शनिवार, 27 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. साहित्य
  3. आलेख
  4. Peris Jalvayu Samjhouta
Written By WD

पेरिस जलवायु समझौते पर दस्तखत के बाद क्या?

पेरिस जलवायु समझौते पर दस्तखत के बाद क्या? - Peris Jalvayu Samjhouta
राजकुमार कुम्भज
अंततः दुनिया के 175 देशों ने पेरिस जलवायु समझौते पर कार्बन उत्सर्जन में कटौती की प्रतिबद्धता दोहराते हुए न्यूयॉर्क में हस्ताक्षर कर दिए। संयुक्त राष्ट्र संघ के इतिहास में यह पहला मौका है, जब किसी वैश्विक संगठन के वैश्विक समझौते पर एक ही दिन, एकसाथ इतने अधिकतम सदस्यों ने हस्ताक्षर किए हैं। इससे पहले वर्ष 1982 में दुनिया के 119 देशों ने एकसाथ 'लॉ ऑफ द सी कन्वेंशन' पर हस्ताक्षर किए थे।
 
पेरिस जलवायु समझौते पर पहले 130, 150 और अधिकतम 165 देशों द्वारा हस्ताक्षर किए जाने की संभावना व्यक्त की गई थी, किंतु ऐन वक्त पर हस्ताक्षर करने वाले 175 सदस्य देशों ने इतिहास बनाते हुए सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। हालांकि पिछले दिसंबर में संपन्न हुए पेरिस जलवायु सम्मेलन में कुल जमा 190 से अधिक देशों ने इस समझौते को स्वीकार किया था।
 
पेरिस जलवायु समझौते के इस 'हस्ताक्षर समारोह' का संचालन संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने खुद किया। इस अवसर पर तकरीबन 60 देशों के राष्ट्र प्रमुखों की उपस्थिति भी गौर करने लायक रही।
 
पेरिस जलवायु समझौता इस सकारात्मकता का संकेत है कि अब ग्लोबल वॉर्मिंग संदर्भित चर्चाओं में उस तरह की निरर्थक गुटबाजी से मुक्ति मिल जाएगी, जैसी कि विकसित और विकासशील देशों के गुटों में दिखाई देती थी।
 
इस समझौते के बाद स्वत: ही स्थिति स्पष्ट हो जाना चाहिए कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने की कोशिशों में विकसित देशों को खास जिम्मेदारी उठाना होगी, क्योंकि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में उनकी हिस्सेदारी भी ज्यादा ही रही है।
 
पेरिस समझौते में विकासशील देशों के लिए आर्थिक, तकनीकी और योजनाबद्ध तरीकों से विकसित देशों द्वारा दी जाने वाली सहायता व्यवस्था अब और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। 
इसमें भी खासतौर से प्रौद्योगिक सरलीकरण प्रक्रिया की व्यवस्था बेहद खास है। प्रौद्योगिकी सरलीकरण प्रक्रिया की व्यवस्था हो जाने से निरंतर विकास का लक्ष्य हासिल करने में बड़ी सहायता और बड़ी सफलता मिलने की संभावनाएं प्रबल हुई हैं।
 
एक बेहद लंबी और बोरियतभरी खींचतान के बाद विकसित दुनिया का सही-सही आकलन तो अब ही सामने आएगा, जब यह देखा जाएगा कि वे गैस उत्सर्जन में कटौती और गरीबी उन्मूलन मामलों में कैसे अपनी करनी और कथनी एक समान साबित कर पाते हैं? यह भी देखा जाएगा कि वे कैसे खुद अपनी देशों में सतत ऊर्जा खपत अपनाते हैं और विकासशील देशों के लिए प्रौद्योगिकी माध्यम, क्रियान्वयन हेतु उपलब्ध करवाते हैं या नहीं? 
 
अन्यथा नहीं है कि विकासशील देशों में विकास और गरीबी दूर करने के लिए भारी मात्रा में धन की आवश्यकता है। खासतौर से यह भी देखा जाएगा कि विकसित देशों की ओर से उपलब्ध कराए गए धन का उपयोग विकासशील देश किस योजनाबद्ध, नीतिबद्ध, समयबद्ध और समग्रता से करते हैं?
 
