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Last Updated : शनिवार, 3 सितम्बर 2016 (14:07 IST)

कितनी संत हैं, संत मदर टेरेसा

कितनी संत हैं, संत मदर टेरेसा - Saint Mother Teresa, Catholicism, Vatican City
बॉन से 
मदर टेरेसा के सेवा कार्यों पर किसी भी संदेह नहीं है। इसीलिए उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। शांति का नोबेले पुरस्कार भी उन्हें मिला। हालांकि कुछ लोग उनके सेवा कार्यों पर भी यदा-कदा सवाल उठाते रहे हैं। ...लेकिन जिन चमत्कारों के आधार पर उन्हें संत घोषित किया जा रहा है, वे ही सवालों के दायरे में हैं। इन्हीं प्रश्नों को उठाता यह आलेख मदर टेरेसा के जीवन के कुछ अन्य पहलुओं पर भी प्रकाश डालता है। हालांकि इस आलेख का उद्देश्य किसी धर्म विशेष की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है। यह आलेख लेखक के निजी विचार हैं। 
 
भारत की ग़रीबी ने मदर टेरेसा को उनके जीवनकाल में ही पूजनीय देवी बना दिया। दुनिया ने उन्हें भारत-रत्न और नोबेल शांति पुरस्कार जैसे सम्मानों से ढक दिया। और अब, वे कैथलिक ईसाइयों की संत भी कहलाएंगी।  इस रविवार, 4 सितंबर को, रोम के बीचोबीत स्थित वैटिकन सिटी में एक ऐसा धार्मिक समारोह होगा, जिसका भारत से सीधा संबंध है। भारतीय समय के अनुसार दोपहर डेढ़ बजे शुरू होने वाले इस समारोह में कैथलिक ईसाइयों के सर्वोच्च धर्मगुरु, पोप फ्रांसिस, प्रभु यीशू की प्रर्थना के साथ 'दीनहीनों का फ़रिश्ता' कहलाने वाली मदर टेरेसा को कैथलिक संप्रदाय का संत घोषित करेंगे। दुनिया-भर के अनेक रेडियो और टेलीविज़न केंद्र इस अनुष्ठान का सीधा प्रसाण करेंगे।
कैथलिक ईसाई संप्रदाय में कोई संत, समय के साथ, उसी तरह पूजनीय बन जाता है, जिस तरह हिंदू धर्म में देवी-देवता। कैथलिक संतों की संख्या भी लाखों में न सही, तब भी हज़ारों में तो पहुंचती ही होगी। कैथलिक मानते हैं कि उनके संतों की सिफ़ारिश परमपिता परमात्मा अधिक ध्यान से सुनते हैं और उसी के अनुसार आम लोगों के दुख-दर्द दूर करते हैं। पोप फ्रांसिस से पहले, पोप जॉन पॉल द्वितीय ने, अपने कार्यकाल में 1338 लोगों को मरणोपरांत 'धन्य' और 482 को 'संत' के तौर पर पूजनीय बना दिया। उन्होंने अकेले ही उससे दुगुने लोगों को 'संत' घोषित किया, जितने पिछले 400 वर्षों के सभी पोप मिलकर भी नहीं कर पाए।
 
पोप परमात्मा का प्रतिनिधि : पोप को ही धरती पर परमात्मा का प्रतिनिधि माना जाता है। पोप द्वारा किसी कैथलिक ईसाई को 'धन्य' घोषित किए जाने का मतलब है कि वह व्यक्ति अपनी मृत्यु के बाद एक क्षेत्र विशेष के – जैसे कि भारत के – और 'संत' घोषित किए जाने पर सारी दुनिया के कैथलिकों के लिए पूजनीय बन गया है। दोनों सम्मानों के लिए उपयुक्त धर्मात्माओं की जांच-परख करने की एक लंबी प्रक्रिया है। पिछली सदी में 'संत' घोषित होने से पहले 'धन्य' घोषित होने की प्रक्रिया शुरू होने में ही मरणोपरांत कम से कम पांच वर्ष लग जाते थे।
  
