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Written By WD

पुस्तक समीक्षा : मीडिया की कहानी, मीडिया की जुबानी

पुस्तक समीक्षा : मीडिया की कहानी, मीडिया की जुबानी - Book Review
धनंजय चोपड़ा  
 
इन दिनों, जब मीडिया इंडस्ट्री को सबसे तेज भागती और नित नया रूप बदलती इंडस्ट्री का तमगा दिया जा रहा है, तब यह जरूरी हो जाता है कि इस मिशनरी व्यवसाय की न केवल गंभीर पड़ताल की जाए, बल्कि उसके उन तत्वों को खंगाला जाए, जिन्होंने इसे रचने और मांजने में योगदान दिया है। जाहिर है कि अगर मीडिया के भीतर से इसकी शुरुआत हो तो सही मायनों में हम मीडिया के बदलावों, उसमें पनपती नए जमाने की फितरतों और पूंजी और मुनाफे की मुठभेड़ में कहीं खोती जा रही असल खबरों की जरूरतों के साथ-साथ पत्रकारों के लिए तैयार हो रही पगडंडियों पर बेहतर बात कर पाएंगे।


 

हाल के दिनो में प्रकाशित पुस्तक 'मीडिया हूं मैं' इसी तरह की पड़ताल की कमी को पूरा करती नजर आती है। यह किसी से नहीं छिपा है कि नया होता मीडिया अपने नए-नए उपक्रमों के सहारे तेजी से विस्तार ले रहा है। इंटरनेट ने मीडिया के कई खांचों को पूरी तरह बदल दिया है। संपादक नाम की संस्था अब असंपादित टिप्पणियों वाले आभासी साम्राज्य के आगे बेबस-सी है।

सोशल मीडिया के नाम से अगर लोगों को वैकल्पिक माध्यम मिला है तो मोबाइल जैसे टूल ने नागरिक पत्रकारों और नागरिक पत्रकारिता जैसे नए आयाम हमारे सामने प्रस्तुत कर दिए हैं। फेसबुक और ट्विटर ने मीडिया के मायनों को फिर से परिभाषित करने पर मजबूर किया है। जाहिर है कि समय बदला है और जरूरतें भी। ऐसे में वरिष्ठ पत्रकार जयप्रकाश त्रिपाठी की पुस्तक 'मीडिया हूं मैं' की कहानी को मीडिया की ही जुबानी सुनाने का प्रयास करती है।

छह सौ से अधिक पृष्ठों वाली इस पुस्तक में श्री त्रिपाठी ने पत्रकारिता में 36 वर्ष के अपने अनुभवों के साथ साथ कई अन्य नामचीन पत्रकारों के विचारों को भी संकलित करके प्रस्तुत किया है। मीडिया में अपना भविष्य खोज रहे युवाओं के लिए भी ढेर सारी ऐसी जरूरी जानकारियां इस पुस्तक में हैं, जो एक साथ किसी एक किताब में आज तक उपलब्ध नहीं हो सकी हैं। मीडिया के बनने और फिर नए रास्तों पर चलकर नई-नई मंजिलें पाने तक की रोचक यात्रा की झलकियां तथ्यतः इस पुस्तक में पढ़ने को मिलती हैं। 
 
पत्रकारिता का श्वेतपत्र, मीडिया का इतिहास, मीडिया और न्यू मीडिया, मीडिया और अर्थशास्त्र, मीडिया और राज्य, मीडिया और समाज, मीडिया और कानून, मीडिया और गांव, मीडिया और स्त्री, मीडिया और साहित्य जैसे अध्यायों से गुजरते हुए लेखक के अनुभवों के सहारे इस पुस्तक में बहुत-कुछ जानने को मिलता है। इन अध्यायाों में जिस तरह समय के अनुरूप विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है, वह अंतरविषयक जरूरतों को तो पूरा करता ही है, मीडिया के साथ विषय-वैविध्यपूर्ण रिश्तों की आवश्यक पड़ताल भी करता है।

लेखक ने अपनी बात को स्थापित करने के लिए जिस तरह अन्य पत्रकारों के उद्धरणों का सहारा लिया है, वह भी सराहनीय है। पहले-पहल तो पुस्तक किसी लिक्खाड़ की आत्मकथा-सी लगती है, लेकिन धीरे-धीरे पृष्ठ-दर-पृष्ठ यह एक ऐसे दस्तावेज की तरह खुलने लगती है, जिसमें विरासत की पड़ताल के साथ-साथ अपने समय और मिशन के साथ चलने की जिद की गूंज सुनाई देने लगती है।

लेखक की पंक्तियों पर गौर करें तो वे मीडिया की बदलती तस्वीर से उसी तरह परेशान लगते हैं, जिस तरह समाज की विद्रूपता से हम सब। मीडिया को लेकर लेखक की गंभीरता इन शब्दों में साफ झलकती है - 'मैं सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं, लड़ने के लिए भी। मनुष्यता जिसका पक्ष है, उसके लिए। जो हाशिये पर हैं, उनका पक्ष हूं मैं। उजले दांत की हंसी नहीं, मीडिया हूं मैं।

सूचनाओं की तिजारत और जन के सपनों की लूट के विरुद्ध। जन के मन में जिंदा रहने के लिए पढ़ना मुझे बार-बार। मेरे साथ आते हुए अपनी कलम, अपने सपनों के साथ। अपने समय से जिरह करती बात बोलेगी। भेद खोलेगी बात ही।...' तय है कि यह पुस्तक नये पत्रकारों और पत्रकारिता के प्रशिक्षुओं के साथ-साथ मीडिया को समझने की ललक रखने वालों से बेहतर संवाद करने और उन्हें कुछ नया बताने-सिखाने में सफल होगी। 
 
पुस्तक : मीडिया हूं मैं 
लेखक: जयप्रकाश त्रिपाठी (फोन संपर्क:8009831375)
प्रकाशक: अमन प्रकाशन, कानपुर
मूल्य: 550 रुपये (पेपर बैक)