गुलजार इस समय 73 वर्ष के हैं और अभी भी अपने काम के जरिए नई ऊँचाइयाँ छू रहे हैं। ऑस्कर अवॉर्ड इसकी मिसाल है। रहमान और गुलजार को संयुक्त रूप से बेस्ट म्यूजिक (सांग) श्रेणी का ऑस्कर मिला है। उम्र के इस दौर में भी वे 'कजरारे-कजरारे' जैसे गीत लिख रहे हैं, जिन पर युवा वर्ग थिरकता है। युवा वर्ग की पसंद के नाम पर उन्होंने फूहड़ता को नहीं अपनाया।
हिन्दी सिनेमा में फिल्मकार-गीतकार-संवाद लेखक और साहित्यकार गुलज़ार जैसा व्यक्तित्व रखने वाले अँगुलियों पर गिने जा सकते हैं। सफेद झक कुरता और पायजामा। चेहरे पर मुस्कान और मृदुभाषी। हिन्दी और उर्दू के साफ उच्चारण। कहीं से पंजाबीपन की झलक तक नहीं। गुलजार से मिलो तो ऐसा लगता है कि मिलते रहो। बातों का सिलसिला कभी खत्म न होने पाए, ऐसी इच्छा होती है।
गुलज़ार भले ही शख्स के रूप में एक हों, लेकिन उनके हजारों चेहरे हैं और उन्होंने अपने हजारों चेहरों से लाखों प्रशंसक-दर्शकों को अपने से जोड़ा है। आइए, उनके अनछुए पहलुओं के पन्ने पलटें-
दिल्ली की सब्जी मंडी गुलज़ार ने भारत-पाक विभाजन की त्रासदी को झेला है। नजदीक से देखा और भोगा है। झेलम जिले के दीना गाँव में 18 अगस्त 1936 को जन्मे गुलज़ार अपने पिता की दूसरी पत्नी की इकलौती संतान हैं। माँ उन्हें तब छोड़कर चली गई जब वे दूध पीते बच्चे थे। माँ के आँचल की छाँव और पिता का दुलार भी नहीं मिला। बचपन दिल्ली की सब्जी मंडी में ऐसे बीता, जैसे वे खुद एक सब्जी बन गए हों।
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पेट्रोल पम्प पर शायरी नौ भाई-बहन में चौथे नंबर वाले गुलज़ार को पिता और बड़े भाई ने पढ़ाने से मना किया तो उन्होंने पेट्रोल पंप पर काम कर पढ़ाई का खर्चा निकाला। पेट्रोल की हवा में लहराती तेज खुशबू के साथ उन्होंने अपनी शायरी को कागज पर उतारना शुरू किया। उर्दू/ पर्सियन/ बंगाली के बाद उन्होंने हिन्दी सीखी। रवीन्द्रनाथ ठाकुर और शरत बाबू की रचनाओं के उर्दू अनुवाद चारों तरफ पसंद किए गए। यही वजह है कि गुलज़ार की फिल्मों में सीन के संयोजन पर बांग्ला प्रभाव साफ दिखाई देता है।
मोरा गोरा अंग लई ले... दिल्ली से बम्बई आने के बाद गुलज़ार को शायरों-साहित्यकारों-नाटककारों का मजमा आसानी से मिल गया। इन सबकी मदद से वे गीतकार शैलेन्द्र और संगीतकार सचिनदेव बर्मन तक पहुँचे। उन दिनों वे फिल्म ‘बंदिनी’ के गीतों को सुरबद्ध कर रहे थे। शैलेन्द्र की सिफारिश पर सचिन दा ने गुलज़ार को एक गीत लिखने को कहा। गुलज़ार ने पाँच दिनों में गीत लिखकर दिया। ‘मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे।‘ सचिन दा को गीत पसंद आया। उन्होंने अपनी आवाज में गाकर बिमल राय को सुनाया। गीत ओके हो गया। गुलज़ार के बांग्ला ज्ञान को समझते हुए बिमल राय उन्हें अपने होम प्रोडक्शन में स्थायी रखना चाहते थे, लेकिन गुलज़ार को गीतकार होकर रह जाना मंजूर नहीं था।