किंतु, पोप जॉन पॉल द्वितीय ने मदर टेरेसा को 'धन्य' घोषित करने की प्रक्रिया 1997 में उनकी मृत्यु के दो वर्ष बाद ही शुरू करवा दी और 2003 में उन्हें 'धन्य' घोषित भी कर दिया। वैसे, सबसे कम समय में 'संत' कहलाने का कीर्तिमान स्वयं पोप जॉन पॉल द्वितीय का ही हैः 2005 में उनकी मृत्यु के बाद उन्हें 'धन्य' घोषित करने की प्रक्रिया केवल 87 दिनों बाद ही शुरू कर दी गई और अप्रैल 2014 में वे 'संत' बन भी गए। भावी 'संतों' की पहचान के लिए आवश्यक कथित 'चमत्कारों' की संख्या भी, पोप जॉन पॉल द्वितीय ने, चार से घटाकर दो कर दी थी। इसका उन्हें तो लाभ मिला ही, अब मदर टेरसा को भी लाभ मिल रहा है। 
 
'फ़ास्ट ट्रैक' दैवीय नीति : कैथलिक चर्च के लिए लिशेष लाभकारी नामधारियों को उनकी मृत्यु के बाद तेज़ी से पदोन्नति देकर उन्हें ईसाइयों का देवी-देवता बनाने की इस 'फ़ास्ट ट्रैक' नीति का ही परिणाम है कि छोटे कद की दुबली-पतली मदर टेरेसा ने, अपने निधन के 19 वर्षों के भीतर ही, 'संत' कहलाने का वह लंबा सफर पूरा कर लिया, जिसे पूरा करने में उनके कई पूर्वगामियों को सौ वर्ष तक लग जाते थे। मदर टेरेसा का जन्म, 26 अगस्त 1910 को, आज के मेसेडोनिया की राजधानी स्कोप्ये में रहने वाले एक अल्बानियाई ईसाई परिवार में हुआ था। असली नाम था अग्नेस गोंजे बोयाशियू। 
क्या है 'मरने वालों का घर'.... पढ़ें अगले पेज पर....
 

बचपन से ही वे ईसाई मिशनरियों (धर्मप्रचारकों) के जीवन के बारे में कथा-कहानियों और उस समय अंग्रेज़ों की गुलामी कर रहे भारत में उनकी कथित सेवाओं पर फ़िदा होने लगी थीं। 17 साल की आयु में ही घर छोड़ दिया। आयरलैंड में अंग्रेज़ी सीखी। दिसंबर 1928 में दार्जिलिंग के एक ईसाई मठ में पहुंचीं। पास के ही सेंट टेरेसा स्कूल में पढ़ाने भी लगीं। मई 1931 में वहीं उन्होंने अपनी पहली 'धर्म-शपथ' ली। उसी समय ईसाई मिशनरियों की एक संरक्षक, संत थेरेस दे लिसियू के पुकार के नाम 'थेरेस' को अपनाते हुए अपना नाम सिस्टर 'तेरेसा' रख लिया. 'तेरेसा' अंग्रेज़ी में 'टेरेसा' बन गया और किसी समय 'सिस्टर' के बदले उसके साथ 'मदर' शब्द भी जुड़ गया।  
 
तन-मन से धर्मप्रचारक : मदर टेरेसा तन-मन से एक ईसाई नन, यानी धर्मप्रचारक (मिशनरी) थीं। 1948 में उन्होंने भारत की नागरिकता ले ली। साथ ही नीले किनारे वाली सफ़ेद साड़ी पहनना और गरीबों के दुख-दर्द सुनते हुए उनके बीच ईसाई धर्म का प्रचार करना शुरू कर दिया। अक्टूबर 1950 में उन्हें वैटिकन से अपनी एक अलग धर्मप्रचारक मंडली (ऑर्डर) बनाने की अनुमति मिली। उसी के बल पर उन्होंने 'मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी' नाम के अपने एक अलग मिशन की स्थापना की और 1952 में, कलकत्ता के परित्यक्त कालीघाट मंदिर में अपना पहला सेवाश्रम खोला। उसे नाम दिया 'निर्मल हृदय।' लोग उसे 'मरने वालों का घर' कहना अधिक पसंद करते हैं। 
 
