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Last Updated : शनिवार, 25 अक्टूबर 2014 (15:16 IST)

मोबाइल के जमाने में लैंडलाइन की उम्मीद!

मोबाइल के जमाने में लैंडलाइन की उम्मीद! - मोबाइल के जमाने में लैंडलाइन की उम्मीद!
- सौमि‍त्र रॉय

नि‍जी बैंक में काम करने वाले प्रवीण मि‍श्रा यकीनी तौर पर मानते हैं कि‍ आने वाला कल लैंडलाइन फोन का होगा। मोबाइल संचार के मौजूदा समय में यह धारणा हैरत में डालने वाली हो सकती है। लेकि‍न खराब वॉइस क्वालि‍टी और कॉल ड्रॉप से परेशान कि‍सी भी मोबाइल उपभोक्ता से पूछें तो यही जवाब मि‍लेगा।

भारत में मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या 90 करोड़ से ज्यादा हो गई है। इसमें कोई शक नहीं कि‍ संचार का यह फि‍लहाल सबसे सुवि‍धाजनक साधन है। महज 5 साल पहले 39 करोड़ से कुछ ज्यादा ही मोबाइलधारक थे। तकरीबन 131 फीसदी की यह बढ़त भारत की छवि‍ को एक ऐसे देश के रूप में सामने रखती है, जहां मोबाइल संचार का तेजी से फैलाव हो रहा है। नि‍स्संदेह यह गर्व करने वाली बात है कि‍ मोबाइल उपयोगकर्ताओं के मामले में हमारा देश चीन के बाद दूसरे नंबर पर है। इस आंकड़े की सालाना औसत बढ़त के आधार को देखें तो ब्रि‍क देशों में भी हम चीन से थोड़े ही पीछे हैं।

हालांकि‍ तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि‍ जि‍स तेजी से मोबाइलधारकों की संख्या बढ़ रही है, उतनी तेजी से मोबाइल टॉवर नहीं बढ़ रहे। मोबाइल ऑपरेटरों के देशव्यापी एसोसि‍एशन के आंकड़े बताते हैं कि‍ 2010 से देश में 41 प्रति‍शत सालाना की दर से मोबाइल टॉवर बढ़े हैं। यह आधि‍कारि‍क आंकड़ा नहीं है, क्योंकि ट्राई के जरि‍ए हर चौथे महीने में सामने आने वाले संचार संबंधी आंकड़ों में इस बारे में कोई सूचना नहीं होती। अलबत्ता, ट्राई के आंकड़े सेवाओं की गुणवत्ता के बारे में जरूर इशारा करते हैं, लेकि‍न इससे यह नहीं पता चलता कि‍ 2 फीसदी से ज्यादा कॉल ड्रॉप के मामलों में कि‍स ऑपरेटर के खि‍लाफ क्या कार्रवाई की गई। दरअसल, देश में मोबाइल संचार की समूची व्यवस्था उपभोक्ताओं के बजाय सेवा प्रदाताओं के माकूल है।

प्रवीण बताते हैं कि‍ उन्होंने बेहद जरूरी वक्त में कॉल ड्रॉप और वॉयस क्वालि‍टी की शि‍कायत अपने सेवा प्रदाता के नजदीकी केंद्र पर जाकर कई बार की, पर कोई फायदा नहीं हुआ। हारकर उन्होंने लैंडलाइन का सहारा लि‍या। उनका कहना एकदम दुरुस्त है कि‍ लैंडलाइन में कि‍सी तरह की खराबी की कम से कम शि‍कायत करने का इंतजाम तो है।

इससे उलट सरकार ने मोबाइल ऑपरेटरों की खराब सेवाओं से हलाकान लोगों के लि‍ए नंबर पोर्टेबि‍लि‍टी का वि‍कल्प दि‍या है। फि‍र भी इससे मसला सुलझता नहीं है, क्योंकि कोई भी सेवा प्रदाता हमें यह लि‍खि‍त गारंटी नहीं देता कि‍ उसका नेटवर्क प्रभावि‍त नहीं होगा या फि‍र उपभोक्ता को कॉल ड्रॉप या खराब वॉयस क्वालि‍टी की समस्या नहीं आएगी। एक और बात पारदर्शिता की है। आप गूगल पर मोबाइल सेवा संबंधी शि‍कायतों के बारे में सर्च करें। पता चलेगा कि‍ अलग-अलग फोरम में तकरीबन हर मोबाइल ऑपरेटर के खि‍लाफ सैकड़ों शि‍कायतें की गई हैं, पर ये शि‍कायतें आपको संबंधि‍त ऑपरेटर, दूरसंचार मंत्रालय या ट्राई की वेबसाइट पर नहीं मि‍लेंगी। आपको एक भी ऐसा ऑपरेटर नहीं मि‍लेगा जि‍सने अपनी वेबसाइट पर मार्केटिंग के तमाम फंडों के बीच कोई कोना शि‍कायतों के लि‍ए भी छोड़ रखा हो। सेवाओं की गुणवत्ता के मामले में ट्राई के आंकड़े ऑपरेटरों के पास आने वाली शि‍कायतों की जानकारी पर आधारि‍त हैं। हमें इन पर गंभीरता से संदेह कि‍या जाना चाहि‍ए, क्योंकि ये एकतरफा सूचनाओं पर केंद्रि‍त हैं, नि‍ष्पक्ष नहीं हैं।

