संजय वर्मा 'दृष्टी '
निहारती रहती हूं, बाबुल का घर
कितना प्यारा है मेरा बाबुल का घर
आंगन, सखी, गलियों के सहारे बाबुल का घर
लोरी, गीत, कहानियों से भरा बाबुल का घर।
बज रही शहनाई, रो रहा था बाबुल का घर,
रिश्तों के आंसू बता रहे, ये था बाबुल का घर।
छूटा जा रहा था जैसे मुझसे बाबुल का घर,
लगने लगा जैसे मध्यांतर था बाबुल का घर।
बाबुल से जिद्दी फरमाइशें करती थी, बाबुल के घर
हिचकियों का संकेत अब, याद दिलाता बाबुल का घर
सब आशियानों से कितना प्यारा, मेरा बाबुल का घर
रीत की तरह तो जाना है एक दिन, छोड़ बाबुल का घर ।