आवाज कुछ गंभीर हो गई।
अरे, बात भी नही की भाभी से ? मैंने पूछा।
लंबी सांस लेकर वह बोला, नहीं। उस साल राखी आई तो बहन ने सिर्फ मुझे राखी बांधी। मेरी पत्नी राखी बंधवाने बैठती उससे पहले ही बहन ने पटिया उठा दिया। मुझे गुस्सा आ गया। मैंने अपनी कलाई पर बंधी राखी उतारकर फेंक दी। बहन देखती रही। वह ठहरी भी नहीं, राखी के दिन ही लौट गई। मैं कुछ समझ नहीं पाया पर पत्नी समझ गई। रात को वह अपनी बीमारी को इस व्यवहार की जड़ बताते हुए खूब रोई। देर तक अपनी किस्मत को कोसती रही। उस दिन के बाद से मेरी पत्नी की हालत गिरती गईं। उसे कोई दवा असर ही नहीं करती थी।
ओह!, दिल पर ले लिया होगा उसने इस बात को। मैंने चुभती यादों को मरहम लगाते हुए कहा।
वह चमकती आंखों से आगे की कहानी बताने लगा, पर मेडम उसने नया काम शुरू कर दिया। वह रोज टीबी के अस्पताल में जाती। जिन मरीजों से कोई मिलने नहीं आता उनकी सेवा करती। मैं तो ड्रायवरी के धंधे में घर पर कम ही ठहरता हूं। आज यहां तो कल वहां। उसे मैंने पूरी छूट दे दी। दिन रात मरीजों की सेवा में उसे बहुत आनंद आता। अपने इलाज की चिंता किए बिना वह सबकी मदद करती। अस्पताल वाले भी उसका बहुत गुणगान करते। एक बार तो अखबार में आया था उसके काम के बारे में। फोटो भी छपी थी। सब मुझे बधाई दे रहे थे। उसके कारण मेरा नाम हुआ।
तब तुम्हारी बहन आई ? उसे पता चला कि नहीं अखबार की खबर का ? मेरे इस सवाल पर वह कुछ मुस्कुराया। बोला, बहन के पति उसे लेकर आए थे अस्पताल में। मेरी बहन पत्नी से गले मिली। सबके सामने उसने अपने किए पर माफी मांगी। मेरी पत्नी ने बहन के पैर छुए। देर तक रोती रही।
चलो, देर से सही तुम्हारी बहन को समझ तो आई। बहुत बड़ी बात है गलती मानकर माफी मांग लेना। और तुम्हारी पत्नी ने भी माफ कर दिया उसे।
हां मैडम, पर बहन को गलती का एहसास हुआ तब तक देर हो गई थी। उसके दो हफ्ते बाद ही मेरी पत्नी हार गई। अपने आप से, अपनी बीमारी से। अस्पताल में ही मरीजों की सेवा करते हुए उसने अंतिम सांस ली।
ओह ! बड़ी हिम्मतवाली थी तुम्हारी पत्नी। कितने साल हुए उसे गुजरे ? मैंने उसकी उमड़ती भावनाओं को थोड़ी राहत देने की गरज से पूछा।
कल तीसरी राखी है उसके बिना। उसने गाड़ी की गति थोड़ी बढ़ा दी। इंदौर आने में ज्यादा समय नहीं था। मैंने पूछा, तो अब तुम्हारी बहन नहीं आती राखी बांधने ?
आती है पर मैं उससे राखी नहीं बंधवाता। उसने ठंडी सांस ली। एक सी दो राखियां लाकर पत्नी की फोटो के सामने रख देती है। नारियल, मिठाई भी वहीं रख देती है। उसे बहुत बुरा लगता है मेरी सूनी कलाई देखकर। पर अब कुछ नहीं हो सकता। वह निर्विकार भाव से बोला।
गाड़ी की गति बिलकुल धीमी हो गई थी। वह चुप हो गया। अपनी ओर से कहानी खत्म कर दी उसने। पर मेरे लिए कहानी का अंत अभी कहां हुआ था। जब तक पात्र जिंदा हैं कहानी खत्म कहां होती है ? मैंने कहा, देखो तुम्हारी बहन ने गलती स्वीकार कर ली न ? तो माफ कर दो। अब उस गलती को लेकर क्या जिंदगी भर बैठे रहोगे ? याद करो क्या इस बहन के लिए तुमने दर्द सहते हुए कलाई को पत्थर से लहुलूहान किया था ? तुम्हारी पत्नी की जितनी उम्र थी उतने दिन वह साथ रही। अब उसकी यादें हैं तुम्हारे साथ। तुम्हारी पत्नी बड़ी बन गई, ननद को माफ कर दिया, तुम्हें भी अपनी बहन को माफ कर देना चाहिए। राखी की जगह पटिये पर नहीं कलाई पर होती है। मैं तो कहूंगी, कल वह आए तो तुम पटिया बिछाना और उससे राखी बंधवाना। देखना, फिर वही दिन लौट आएंगे बचपनवाले। मैंने अपना सुझाव दे दिया, आगे तुम्हारी मर्जी।
मैंने कांच में देखा, उसकी आंखों में पानी था और ओठों पर मुस्कान। उसकी मर्जी उसके चेहरे झलक रही थी। मेरे भाई का घर सामने था। मैंने टैक्सी के किराए के साथ कुछ रूपए बहन के उपहार लाने के लिए भी दिए। वह नम आंखों से दोनों हाथ जोड़कर चला गया।
मैं भाई-भाभी और बच्चों के साथ मसरूफ हो गई। रात को दो तीन बार उस ड्राइवर का चेहरा आंखों के सामने तैरा। अगले दिन भाई की कलाई पर राखी बांधते वक्त मन में उम्मीद की एक लौ दपदपाई, शायद उस भाई की कलाई पर भी बहन राखी बांध रही होगी। और उम्मीद बंधी इसीलिए तो कहानी बनी।