वर्ष 2030 के एजेंडे में दिए गए प्रावधानों के मुताबिक पेरिस समझौते को लेकर आगे कदम उठाने की प्रक्रिया और समीक्षा न सिर्फ संबंधित स्व-देश की नेतृत्व वाली रखी गई है, बल्कि स्वैच्छिक, आपसी सोच-समझ और बेहतरीन क्रियान्वयन के परस्पर आदान-प्रदान को बढ़ावा देने वाली भी है। 
 
इस वैश्विक प्रतिबद्ध जिम्मेदारी का निर्वहन दुनिया के सभी देश एक समान ढंग से करें, ऐसा तो जरा भी जरूरी नहीं है लेकिन वर्ष 2030 के एजेंडे को लागू करने में दुनिया के सभी देशों की ओर से पर्याप्त सहयोग की संभावना बनी रहना बेहद जरूरी है।
 
गरीबी उन्मूलन के लिए समाहित योजनाओं को अपने-अपने तरीकों से ही क्रियान्वित किया जा सकता है। इसमें भी विकासशील देशों के लिए, विकसित देशों की ओर से उपलब्ध करवाई जाने वाली आर्थिक और तकनीकी सहायता व्यवस्था बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि उन्नत प्रौद्योगिकी की उपलब्धता और निरंतर सहायता व्यवस्था से ही विकास प्रक्रिया लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। 
 
अन्यथा नहीं है कि अर्थव्यवस्था और उन्नत प्रौद्योगिकी सहायता व्यवस्था दोनों ही समूहों की कथनी व करनी का खरा-खरा पोस्टमॉर्टम करने का भरपूर प्रयास करेंगे। यह देखना दिलचस्प रहेगा कि विकसित और विकासशील देशों के समूह किस तरह से समाहित योजनाओं पर काम करते हैं?
 
भारत एक सशक्त और ठोस जलवायु समझौते के लिए निरंतर आग्रह करता रहा है और चाहता रहा है कि जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में एक ऐसा पूर्ण समझौता सामने आए, जो संयुक्त राष्ट्र संधि (यूएनएफसीसीसी) के प्रावधानों और सिद्धांतों पर आधारित हो। 
 
बहुत संभव है कि न्यूयॉर्क में 175 सदस्य देशों द्वारा हस्ताक्षरित पेरिस जलवायु समझौता भारत की सभी महत्वपूर्ण चिंताओं तथा उम्मीदों का समाधान देने में सही साबित होगा। इसके लिए जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध लड़ाई में विकसित देश, विकासशील देशों के लिए निरंतर धन और तकनीकी सहायता उपलब्ध करवाएं।
 
पेरिस समझौते के बाद जलवायु परिवर्तन पर भारत की ओर से की गई कार्रवाई का ब्योरा देते हुए हमारे पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने संयुक्त राष्ट्र के मार्फत दुनिया को बताया है कि वर्ष 2022 तक 175 गीगावॉट नवीनीकरण ऊर्जा का जो लक्ष्य रखा गया है, उसमें से 40 गीगावॉट नवीनीकरण ऊर्जा क्षमता मार्च 2016 में अर्जित की जा चुकी है।
 
जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने की दिशा में भारत ने एक बड़ी पहल एलईडी प्रकाश व्यवस्था के बतौर की है। सामान्य बल्बों को हटाकर देश में तकरीबन 10 करोड़ एलईडी बल्बों का इस्तेमाल किया गया जिसकी वजह से कार्बन डाई ऑक्साइड में कुल ढाई करोड़ टन की कमी लाने में सफलता मिली है। शीघ्र ही 20 करोड़ एलईडी बल्ब और लगाए जा रहे हैं।
 
भारत का अगला कदम पीएटी (परफॉर्म, अचीव एंड ट्रेड) होगा जिसके अंतर्गत सघन औद्योगिक इकाइयों की ऊर्जा खपत, 3 वर्षीय कार्ययोजना के तहत घटाई जाएगी। इस तरह जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने और वास्तविक समाधान की दिशा में भारत ने एक लंबी छलांग लगाई है।
 
संदर्भित राष्ट्रीय कार्ययोजना तैयार करने तथा लक्ष्यों में निर्धारण में 'टेरी' अर्थात एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। यहां यह कहा जाना कतई आकस्मिक नहीं है कि हमने पर्यावरण की चुनौतियों से निपटने के लिए गंभीर रणनीति तैयार करने में अहम भूमिका निभाई है।
 
भारत अपने इस आग्रह को दोहराता रहा है कि पर्यावरण समाहित योजनाओं पर उचित अमल करने से अपेक्षित नतीजे हासिल किए जा सकते हैं। इसके लिए जरूरी है कि पर्यावरण के चुनौतीपूर्ण किंतु असल आंकड़ों सहित व्यक्तिगत और संस्थागत क्षमताओं का भी पर्याप्त आकलन किया जाए। इसके लिए विकसित और विकासशील देशों को एक-दूसरे से बहुत कुछ सीखने-सिखाने की जरूरत है। यह भी कि इस संदर्भ में परस्पर अनुभवों का आदान-प्रदान तथा उन अनुभवों से लाभ उठाने की प्रवृत्ति को और अधिक विस्तार देना होगा।
 
