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Written By शरद सिंगी
Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (19:20 IST)

स्कॉटलैंड के परिणाम विश्व की मंशा के अनुकूल

स्कॉटलैंड के परिणाम विश्व की मंशा के अनुकूल -
स्कॉटलैंड के जनमत संग्रह के परिणाम आने के बाद चिंतित विश्व ने एक राहत की सांस ली है। स्कॉटलैंड की जनता ने पृथकतावादियों के इरादों को एक सिरे से नकार दिया है। विश्व व्यग्र था जानने को कि क्या स्कॉटलैंड की जनता अपने तीन सौ वर्षों के साझा इतिहास को ताक में रखकर इंग्लैंड को तलाक दे देगी? विश्व के अन्य देशों की रुचि इन परिणामों में इसलिए भी थी क्योंकि उन्हें डर था कि इस तरह का मत संग्रह कोई नई परिपाटी न डाल दे। इस समय विश्व के कई देश अलगाववादियों से जूझ रहे हैं। यूरोप में तो शायद ही ऐसा कोई देश होगा जिसमें पृथकतावादी आंदोलन नहीं चल रहे हैं। इन देशों में जर्मनी, फ्रांस, इटली, स्पेन, बेल्जियम जैसे देश भी शामिल हैं।
इन देशों के पृथकतावादी बड़ी उच्चाकांक्षा से इस मतसंग्रह पर नज़र रखे हुए थे, यहां तक कि उन्होंने इस जनमत संग्रह का आकलन करने के लिए अपने अध्ययन दल भी स्कॉटलैंड भेज दिए थे। कनाडा के क्यूबेक से भी एक दल आया हुआ था। यूरोप में सारे राष्ट्र वैसे ही छोटे हैं और उनको कबीलों में परिवर्तित कर देने की यह प्रवृत्ति विश्व में एक नई समस्या को जन्म देगी। स्कॉटलैंड का अलग हो जाना केवल भौगोलिक सीमाओं का पुनर्निर्धारण ही नहीं था; अर्थव्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था के साथ दिलों के भी टुकड़े होते। 
 
अर्थव्यवस्थाएं जितनी छोटी होंगी उतनी ही अस्थिर होंगीं। इंग्लैंड की मज़बूत मुद्रा पौंड को छोड़कर मुद्रा बाजार में अपनी नई मुद्रा को फेंकना इतना आसान नहीं है, वह भी तब जब राष्ट्र की शुरुआत कर्ज के साथ हो रही हो। यूके सरकार पर कर्ज का बोझ है जो बंटवारे के साथ बांटा जाता। चूंकि विभाजन का पाप स्कॉटलैंड की जनता के सिर पर आता, अतः इंग्लैंड की जनता से स्कॉटलैंड पर किसी तरह की रहम की उम्मीद करना बेमानी होता। उसी प्रकार पौंड भी एक विभाजित देश की मुद्रा हो जाती तो विश्व बाजार में उसकी साख को भी धक्का लगता।  
 
ज़ाहिर है पूरा विश्व इस विभाजन के विरोध में था किन्तु कहीं इसे आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न समझ लिया जाए इस डर से कोई भी देश खुलकर किसी भी पक्ष के समर्थन या विरोध में नहीं बोला। स्मरण रहे कि सोवियत संघ, टुकड़े होने से पहले एक ऐसी महाशक्ति था जो अमेरिका से बराबरी की टक्कर में खड़ा होता था किन्तु टुकड़े होने के बाद न तो कोई छोटा राष्ट्र ही स्थिर या शक्तिशाली हो सका और न ही रूस का रौब विश्व में पहले जैसा रहा। प्रजातंत्र में एक चुनाव में हुई गलती को अगले चुनावों में सुधारा जा सकता है किन्तु स्कॉटलैंड का यह जनमत संग्रह किसी आम चुनाव की तरह नहीं है जिसमें अगले चुनावों में अपने निर्णय को बदलने का विकल्प है। एक बार बंटवारा हो जाता तो फिर पीछे जाने के मार्ग भी बंद हो जाते। 
 