इसी साल 21 अगस्त को ट्राई ने अचंभि‍त कर देने वाले फैसले में मोबाइल और बेसि‍क टेलीफोन सेवाओं के मामले में गुणवत्ता मानक को 5 फीसदी से बढ़ाकर 7 फीसदी कर दि‍या है। ट्राई की दलील थी कि‍ प्राकृति‍क आपदाओं, वि‍कास या नि‍र्माण कार्यों के चलते भूमि‍गत केबल कटने जैसे मामलों के कारण सेवाओं की गुणवत्ता प्रभावि‍त होती है। ऑपरेटरों के पास शि‍कायतों का अंबार लग जाता है। इससे शि‍कायतें दूर करने पर समय लगता है। अगर प्राकृति‍क आपदा के तर्क को छोड़ दें तो इस सवाल का जवाब कि‍सी के पास नहीं है कि‍ बाकी नुकसान का खामि‍याजा उपभोक्ता क्यों भुगते? यह तो वि‍कास कार्यों में भागीदार वि‍भि‍न्न एजेंसि‍यों और टेलीकॉम ऑपरेटरों के बीच आपसी समन्वय का मसला है। ट्राई ने इन रुकावटों को दूर करने के बजाय गुणवत्ता मानक को ही नीचे कर दि‍या। इस माह आंध्रप्रदेश के तटीय हि‍स्से में आए हुदहुद तूफान के बाद 4 दि‍न तक मोबाइल नेटवर्क न सुधरने के लि‍ए राज्य के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने मोबाइल ऑपरेटरों की बैठक बुलाकर उन्हें जमकर लताड़ा था।

लैंडलाइन और मोबाइल फोन में बुनि‍यादी फर्क यह है कि‍ मोबाइल को आप जेब में रखकर कहीं भी जा सकते हैं। यह बेतार संपर्क पर चलता है। इससे आवाज और डाटा यानी इंटरनेट दोनों चलाए जा सकते हैं, लेकि‍न टॉवरों के साथ स्पेक्ट्रम की कमी के चलते सेवाओं की गुणवत्ता पर असर पड़ रहा है। भारत में मोबाइल ऑपरेटरों को सरकार औसतन 5-10 मेगाहर्ट्‍ज के स्पेक्ट्रम आवंटि‍त कर रही है। यह दक्षि‍ण एशि‍या ही नहीं, बल्कि पूरे एशि‍या में सबसे कम है। बाकी देशों में मोबाइल ऑपरेटरों के पास 20-30 मेगाहर्ट्‍ज के स्पेक्ट्रम हैं। नि‍स्संदेह यह सरकार की नीति‍यों की खामी है। इसका सबसे बड़ा खामि‍याजा त्योहारों और महत्वपूर्ण पर्वों पर शहरी उपभोक्ताओं को भुगतना पड़ रहा है, क्योंकि‍ तब आवाज और डाटा का ट्रैफि‍क बहुत ज्यादा होता है। इस्तेमाल में सुवि‍धाजनक और कई फीचर्स से लैस होने के कारण मोबाइल का प्रसार ग्रामीण क्षेत्रों में भी बहुत तेजी से हो रहा है। इसके बावजूद बढ़ते ट्रैफि‍क और नेटवर्क ‘जाम’ जैसे हालात से बचने के लि‍ए ट्राई के पास फि‍लहाल बहुत ज्यादा वि‍कल्प नहीं हैं।

सरकार ने दो कंपनि‍यों के वि‍लय की सूरत में मार्केट कैप को 35 से बढ़ाकर 50 फीसदी तो कि‍या है, लेकि‍न स्पेक्ट्रम के व्या‍पार और उसे साझा करने के बारे में उसकी नीति‍यां स्पष्ट नहीं हैं। ऐसी स्थि‍‍ति‍ में प्रवीण मि‍श्रा जैसे बहुतेरे उपभोक्ताओं के पास लैंडलाइन का वि‍कल्प‍ अपनाने के दूसरा कोई चारा नजर नहीं आता।