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देशभक्ति से पहले अपने 'देश' को जानें : भागवत

देशभक्ति से पहले अपने 'देश' को जानें : भागवत - Book inauguration
हम इस देश को अतिरिक्त क्या देते हैं : भागवत 
पुस्तक विमोचन समारोह में चिरपरिचित शैली में रखी अपनी बात 
 
एक पत्रकार की जिम्मेदारी है कि वह सत्य को निष्पक्ष रूप से निर्भयतापूर्वक समाज के सामने रखें। पत्रकार लेखक विजय मनोहर तिवारी ने अपनी पुस्तक 'भारत की खोज में मेरे पांच साल' के अंतर्गत भारत को जैसा देखा, समझा और जाना वैसा बेबाक लिखा है। उक्त विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघसंचालक डॉ. मोहनराव भागवत ने पुस्तक के विमोचन के अवसर पर व्यक्त किए। 
11 फरवरी 2017 को पत्रकार विजय मनोहर तिवारी की किताब 'भारत की खोज में मेरे पांच साल' का विमोचन डॉ. भागवत के हाथों भारत भवन, भोपाल में अत्यंत गरिमामयी कार्यक्रम में संपन्न हुआ। 
 
खचाखच भरे हॉल में डॉ. भागवत ने अपेक्षानुरूप चिरपरिचित शैली में अपना उद्बोधन आरंभ किया। उन्होंने एक रोचक कथा के साथ अपनी बात आगे बढ़ाई कि, एक राजा के दर्शन के लिए वन के समस्त प्राणी आए। राजा की गुफा में बेहद बदबू का साम्राज्य था। राजा ने सबसे पूछा कि कैसा लग रहा है उनका दरबार? हाथी ने अपनी सूंड को सिकोड़ कर कहा कि यहां स्वच्छता नहीं है। राजा को 'सीधा सच' बर्दाश्त नहीं हुआ और हाथी को सजा दिलवा दी। राजा ने फिर ऊंट से पूछा कि मेरा दरबार कैसा है? ऊंट हाथी का हश्र देख चुका था। बोला, महाराज यहां तो कितनी अच्छी सुगंध है। सबकुछ कितना साफ सुथरा है। राजा को समझ में आया कि यह तो चापलूसी है। 'एकदम सच' के बाद 'एकदम झूठ' भी उसे रास ना आया। नतीजतन ऊंट को भी सजा मिली। अब बारी आई सियार की। सियार ठहरा चतुर। उसने कहा, मैं आपको बताता कि कैसा है यहां का दरबा‍र पर मुझे इतना जुकाम है कि बदबू ही नहीं आ रही। 
 
डॉ. भागवत ने सियार के बयान के बारे में कहा कि आजकल जो शब्द 'पोलिटिकली करेक्ट' प्रचलन में है वह यही है। लेकिन लेखक की किताब में यह चतुराई नहीं है जिसे इस तरह 'पोलिटिकली करेक्ट' कहा जा सके। यहां पूर्णत: सच का सादगीपूर्ण लेकिन रोचक विश्लेषण है। लेखक की देशप्रेम को लेकर पीड़ा पर उनका कहना था कि यह सच है कि हम देश को प्रेम करते हैं, देश की भक्ति करते हैं पर वास्तव में हम यह नहीं जानते हैं कि हमारी भक्ति कितनी दूर जा सकती है। हमें समझने की जरूरत है कि भक्ति में अपना अस्तित्व नहीं रहता है। ‍जिस तरह सागर की लहरें होती है लहरों का सागर नहीं होता उसी तरह भक्ति में भी ध्यान रखा जाए कि देश की प्रमुखता और महत्व कैसे बना रहे। भक्ति में अतिरिक्त ही देना पड़ता है। लेखक विजय ने भक्ति की जिस नजर से देश को देखा है वास्तव में वही आज की जरूरत है। जब देश के प्रति अतिरिक्त देने की उत्कट भक्ति होगी तब ही और अधिक देने की सामर्थ्य और सद्इच्छा भी आपकी बढ़ेगी।     
 
हम सब अपने-अपने कर्म में तो लगे हैं लेकिन इस देश को हम अपना अतिरिक्त क्या देते हैं? हमारी शिक्षा प्रणाली हमें अतिरिक्त देना क्यों नहीं सिखाती? जबकि इसी देश की युगों पुरानी परंपरा की शिक्षा से विवेकानंद निकले, स्वामी अरविंद निकले, सुभाष निकले फिर शिक्षा की व्यवस्था कब ऐसी हो गई कि ऐसे रत्न निकलना कम हो गए।  
 
लेखक ने जिस भावभूमि पर आरूढ़ होकर पुस्तक को रचा है उसी भाव-भूमि पर ले जाकर वह पाठकों को खड़ा कर दे यही लेखन की सफलता है और विजय मनोहर की किताब 'भारत की खोज में मेरे पांच साल' को मैं इस सफलता के मानदंड पर खरा पाता हूं। 
इससे पूर्व लेखक विजय ने अपनी रचनाधर्मिता साझा की और कहा कि मैंने अपनी कोई भी पुस्तक ड्राइंग रूम में रचे साहित्य की तरह नहीं लिखी बल्कि जीवन की आपाधापी और पत्रकारीय संघर्ष के साथ ही रची है। यह पुस्तक मेरे उन अनुभवों का जीवंत दस्तावेज है जो पत्रकारिता के दौरान पूरे देश में भ्रमण के अवसर पर मैंने अपने मन में संजोए और जिनसे मैं गहरे तक प्रभावित हुआ। इन यात्राओं के दौरान मैंने जाना कि हम देश से प्रेम तो करते हैं मगर हम यह जानते ही नहीं कि हमारा देश है क्या? युगों-युगों की पुरातन और यशस्वी परंपरा वाले इस अनूठे देश को जानने के लिए एक जन्म भी कम है। 
 
मनोज श्रीवास्तव, (प्रमुख सचिव संस्कृति विभाग मध्यप्रदेश शासन) ने पुस्तक पर अपनी बात अत्यंत सारगर्भित और सुनियोजित रूप में प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि यह पुस्तक नया दर्शन ही नहीं बल्कि नई दृष्टि भी देती है। इस पुस्तक का नक्षा ही नया नहीं है नयन भी नए हैं। लेखक कितना ध्यान करते हैं यह तो नहीं पता पर वे कितना ध्यान 'रखते' हैं पुस्तक पढ़ते हुए यह अवश्य पता चलता है।   
 
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. ब्रजकिशोर कुठियाला ने बतौर विशेष अतिथि अपने उद्बोधन में कहा कि जब एक पत्रकार संवेदनशीलता के धरातल पर पत्रकारिता से आगे जाकर समाज को देखता है तब ही वह समाज को बहुत कुछ दे पाता है। पुस्तक हमें बताती है कि पुरातन भारत को जानकर ही नवीन भारत की रचना और संकल्पना की जा सकती है। 
 
कार्यक्रम का संचालन सुपरिचित सूत्रधार विनय उपाध्याय ने अत्यंत कलात्मक और अलंकृत भाषा-शैली में किया। अतिथियों का स्वागत जयश्री पिंगले, संपादक चौथा संसार और जानेमाने पत्रकार प्रवीण शर्मा ने किया। इस अवसर पर प्रदेश भर से कई प्रबुद्धजन शामिल हुए। 
 
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