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Written By WD

चित्रलेखा के अमर शब्द शिल्पी

भगवतीचरण वर्मा : क्रांतिदर्शी विचारक

चित्रलेखा के अमर शब्द शिल्पी -
-डॉ. अरुण वर्म
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भगवतीचरण वर्मा बहुमुखी प्रतिभा के रचनाकार थे। साहित्य में उनका पदार्पण कविता के माध्यम से हुआ था। वह दौर छायावादी कविताओं का दौर था, जिसमें अनुभूति के उद्दाम आवेग के साथ भावप्रवणता और कल्पना की उड़ान का योग भी रहता था। उनके चित्रलेखा उपन्यास में जहाँ पाप और पुण्य का गंभीर विवेचन है, वहीं सामर्थ्य और सीमा में मृत्यु और विनाश का संगीत है। 'भूले-बिसरे चित्र' नायकविहीन उपन्यास है, एक मध्यमवर्गीय परिवार की चार पीढ़ियों की गाथा इसमें है, वहीं 'रेखा' चरित्र प्रधान और मनोविश्लेषणवादी उपन्यास है। 'टेढ़े-मेढ़े रास्ते' उनका विशुद्ध राजनीतिक उपन्यास है।

'चित्रलेखा' जैसे बहुपठित उपन्यास के शब्द शिल्पी श्री भगवतीचरण वर्मा, और दूसरे क्रांतिदर्शी विचारक और 'झूठा सच' के अमर रचनाकार श्री यशपाल। इन दोनो के जन्मशती वर्ष साथ में मनाए गए थे। प्रेमचंद और जैनेंद्र कुमार के बाद भगवती बाबू और यशपाल क्रमशः व्यक्तिवादी और यथार्थवादी धाराओं के प्रतिनिधि रचनाकार हैं। जैसा यश चंद्रधर शर्मा गुलेरी का 'उसने कहा था' कहानी के साथ, प्रेमचंद का 'गोदान' उपन्यास के साथ और हरिवंशराय बच्चन का 'मधुशाला' के साथ जुड़ा है, वैसा ही यश भगवती बाबू का उनके उपन्यास 'चित्रलेखा' के साथ जुड़ा है।

'चंद्रकांता', 'भूतनाथ' और प्रेमचंद के उपन्यासों के बाद उस जमाने में या तो सर्वाधिक शरतचन्द्र चटर्जी के 'देवदास' को पढ़ा गया या फिर 'चित्रलेखा' को। देवदास की ही तरह चित्रलेखा पर आधारित हिन्दी फिल्मों का दो बार निर्माण भी हुआ।

उपन्यास के रूप में वर्माजी ने 1929 में पहला प्रयत्न 'पतन' लिखकर किया। इसके बाद उनका सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास चित्रलेखा 1933 में प्रकाशित हुआ, जिसकी शुरुआत वे 1931 में कर चुके थे। चित्रलेखा के रचना शिल्प और भाषा पर छायावाद की कवित्वपूर्ण शैली का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है।

'पतन' और 'चित्रलेखा' से शुरू हुई उनकी उपन्यास-यात्रा अनेक पड़ाव और मंजिलें तय करती हुई, 'तीन वर्ष', 'टेढ़े मेढ़े रास्ते', 'आखरी दाँव', 'अपने खिलौने', 'भूले बिसरे चित्र', 'वह फिर नहीं आई', 'सामर्थ्य और सीमा', 'थके पाँव', 'रेखा', 'सीधी सच्ची बातें', 'सबहि नचावत रामगुसाँई', 'प्रश्न और मरीचिका', 'धुप्पल', 'चाणक्य' आदि उपन्यासों की अनवरत श्रृंखला हिन्दी कथा साहित्य को सौंपती है।

  उनकी नायिकाएँ प्रायः कुलीन, संस्कारवान हैं, आज के स्त्री विमर्श के संदर्भ में यदि नाम लेना हो तो सिर्फ 'टेढ़े-मेढ़े रास्ते' की वीणा और 'भूले-बिसरे चित्र' की विद्या को ही हम याद कर सकते हैं, जो कि पारम्परिक न होकर स्वतंत्र हैं...      
उन्होंने अपने सृजन धर्म की शुरुआत कविताओं से की थी। उनकी कविता के रंग यथार्थ और कल्पना दोनों से जीवंत हुए हैं। 'मधुकण', 'प्रेम संगीत', 'मानव', 'एक दिन', 'त्रिपथगा', 'रंगों से मोह' उनके प्रतिनिधि कविता संग्रह हैं। छायावादी और प्रगतिवादी दौर में उनकी 'हम दीवानों की क्या हस्ती', 'भैंसा गाड़ी', 'नूरजहाँ की कब्र पर', 'कवि का स्वप्न', 'विषमता', 'ट्राम', 'पनिहारिन' आदि कविताएँ बहुत लोकप्रिय हुई थीं।

'त्रिपथगा' में उनके तीन रेडियो रूपक- 'महाकाल', 'कर्ण' और 'द्रौपदी' शीर्षक से संग्रहीत हैं, 'रंगों से मोह' उनका अंतिम कविता संग्रह है। कहानी और नाटकों के माध्यम से हिन्दी को अनूठा गद्य और व्यंग्य साहित्य भी भगवती बाबू की विरल देन है। 'इंस्टॉलमेंट', 'दो बाँके', 'राख और चिंगारी' उनके तीन प्रतिनिधि कहानी संग्रह हैं। 'बुझता दीपक' और 'रुपया तुम्हें खा गया', उनके क्रमशः सुप्रसिद्ध एकांकी संग्रह और नाटक हैं। एकांकी व्यंग्य प्रधान है तथा 'रुपया तुम्हें खा गया है' नाटक में आधुनिक समाज की अर्थलिप्सा पर कठोर प्रहार किया गया है। 'साहित्य की मान्यताएँ' और 'हमारी उलझन', उनके निबंधों के संग्रह हैं।

