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Written By WD

संप्रग सरकार का पतन, 10 बड़े कारण

संप्रग सरकार का पतन, 10 बड़े कारण -
अब जबकि चारों तरफ नई सरकार के गठन की चर्चा चल रही है, मोदी की ताजपोशी चंद कदम दूर रह गई है, सभी एक्जिट पोल राजग सरकार के गठन की घोषणा कर रहे हैं और कांग्रेस स्वयं अपनी सरकार को हार की कगार पर खड़ा मानकर चल रही है ऐसे में संप्रग सरकार के पतन के कारणों की पड़ताल करना समीचीन होगा।
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* कठपुतली सरकार : सबसे प्रमुख कारण तो मनमोहन सरकार पर कठपुतली सरकार का ठप्पा लगा होना रहा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दोनों कार्यकाल (10 वर्ष) इसी ठप्पे के साथ काम करते रहे। देश को कभी भी ऐसा नहीं लगा कि वे स्वयं कोई निर्णय लेने की हैसियत रखते हैं। सिवाय एक अवसर के और वह था अमेरिका के साथ परमाणु समझौता, जिसके लिए मनमोहन ने हठ किया और सरकार से अपनी बात मनवाई।

अगले पन्ने पर... घोटालों का बोलबाला


देश में घोटाले तो पहले भी बहुत हुए लेकिन मनमोहन सरकार के दौरान तो जैसे घोटालों का ही बोलबाला रहा। राष्ट्रमंडल खेल, 2 जी, कोयला घोटाला जैसे अनेक महाघोटाले इन 10 सालों में उजागर हुए। देश पहली बार लाखों करोड़ के घोटालों से रूबरू हुआ जिनके चलते केंद्रीय मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा और सरकार बदनाम हुई।

भ्रष्टाचार की भरमार... अगले पन्ने पर...


देश में बड़े स्तर पर घोटालों की गूंज थी तो ऊपर से निचले स्तर तक भ्रष्टाचार की चर्चा चल रही थी। इस चर्चा ने धीरे-धीरे जन आंदोलन का रूप अख्तियार कर लिया जिसका नेतृत्व अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने किया। उन्हें जनता का भरपूर समर्थन मिला, जो इस सरकार की विदाई के ताबूत में आखिरी कील के रूप में साबित हुआ।

अगले पन्ने पर... जनता पर महंगाई की मार, संप्रग का हाल बेहाल...


वैसे तो मनमोहन सिंह को पूरी दुनिया एक बेहतर अर्थशास्त्री मानती है, लेकिन घरेलू मोर्चे पर उनकी आर्थिक नीतियां इस बार जनता के लिए कमरतोड़ू साबित हुईं। वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ तालमेल बैठाने के चक्कर में वे घरेलू मोर्चे पर फेल होते गए। महंगाई इस कदर बढ़ी कि जनता त्राहि-त्राहि कर उठी और इस सरकार से निजात पाने की ठान बैठी।

मनमोहन की चुप्पी ने बढ़ाई जनता की नाराजगी... अगले पन्ने पर...


मनमोहन सिंह की छवि एक संवादविहीन प्रधानमंत्री की भी रही जिसने उनकी सरकार को काफी नुकसान पहुंचाया। भले ही उनकी नीतियां देश को लंबे समय में फायदा पहुंचाने वाली कही जाती हों और जब दु‍निया मंदी के दौर में थी, तब भारत इससे आसानी से उबर गया हो, लेकिन इनका संदेश वे जनता तक भली-भांति नहीं पहुंचा सके। विरोधियों ने उनके मौन का चुनाव के दौरान मुखर फायदा उठाया। यहां तक कि प्रधानमंत्री कार्यालय को चुनाव प्रचार के दौरान सफाई देनी पड़ी कि मनमोहन अपने कार्यकाल में कई अवसरों पर बोले, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी।

अगले पन्ने पर... भारी पड़ी गठबंधन की मजबूरियां...


‍‍‍गठबंधन सरकार की जो मजबूरियां होती हैं उनसे मनमोहन सरकार भी अछूती नहीं रही। सहयोगी दल जब-तब सरकार के सुचारु संचालन में बाधक बनते रहे और उन्हें साधने और सरकार को बचाए रखने की मजबूरी ने भी सरकार की छवि को बुरी तरह प्रभावित किया। तृणमूल कांग्रेस, राकांपा और राजद जैसे दल और उनके नेता पूरे कार्यकाल के दौरान सरकार के लिए मुसीबतें खड़ी करते रहे।

कमजोर छवि से हुआ नुकसान... अगले पन्ने पर...


पिछले 10 सालों में भारत सरकार की दुनिया में कमजोर सरकार की छवि बनी। चीन की घुसपैठ, पाकिस्तान की ओर से आतंकवादी हमले और सीमापार से घुसपैठ कर भारतीय पक्ष को नुकसान पहुंचाने के मामलों में भारत की ओर से मुंहतोड़ जवाब न दे पाने और भारतीय जनता को अपना पक्ष न समझा पाने की अक्षमता ने भी इस सरकार की छवि को काफी नुकसान पहुंचाया।

कमजोर था प्रचार तंत्र...अगले पन्ने पर...


पिछले 10 सालों में भारत सरकार की दुनिया में कमजोर सरकार की छवि बनी। चीन की घुसपैठ, पाकिस्तान की ओर से आतंकवादी हमले और सीमापार से घुसपैठ कर भारतीय पक्ष को नुकसान पहुंचाने के मामलों में भारत की ओर से मुंहतोड़ जवाब न दे पाने और भारतीय जनता को अपना पक्ष न समझा पाने की अक्षमता ने भी इस सरकार की छवि को काफी नुकसान पहुंचाया।

कमजोर था प्रचार तंत्र...अगले पन्ने पर...


इस बार सोनिया, राहुल और प्रियंका गांधी की भूमिका को लेकर भी सवाल उठते रहे। सोनिया गांधी के‍ विरुद्ध इस बार विदेशी मूल का होने का मामला तो ज्यादा नहीं उछला, लेकिन सरकार को अपने ढंग से काम न करने देने के आरोप जरूर लगे। राहुल ओजस्वी वक्ता तो कभी वैसे भी नहीं रहे, जनता में अपना आकर्षण भी वे अब खो चुके हैं। इसीलिए चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में प्रियंका गांधी को मैदान संभालना पड़ा, लेकिन पति रॉबर्ट वाड्रा के कारण उनकी भी खूब किरकिरी हुई।

गलत फैसलों ने बढ़ाया लोगों का गुस्सा...


मनमोहन सरकार एक ओर अपनी बुरी छवि का बोझा लेकर चल रही थी तो दूसरी ओर अंतिम समय में चुनावी तालमेल में भी उसके निर्णय गलत सा‍बित हुए। मोदी के प्रचार अभियान की आंधी में संप्रग से छिटक रहे दलों को कांग्रेस साध नहीं सकी। इसी के चलते बिहार में रामविलास पासवान मोदी के साथ हो लिए। मोदी से खुन्नस पाले नीतीश कुमार को अपने साथ लेने की कोशिश भी कांग्रेस को भारी पड़ी।