आने वाले दिनों में हम देखेंगे कि जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में भारत और अमेरिका आपसी सहयोग बढ़ाने की ओर अग्रसर हुए हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी से हमारे पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर और ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल की मुलाकात को इसी संदर्भ में उल्लेखनीय समझा जा सकता है।
 
तकरीबन 150 बरस पहले जबसे तापमान का रिकॉर्ड रखने का सिलसिला शुरू हुआ है, तब से अब तक वर्ष 2015 सबसे गर्म वर्ष के बतौर दर्ज हुआ है। इस बढ़ते तापमान की वजह ग्लोबल वॉर्मिंग और अल नीनो बताए गए हैं। प्रशांत सागर की सतह का पानी बहुत अधिक गर्म हो जाने पर अल नीनो प्रभाव पैदा होता है।
 
पिछले वर्ष 2015 में अल नीनो ने धरती पर दस्तक दी थी। अल नीनो की उस दस्तक के साथ ही धरती पर तापमान का विस्तार देखा गया था। अल नीनो की वजह से ही दुनिया के अनेक इलाकों में सूखे का संकट है। संभावना तो यहां तक की व्यक्त की जा रही है कि वर्ष 2016 सदी का सबसे गर्म वर्ष साबित हो सकता है।
 
जलवायु परिवर्तन से दुनियाभर के देश प्रभावित हुए हैं जिसके लिए मुख्यत: अल नीनो को ही जिम्मेदार ठहराया गया है। तापमान के विस्तार में भी उसी की अहम भूमिका रही है। स्मरण रखा जा सकता है कि फरवरी में विश्व का तापमान 20वीं सदी के औसत तापमान से 0.16 सेल्सियस अधिक आंका गया।
 
अल नीनो से संचालित प्रभावित पर्यावरण के कारण दुनिया के अनेक देश सूखे का प्रकोप भुगत रहे हैं। अफ्रीका में 10 लाख बच्चों को लगातार भोजन नहीं मिल पा रहा है। पापुआ न्यू गिनी के जंगलों में लगी आग से लाखों लोग प्रभावित हुए है। बोलीविया में भेड़ों सहित 10 लाख से अधिक जानवर चारे के अभाव में अपनी जान गंवा चुके हैं।
 
किंतु ऐसा भी नहीं है कि जलवायु-परिवर्तन से सब दु:खद ही दु:खद हुआ हो, किंचित सुखद भी घटित हुआ है। हालांकि वह बेहद क्षीण ही देखा गया है किंतु उल्लेखनीय अवश्य है जिसमें कई लुप्तप्राय: प्रजातियों के प्राणियों की संख्या वृद्धि शामिल है।
 
विश्व वन्य जीवन कोश एवं ग्लोबल टाइगर फोरम की एक नई गणना के मुताबिक दुनिया में शेरों की संख्या बढ़कर तकरीबन 4,000 के आसपास पहुंच गई है। कुछेक उन अन्य जानवरों की संख्या में भी इजाफा हो रहा है जिनके लुप्त हो जाने का खतरा बढ़ गया था।
 
कैलीफोर्निया में कांडोर नामक पक्षी की संख्या वर्ष 1982 में मात्र 22 रह गई थी, अब ये बढ़कर सैकड़ों में पहुंच गए हैं। उधर कूबड़ वाली व्हेल की संख्या ऑस्ट्रेलिया में लगातार बढ़ रही है। संरक्षण उपायों की निरंतरता और जागरूकता के कारण भारतीय गैंडा अब 3,000 की संख्या में आ गया है। यहां तक कि चीन में पिछले 12 बरस में जंगली पांडा की संख्या में 17 फीसदी तक की वृद्धि पाई गई है। इस सबसे पर्यावरण संरक्षण की प्राथमिकता के विचार को स्वीकृति समझा जाना चाहिए।
 
भारत सरकार ने पेरिस जलवायु समझौते पर अमल के साथ ही साथ वनीकरण कोष विधेयक 2015 को भी स्वीकृति देकर विश्व पर्यावरण के समझ एक वृहद मार्ग प्रशस्त किया है। 
वनीकरण कोष विधेयक 2015 के पारित हो जाने के बाद वन संरक्षण और वन विस्तार पर प्रतिवर्ष 45,000 करोड़ रुपए खर्च किए जा सकेंगे। पेरिस जलवायु समझौते पर दस्तखत के बाद भारत की ओर से किया जाने वाला वन संरक्षण प्रावधान विश्व के लिए अवश्य ही एक अनुकरणीय उदाहरण बनेगा।
ये भी पढ़ें
हिन्दी कविता : बहुत दुख होता है...