प्रश्न यह है कि आखिर इंग्लैंड सरकार को यह आत्मघाती कदम उठाने की जरूरत क्यों पड़ी। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून को इस दुस्साहस का श्रेय जाता है, जिन्होंने अलगाववादियों की मांग पर परिणाम की चिंता किए बगैर अपने अति आत्मविश्वास के अतिरेक में जनमत संग्रह की घोषणा कर डाली। पृथकतावादियों ने बड़ी चतुराई से इस गलती को भुनाया और बड़े व्यवस्थित तरीके से स्वतंत्र स्कॉटलैंड के पक्ष में अपना अभियान चलाया। जब जनमत संग्रह पूर्व के सर्वेक्षणों के नतीजे पृथकतावादियों के पक्ष में आने लगे तब लंदन में बैठे नेताओं के पैरों के तले से जमीन खिसकी। आनन-फानन में पहुंचे स्कॉटलैंड। विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से स्कॉटलैंड की जनता को विभाजन के संत्रास से अवगत कराया गया तथा साथ में बने रहने के लिए कई लुभावने वादे भी किए गए। 
 
भारत से अधिक कौन समझ सकता है कि अनेकता में कितनी शक्ति है। खंडित राष्ट्र की शक्तियां भी खंडित हो जाती हैं। समाज का विकास केवल एक सोच से नहीं होता। मतभिन्नता जागरूक समाज की पहचान है। जिस राष्ट्र में सभी धर्मों, वर्गों और प्रजातियों का बड़ी समन्वयता से समायोजन होता है उस राष्ट्र का सम्पूर्ण विकास निश्चित है। एक कौम और एक विचार वाले राष्ट्र का सोच भी सीमित हो जाता है और तरक्की भी। यूरोप के इस अतिशिक्षित समाज की बुद्धि कुंद हो गई लगती है, जिसे लगता है कि अलग होने पर वे अपने देश को अधिक विकसित और संपन्न कर पाएंगे। वृक्ष से टूटकर कोई शाखा कभी विकसित हो पाई है भला? डर था कि कहीं स्कॉटलैंड की जनता सुनहरे भविष्य के छलावे में आकर अपने बेहतर वर्तमान से भी हाथ न धो बैठे। 
 
इस जनमत संग्रह के पश्चात विश्व के मानचित्र पर इंग्लैंड का नक्शा तो नहीं बदला किन्तु इंग्लैंड और स्कॉटलैंड के संबंध अब फिर से पुराने जैसे होने में बहुत समय लगेगा। इंग्लैंड के नेताओं को समझना होगा कि वे एक इतिहास की बड़ी त्रासदी से निकलकर आए हैं और पुनः इस त्रासदी से न गुजरना पड़े इसलिए उन्हें स्कॉटलैंड के प्रति अपनी सोच में व्यापक परिवर्तन करने होंगे। समझना होगा कि स्कॉटलैंड, इंग्लैंड का उपनिवेश नहीं है। एक समय दोनों देशों ने मिलकर भारत सहित आधी दुनिया पर राज्य किया था। 
 
पृथकतावादी पार्टी के नेता और स्कॉटलैंड के प्रथम मंत्री अलेक्स सालमोंड ने अपनी हार को स्वीकार करते हुए कहा कि वे बहुमत का आदर करते हैं किन्तु आंदोलन के समर्थन में मिले मतों पर खुशी जाहिर की। वहीं इंग्लैंड के प्रधानमंत्री जिनकी कुर्सी दांव पर थी, उत्साहित हैं। इतिहास में उनका नाम हो गया क्योंकि उन्होंने समस्या को टालने के बजाय साहस के साथ उसका सामना किया और आने वाले कई दशकों तक के लिए इस समस्या को दफ़न कर दिया। यह दोहराया जाना प्रासंगिक होगा कि पृथकतावाद कहीं भी और किसी भी रूप में हो, घातक तथा अहितकर है राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सभी दृष्टिकोणों से।