मन्ना डे : तू प्यार का सागर है
सबसे पहले मन्ना डे को इस बात की बधाई कि उन्हें वर्ष 2007 के दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किए जाने का फैसला किया गया है। मन्ना डे इस समय 90 वर्ष के हैं और उन्होंने कई सफल गीत दिए हैं। भारतीय फिल्म संगीत में दिए गए उनके योगदान को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह सम्मान देने में देरी हुई है। वैसे भी मन्ना डे मान-सम्मान के मामले में बदकिस्मत रहे हैं। उन्हें प्रतिभाशाली होने के बावजूद वो सम्मान नहीं मिला, जिसके वे हकदार हैं। आरंभिक जीवन मन्ना डे का पूरा नाम प्रबोधचन्द्र डे है। संगीत में उनकी रूचि अपने चाचा केसी डे की वजह से पैदा हुई। हालाँकि उनके पिता चाहते थे कि वे बडे होकर वकील बने, लेकिन मन्ना डे ने संगीत को ही चुना। कलकत्ता के स्कॉटिश कॉलेज में पढ़ाई के साथ-साथ मन्ना डे ने केसी डे से शास्त्रीय संगीत की बारीकियाँ सीखीं। कॉलेज में संगीत प्रतियोगिता के दौरान मन्ना डे ने लगातार तीन वर्ष तक यह प्रतियोगिती जीती। आखिर में आयोजकों को ने उन्हें चाँदी का तानपुरा देकर कहा कि वे आगे से प्रतियोगिता में भाग नहीं लें। शुरू हुआ संघर्ष 23
वर्ष की उम्र में मन्ना डे अपने चाचा के साथ मुंबई आए और उनके सहायक बन गए। उस्ताद अब्दुल रहमान खान और उस्ताद अमन अली खान से उन्होंने शास्त्रीय संगीत सीखा। इसके बाद वे सचिन देव बर्मन के सहायक बन गए। इसके बाद वे कई संगीतकारों के सहायक रहे और उन्हें प्रतिभाशाली होने के बावजूद जमकर संघर्ष करना पड़ा। ‘तमन्ना’ (1943) के जरिये उन्होंने हिन्दी फिल्मों में अपना सफर शुरू किया और 1943 में ही निर्मित ‘रामराज्य’ से वे पार्श्व गायक बन गए। इस फिल्म में उन्होंने तीन गीत ‘चल तू दूर नगरिया तेरी, अजब विधि का लेख और त्यागमयी तू गई तेरी अमर भावना अमर रही, गाएँ। सचिन दा ने ही मन्ना डे को सलाह दी कि वे गायक के रूप में आगे बढ़ें और मन्ना डे ने सलाह मान ली। धार्मिक फिल्मों के गायक का ठप्पा मन्ना डे ने कुछ धार्मिक फिल्मों में गाने क्या गाएँ उन पर धार्मिक गीतों के गायक का ठप्पा लगा दिया गया। प्रभु का घर (1945), श्रवण कुमार (1946), जय हनुमान (1948), राम विवाह (1949) जैसी कई फिल्मों में उन्होंने गीत गाएँ। इसके अलावा बी-सी ग्रेड फिल्मों में भी वे अपनी आवाज देते रहें। भजन के अलावा कव्वाली और कठिन गीतों के लिए मन्ना डे को याद किया जाता था। इसके अलावा मन्ना डे से उन गीतों को गँवाया जाता था, जिन्हें कोई गायक गाने को तैयार नहीं होता था। धार्मिक फिल्मों के गायक की इमेज तोड़ने में मन्ना डे को लगभग सात वर्ष लगे। खेमेबाजी का शिकार भारतीय फिल्म संगीत में खेमेबाजी उस समय जोरों से थी। सरल स्वभाव वाले मन्ना डे किसी कैम्प का हिस्सा नहीं थे। इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। उस समय रफी, किशोर, मुकेश, हेमंत कुमार जैसे गायक छाए हुए थे और हर गायक की किसी न किसी संगीतकार से अच्छी ट्यूनिंग थी। साथ ही राज कपूर, देव आनंद, दिलीप कुमार जैसे स्टार कलाकार क्रमश: मुकेश, किशोर कुमार और रफी जैसे गायकों से गँवाना चाहते थे, इसलिए भी मन्ना डे को पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाते थे। मन्ना डे की प्रतिभा के सभी कायल थे, लेकिन साइड हीरो, कॉमेडियन, भिखारी, साधु पर कोई गीत फिल्माना हो तो मन्ना डे को याद किया जाता था। कहा तो ये भी जाता था कि मन्ना डे से दूसरे गायक भयभीत थे इसलिए वे नहीं चाहते थे कि मन्ना डे को ज्यादा अवसर मिले। धीरे-धीरे मिली सफलता ’आवारा’ में मन्ना डे द्वारा गया गीत ‘तेरे बिना ये चाँदनी’ बेहद लोकप्रिय हुआ और इसके बाद उन्हें बड़े बैनर की फिल्मों में अवसर मिलने लगे। प्यार हुआ इकरार हुआ (श्री 420), ये रात भीगी-भीगी (चोरी-चोरी), जहाँ मैं चली आती हूँ (चोरी-चोरी), मुड-मुड़ के ना देख (श्री 420) जैसे अनेक सफल गीतों में उन्होंने अपनी आवाज दी। मन्ना डे जो गाना मिलता उसे गा देते। ये उनकी प्रतिभा का कमाल है कि उन गीतों को भी लोकप्रियता मिली। कठिन गीतों के अलावा वे हल्के-फुल्के गीत मेरी भैंस को डंडा क्यों मारा (पगला कहीं का), जोड़ी हमारी जमेगा कैसे जानी (औलाद) भी गाते रहें और ये गीत भी हिट हुए। कोई शिकायत नहीं सरल स्वभाव वाले, सादगी पसंद मन्ना डे ने इस बात की कभी शिकायत नहीं की कि उन्हें पर्याप्त अवसर नहीं मिले या उनकी प्रतिभा का उचित सम्मान नहीं हुआ। उन्हें किसी बात का मलाल नहीं है। इस समय वे अपनी जिंदगी की शाम बेंगलुरु में अपनी बेटी शुमिता के यहाँ बिता रहे हैं। मान-सम्मान उन्हें श्रेष्ठ गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार (दो बार), पद्मश्री, लता मंगेशकर पुरस्कार जैसे कई सम्मान मिले हैं।