बंद कमरे से बाहर निकलना होगा
लेखकों के सक्रिय हस्तक्षेप से स्थिति बदलेगी
क्या किसी बाज ने अपना गुनाह माना है शिकार पर झपटने से पहलेकभी झिझका है कोई चीता?डंक मारते हुए बिच्छू शर्मिंदा नहीं था औरअगर साँप के हाथ होते तो वह भीउन्हें बेदाग ही बताता। भेड़िए को किसी ने पछताते हुए नहीं देखा। शेर हो या जुएँ खून पूरी आस्था से पीते हैं। विस्वावा शिंबोर्स्का (पोलैंड की नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कवयित्री) चुनाव में तमाम पार्टियाँ अपने को बेदाग बताते हुए वोट माँग रही हैं। पार्टियों के नेता एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। वे दावा कर रहे हैं कि वे ही जनता के सच्चे हितैषी हैं। पार्टियाँ भ्रम और धुँध भी पैदा कर रही हैं। इस परिदृश्य में एक लेखक की भूमिका क्या हो सकती है और वह इसे कैसे अंजाम दे सकता है, इन मुद्दों पर कुछ लेखकों से बात की गई। इनका मानना है कि अब समय आ गया है कि लेखकों को अपने बंद कमरे से बाहर आ जाना चाहिए। जनता से सीधे संवाद करने की जरूरत है। जीवंत संपर्क बनाएँकवि चंद्रसेन विराट मानते हैं कि अब लेखकों को रचनात्मक स्तर पर लेखन करने के साथ ही जनता से सीधे संवाद करना चाहिए। एक लेखक का लोगों से जीवंत संपर्क होगा, तभी उसकी बात सुनी जाएगी। अपने विवेक की छलनी से बातों को छानकर उसे सारतत्व जनता को बताना चाहिए। मैदान में आना होगामराठी के वरिष्ठ कवि वसंत राशिनकर तो कहते हैं कि लेखकों को कमरे से बाहर आकर मैदान में आना होगा। उसे छोटे-छोटे समूहों में अपनी बात कहना होगी। उसे सस्ती और प्रभावी प्रचार सामग्री बाँटना चाहिए। यही नहीं, मीडिया के साथ मिलकर वह झूठ का पर्दाफाश करे। मीडिया और लेखक मिलकर ही नेताओं द्वारा पैदा की गई धुँध को साफ कर सकते हैं। इसके अलावा अधिक से अधिक जनता को वोट देने के लिए प्रेरित करें। संकीर्णताओं से मुक्त हों मप्र प्रगतिशील लेखक संघ के प्रांतीय सचिव विनीत तिवारी का मानना है कि लेखकों और लेखक संगठनों को अपना एक माँग पत्र बनाना चाहिए कि पार्टियाँ गरीबों की उपेक्षा नहीं करेंगी, बुनियादी जरूरतों को पूरा करेंगी और सांप्रदायिकता, जाति और धार्मिक कट्टरता से दूर रहेंगी। इसके लिए तमाम लेखक मिलकर पार्टियों पर दबाव बना सकते हैं। हालाँकि इसके साथ वे यह भी जोड़ते हैं कि इससे पहले लेखकों को उन संकीर्णताओं और कट्टरता से मुक्त होना होगा जिसमें वे जाने-अनजाने फँसते जा रहे हैं। जनता को राजनीतिक घटाटोप से बाहर लाने के लिए अब मैदानी स्तर पर कार्रवाई करने की जरूरत है। वे कहते हैं- यह काम महाश्वेता देवी से लेकर अरुंधती राय बेहतर तरीके से कर ही रही हैं। जनता को जागरूक करेंइंदौर लेखिका संघ की अध्यक्ष मंगला रामचंद्रन का मानना है कि लेखक अपने लेखन के स्तर पर तो यह काम करता आ ही रहा है लेकिन यह वक्त इससे कुछ अलग करने का है। अब जनता के पास जाकर उसे जागरूक करने की जरूरत है। सक्रिय हस्तक्षेप से स्थिति बदलेगी कहानीकार डॉ. मीनाक्षी स्वामी का कहना है कि एक लेखक यह काम तो लिखकर ही कर सकता है। लेखक के पास इसके अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। साहित्यकार राकेश शर्मा इस बात से इत्तफाक नहीं रखते हैं। वे मानते हैं कि अब समय आ गया है कि लेखक अपने लेखन के साथ ही इस परिदृश्य में अपनी दूसरी भूमिका भी सुनिश्चित करे। उसे लोगों के पास और साथ आना ही होगा। तभी सक्रिय हस्तक्षेप से स्थितियाँ बदली जा सकती हैं। लोगों के बीच पहुँचेजनवादी लेखक संघ के सदस्य रजनीरमण शर्मा मानते हैं कि लेखक को छोटी-छोटी कविताएँ, व्यंग्य और लघुकविताएँ लिखकर लोगों के बीच सुनाई जाना चाहिए। वह जब तक अधिक से अधिक लोगों से नहीं जुड़ेगा, तब तक उसकी बात प्रभावी तरीके से नहीं पहुँच पाएगी। अब लेखक को एक्टिविस्ट की भूमिका भी निभाना होगी।