भगवती बाबू के पिता श्री देवीचरण श्रीवास्तव वकालत पास कर आजीविका के लिए उन्नाव (उ.प्र.) की शफीपुर तहसील में आ बसे थे। वहीं 30 अगस्त 1903 को भगवतीचरण वर्मा का जन्म हुआ। कुछ दिनों के बाद उनके पिता कानपुर आ गए। कानपुर में ही भगवती बाबू का बचपन बीत रहा था कि 1908 में कानपुर में फैले भयंकर प्लेग के कारण उनके पिता की मृत्यु हो गई। बड़ी कठिन परिस्थितियों और संघर्षों में उनका प्रारंभिक जीवन बीता। उनके ताऊ और उनकी माता के सहयोग से उन्होंने जैसे-तैसे शिक्षा पाई। सातवीं, हाईस्कूल और इंटर की परीक्षाओं में उन्हें असफलता का मुँह भी देखना पड़ा। पिता की गाँव की बेची गई संपत्ति के बैंक में जमा रुपयों से 22 रु. प्रतिमाह ब्याज मिलता था, उसी से परिवार का खर्च चलता रहा।

कानपुर में पं. गणेशशंकर विद्यार्थी के 'प्रताप' के संपादक रमाशंकर अवस्थी ने उनकी कविताएँ प्रकाशित कीं। कानपुर में ही पं. बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक', चंद्रिकाप्रसाद आदि के सत्संग से उन्हें साहित्य सृजन की प्रेरणा मिली। स्कूल जीवन में वे मैथिलीशरण गुप्त की 'भारत भारती' का सस्वर पाठ किया करते थे।

1921 में उन्होंने हाईस्कूल और 1924 में इंटर की परीक्षा पास की। 1923 में उनका विवाह हुआ। 1926 में उन्होंने बी.ए. किया तथा 1928 में वकालत पास की और वकील बन गए। 1928 से 1942 के बीच वे वकालत और प्रकाशन योजनाओं के साथ ही कांग्रेस के महाअधिवेशनों और हिन्दी साहित्य के वार्षिक अधिवेशनों में सक्रिय भागीदारी करने लगे थे।

1933 में उनकी पत्नी का देहांत हो गया, 1934 में उनका दूसरा विवाह हुआ। 1942 से 1947 तक वे बंबई में कथा लेखक, चित्रपट कथा लेखक और संवाद लेखक के रूप में बॉम्बे टॉकीज में काम करते रहे। वहाँ से लौटकर लखनऊ में दैनिक नवजीवन के संपादक हुए, लेकिन राजनीतिक कारणों से 1948 में उन्होंने नवजीवन का संपादन छोड़ दिया। 1950 से 1957 तक वे आकाशवाणी में हिन्दी सलाहकार के रूप में कार्यरत रहे। 1957 में उन्होंने रेडियो की नौकरी भी छोड़ दी और दिल्ली से लखनऊ आकर स्वतंत्र लेखन में मृत्युपर्यंत जुटे रहे।

लखनऊ में महानगर में अपने आवास का नाम उन्होंने 'चित्रलेखा' ही रखा। लखनऊ में उस दौर में हिन्दी के दो और प्रमुख उपन्यासकार श्री यशपाल एवं पं. अमृतलाल नागर भी रहा करते थे। लखनऊ के महानगर में उन दिनों यशपाल और वर्माजी के अतिरिक्त इतिहासकार पुराविद् और प्रखर समीक्षक डॉ. भगवतशरण उपाध्याय भी रहा करते थे।

रचनात्मक लेखन के साथ विचार-विमर्श, साहित्यिक गोष्ठियों का महत्वपूर्ण केंद्र इलाहाबाद और बनारस के बाद लखनऊ था। भगवती बाबू का जीवन संघर्षों की कहानी है। हमारी उलझन निबंध संग्रह में वे कहते हैं- 'मुझ पर मुसीबतें पड़ीं, ऐसी मुसीबतें पड़ीं जिनकी कल्पना करने से ही हृदय काँप उठता था।'

'टेढ़े-मेढ़े रास्ते' उनका विशुद्ध राजनीतिक उपन्यास है। 'अपने खिलौने' हास्य-व्यंग्यपूर्ण उपन्यास है। 'सीधी सच्ची बातें' में 1939-48 के भारत के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक पहलुओं को रेखांकित किया गया है। 'सबहि नचावत रामगुसाँई' में यथार्थ का वर्णन व्यंजनामूलक ढंग से हुआ है। इस रचना में वर्माजी का नया अभिव्यक्ति कौशल और नई शैली दिखाई देती है।

उनकी नायिकाएँ प्रायः कुलीन, संस्कारवान हैं, आज के स्त्री विमर्श के संदर्भ में यदि नाम लेना हो तो सिर्फ 'टेढ़े-मेढ़े रास्ते' की वीणा और 'भूले-बिसरे चित्र' की विद्या को ही हम याद कर सकते हैं, जो कि पारम्परिक न होकर स्वतंत्र हैं तथा जो अपनी अस्मिता के लिए संघर्षरत भी हैं और कुछ हद तक विद्रोहिणी भी।

भगवतीचरण वर्मा ने उपन्यास, कहानी, नाटक, कविताओं के माध्यम से हिन्दी साहित्य और भाषा को भरपूर समृद्ध किया है। चित्रलेखा के यशस्वी और अमर रचनाकार की स्मृति को शत-शत प्रणाम अर्पित है।