मंगलवार, 19 मार्च 2024
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'दिन' ने चंद लफ्ज़ों में लिखा प्यार

'दिन' ने चंद लफ्ज़ों में लिखा प्यार - पुस्तक समीक्षा
-श्रवण शुक्ला
कैसे चंद लफ्ज़ों में सारा प्यार लिखूं। एक कशिश जो दिल में हो, उसे शब्दों में ढाल दिया जाए तो क्या बात हो? कुछ ऐसी ही कशिशों ने कोशिशें की है, दिनेश गुप्ता को 'दिन' बनाने में। सच कहूं तो मैंने कभी शायरी, प्रेम कविताएं नहीं की और न ही फिल्मी विरह के गीत गुनगुनाए। पर एक सच ये भी है कि चंद लफ्जों में सिमटी 'दिन' की कविताओं ने कभी यूं ही दबा दी गई भावनाओं को नया उभार दे दिया।
 
सच कहूं तो मेरे लिखने का अंदाज़ भी अलग है, पर दिनेश की लेखनी में इतना असर है कि मैं खुद रात की वीरानियों में गुम सा हो गया और ये सबकुछ लिख डाला। यूं तो दिनेश पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं, लेकिन जीते हैं तो अपनी ही धुन में। उन्हीं धुनों को शब्दरूपी मोती माला में दिनेश ने पिरोया है, वास्तव में वो शब्द न होकर भंडार हैं। भावनाओं के। उन भावनाओं के, जो शायद कहीं दबी हैं। हमारे भीतर भी, आपके भीतर भी। जो दिनेश की पढ़कर फिर से उभरने लगती हैं। दिनेश की चंद लाइनें यहां लिखना कुछ बेहतर तो नहीं होगा, हां! मेरे दावे पर मुहर जरूर लगाएगा। जैसे:
 
एक ख्वाब हूं मैं
किसी की आंखों में पलता हुआ,
किसी की पलकों में ढलता हुआ,
किसी की सुबहों में महकता हुआ,
किसी की शामों में मचलता हुआ,
बनता हुआ कभी, कभी बिगड़ता हुआ
किसी के सीने में धड़कता हुआ।
एक ख्वाब हूं मैं।
 
दिनेश उस एक चेहरे के नाम जो नज्म लिखते हैं। ये कहते हुए कि उनसे जीना सिखा दिया। न मैं तुझसे पहले रहूं, न मैं तेरे बाद रहूं, मैं बस तेरे साथ रहूं। ये लाइनें महज अक्षरों के खेल से नहीं निकली हैं बल्कि इसके लिए एक महसूस करने वाला दिल होना चाहिए। वो दिल, जो सबके पास होता है।
हर किसी का किसी के लिए धड़कता है। आवाज उठती भी है तो खुद ही दबा भी लेता है। लेकिन दिनेश अपनी धुन में ऐसे खोए कि सब कुछ उजागर कर दिया। हालांकि कहीं कहीं दिनेश भावनाओं में कुछ ज्यादा ही बह गए हैं, लेकिन तमाम अच्छी बातों के बीच कुछ बुराइयां हमें भी स्वीकारनी ही होंगी।
 
ये अपनी धुन में ही खोने की वजह है कि दिनेश ने किसी नामचीन प्रकाशक को अपनी पांडुलिपियां नहीं सौंपी, बल्कि ऑथर इंक इंडिया जैसे नए प्रकाशक पर भरोसा किया। मेरी शुभकामनाएं दिनेश के साथ हैं। वो ऐसे ही अपनी तरन्नुम को जगाते रहें और बेहतर लिखते रहें। नई दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले से मेरे हाथ 'दिन' की ये मोहब्बत सभी को महसूस करनी चाहिए। यकीन है, जीने के लिए ही जी रहे लोग फिर से जीने की कोशिश करेंगे।