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माँ! आ, नजर उतार दे मेरी
मुरलीधर चाँदनीवाला बड़ी बुरी है नजर किसी की माँ! न रोटी भाती है आजकल न रात भर नींद आती है , माँ! आ, नजर उतार दे मेरी! * कई दिनों से घर में पानी नहीं है तुलसी सुख रही है,आँगन लिपा नहीं है, अचार नहीं डला इस बार,गेहूँ भरने का मन नहीं हुआ इस बार तुम्हारी बहू का,कहती है- कौन पाहुने आ रहे हैं यहाँ, ठीक भी है, दो मनक को कितना चाहिए? दफ्तर में रोज किच-किच होती है, तनख्वाह पुरती नहीं पंडित को पत्रिका बताई थी बोले-सब ठीक हो जाएगा, कुछ ठीक नहीं है, माँ! आ, नजर उतार दे मेरी!
* बेटी परदेस में है आजकल जवाँईजी के साथतेरे ऊपर गई है, बड़ी फिकर करती है रोज पूछती है फोन पर तबीयत के हालचाल, बेटा-बहू बहुत अच्छे हैं, घर से दूर बड़े शहर में कोशिश कर रहे हैं जमने की अकेलापन है फिर भीहँसी के पल खोजने पर भी नहीं मिलते छुट्टी के दिन गुमसुम बैठे हुए फिसल जाते हैं किसी को दु:ख बताया तो वह बैठ जाता है अपने बड़े सारे दु:ख खोल कर मन उदास हो जाता है आशाएँ लौटा दे मेरी माँ! आ, नजर उतार दे मेरी! * घर से निकलते ही सड़क पर दाएँ-बाएँ जान घबराती हैकभी भी, कहीं भी घसीट कर ले जाने कीताक में खड़ा नजर आता है हर एक शख्स, नेता है, चाटुकार हैं, अफसर हैं, बाबू हैं, हैं सब डरे हुए, पर बड़े डरावने लगते हैं ऐसा क्यों होता है माँ ! कि ठीक रास्ते पर चलते हुए गिर पड़ता हूँ ठोकर खाकर कोई उठाने नहीं आता,
तू दिख जाती है झिलमिलाती-सी और बस सँभल जाता हूँ मेरा कहा मान ले कोई घात लगा कर बैठा है कब से मेरी, माँ! आ, नजर उतार दे मेरी!