ऋषि दा का आशीर्वाद बिमल राय की मौत के बाद संगीतकार हेमंत कुमार ने सबसे अच्छा काम यह किया कि उनकी यूनिट के अधिकांश सदस्यों को अपने प्रोडक्शन में नौकरी पर रख लिया। गुलज़ार ने हेमंत कुमार की फिल्म ‘बीवी और मकान’, ‘राहगीर’ तथा ‘खामोशी’ के लिए गीत लिखे। ऋषिकेश मुखर्जी ने बिमल राय की फिल्म का सम्पादन और सह-निर्देशन किया था। वे भी स्वतंत्र फिल्म निर्देशक बन गए और ‘आशीर्वाद’ फिल्म के संवाद के साथ-साथ गीत भी गुलज़ार को ही लिखना पड़े, क्योंकि शैलेन्द्र के पास समय नहीं था। इस तरह गुलज़ार को बिमल दा के स्कूल के बाद ऋषि दा के स्कूल में काम करने का मौका मिला। गुलज़ार ने उनके साथ आनंद, गुड्डी, बावर्ची और नमक हराम जैसी सफल फिल्मों में काम किया। साथ ही निर्माता एन.सी. सिप्पी से ऐसे सम्बन्ध बने कि आगे चलकर सिप्पी-गुलज़ार ने अनेक फिल्में बनाईं और दर्शकों का खूब मनोरंजन किया।
मीना का साया : गुलज़ार की माया
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मीना कुमारी और गुलज़ार के रिश्ते भावनाओं से भरे हुए रहे हैं। मीना ने मौत से पहले अपनी तमाम डायरी और शायरी की कापियाँ गुलज़ार को सौंप दी थीं। गुलज़ार ने उन्हें संपादित कर बाद में प्रकाशित भी कराया था। मीना-गुलज़ार की भेंट फिल्म ‘बेनज़ीर’ के सेट पर हुई थी। बिमल राय निर्देशक थे और गुलज़ार सहायक थे। शॉट रेडी होने पर स्टार को कैमरे तक लाने की जिम्मेदारी उनकी थी। यहीं से दोस्ती में अपनापन पनपता चला गया। बाद में गुलज़ार जब स्वतंत्र फिल्म निर्देशक बने तो फिल्म ‘मेरे अपने’ की मुख्य भूमिका गुलज़ार ने मीना को सौंपी। 1972 में मीना चल बसीं। ‘मेरे अपने’ कुछ समय बाद प्रदर्शित हुई और गुलजार स्वतंत्र फिल्म निर्देशक बन गए। आज भी गुलज़ार के ऑफिस में दीवार पर ट्रेजेडी क्वीन मीना कुमारी का चित्र बोलता-सा नजर आता है।
सफलता की आवाजें गुलज़ार ने ‘मेरे अपने’ के बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक के बाद एक अलग-अलग विषयों पर लीक से हटकर वे फिल्में बनाते रहे। ‘कोशिश’ फिल्म में गूँगे-बहरे माता-पिता की इच्छा है कि उनका बेटा उन जैसा नहीं हो। ‘आँधी’ फिल्म में इंदिरा गाँधी के जीवन की एक झलक है। मौसम, किनारा, खुशबू, अंगूर, नमकीन, इजाजत, लेकिन, लिबास और माचिस जैसी फिल्मों में उन्होंने इंद्रधनुषी रंग बिखेरे हैं। उनकी फिल्मों की विशेषताएँ ये हैं- * फिल्म में परफेक्शन होना जरूरी है। * उनके पात्र भावुक और संवेदनाओं से भरे होते हैं। * स्त्री-पुरुष संबंधों की बारीकियाँ गुलज़ार की अपनी विशेषता है। * उनकी फिल्मों के गीत कथानक के तानेबाने में बुने होते हैं। * कोई रिश्ता कभी खत्म नहीं होता, कोई रिश्ता कभी मरता नहीं है- यह दर्शन है गुलजार का।
गुलज़ार के गीत गुलज़ार ने कई फिल्मों में गीत लिखे हैं। उनके गीत लिखने का अंदाज आम गीतकारों से जुदा है। संगीतकार आरडी बर्मन और गुलज़ार की जुगलबंदी ने अनेक हिट गीतों को जन्म दिया जो आज भी चाव से सुने जाते हैं। इस समय गुलज़ार एक गीतकार के रूप में सक्रिय हैं।
प्रमुख किताबें * चौरस रात (लघु कथाएँ, 1962) * जानम (कविता संग्रह, 1963) * एक बूँद चाँद (कविताएँ, 1972) * रावी पार (कथा संग्रह, 1997) * रात, चाँद और मैं (2002) * रात पश्मीने की * खराशें (2003)