बाद में नितांत ग़रीब बीमारों, अनाथ बच्चों और दुखियारी महिलाओं के लिए भी इसी तरह के सेवाश्रम खोले गए। 1971 में बीबीसी टेलीविज़न ने कलकत्ता के मरणासन्न दीनहीनों के लिए मदर टेरेसा की सेवाओं को महिमामंडित करती एक ऐसी फ़िल्म प्रसारित की, जिसने उन्हें जल्द ही पश्चिमी जगत का एक नया चहेता बना दिया। फ़िल्म के निर्माता मैल्कम मगरिज, मदर टेरेसा के एक 'दिव्य चमत्कार' से ऐसे प्रभावित हुए कि खुद भी कैथलिक बन गए। 
चमत्कार इतना-भर था कि 'निर्मल हृदय' में फ़िल्मांकन के समय रोशनी इतनी कम थी कि मगरिज को लगा कि फ़िल्म के इस हिस्से में तो कुछ दिखाई ही नहीं पड़ेगा। लेकिन, लंदन लौटकर फ़िल्म का संपादन करते समय उन्होंने और उनके कैमरामैन केन मैकमिलन ने पाया कि सब कुछ बिल्कुल ठीक था। कोई कमी नहीं थी। मगरिज ने कहा, 'यह दैवीय प्रकाश है, मदर के शरीर से निकला दिव्य प्रकाश।'' कैमरामैन मैकमिलन का बाद में कहना था कि ऐसा किसी रहस्यमय दिव्य प्रकाश के करण नहीं, बल्कि इस कारण हुआ कि उन्हें "बीबीसी से कोडक कंपनी का एक ऐसा नया फ़िल्म-रोल मिला था, जिसे उन्होंने पहले आजमाया नहीं था" और जो उससे पहले की फ़िल्मों की अपेक्षा कम रोशनी में भी कहीं बेहतर परिणाम देता था। 
अगले पेज पर पढ़ें... पहले और दूसरे चमत्कार की सच्चाई....

पहला चमत्कार : कह सकते हैं कि इस तरह के अंधविश्वासी चमत्कारों का ही परिणाम है कि मरणोपरांत 'धन्य' और 'संत' कहलाने के लिए जिन दो तथाकथित दैवीय 'चमत्कारों' का भवसागर पार करना होता है, उसे मदर टेरेसा ने चुटकी बज़ाते पार कर लिया। उनका देहांत 5 सितंबर 1997 को हुआ था। एक ही साल बाद, सितंबर 1998 में, पश्चिम बंगाल के गांव धूलिनाकोड़ में रहने वाली आदिवासी महिला मोनिका बेसरा पहला चमत्कार बनी।
 
उदर-कैंसर से पीड़ित बेसरा का कहना था कि मदर टेरेसा की तस्वीर वाली एक तावीज को पेट पर रखकर दबाने और उनकी प्रार्थना करने से वह ठीक हो गई। किंतु, उसके पति सैकू मुर्मू ने 2002 में अमेरिका की 'टाइम' पत्रिका से कहा, "यह सब बकवास है। मेरी पत्नी डॉक्टरों की दवा से ठीक हुई थी, न कि किसी चमत्कार से।”
 
वहां के स्थानीय बालुरघाट सरकारी अस्पताल के डॉक्टर रंजन मुस्तफ़ी ने मोनिका का इलाज किया था। उनका कहना था कि तपेदिक के कारण मोनिका के पेट के निचले भाग में एक ट्यूमर पैदा हो गया था, जिसे आरंभिक चरण में ही पहचान लिया गया और वह "हमारी दवाओं के असर से साल भर बाद ग़ायब हो गया."
  
वैटिकन ने डॉक्टरों की बातों को दरकिनार करते हुए इस सारे प्रकरण को दिवंगत मदर टेरेसा की दिव्य आत्मा का ही एक चमत्कार माना। अतः पोप जॉन पॉल द्वितीय ने, 19 अक्टूबर 2003 के दिन, उन्हें 'धन्य' घोषित कर दिया। उधर, मदर टेरेसा के 'धन्य' होते ही मोनिका बेसरा के घर में फांके पड़ने लगे। "मेरे घर में मिशनरी ननों का तांता लगा रहता था,” ब्रिटिश दैनिक 'द टेलीग्राफ़' से मोनिका ने 2007 में शिकायत की। "उन्होंने ढेर सारे वादे किए और कहा कि हमारे निर्वाह और बच्चों की पढ़ाई के लिए मुझे पैसा मिलेगा। लेकिन, बाद में मुझे भुला दिया गया। हम दरिद्रता में जी रहे हैं। पति बीमार है। पैसा नहीं हैं। बच्चे अब स्कूल भी नहीं जाते। पेट भरने के लिए मुझे खेतों में खटना पड़ता है।” मोनिका बेसरा को शायद आभास दिया गाया था कि मदर टेरेसा के 'धन्य' होते ही उसे भी धन देकर धन्य कर दिया जाएगा। 
 
दूसरा चमत्कार : दूसरा चमत्कार ब्राज़ील में मिला। 18 दिसंबर 2015 को वैटिकन के एक वक्तव्य में कहा गया कि ब्राज़ील के सैंतुश नगर में एक ऐसा व्यक्ति मिला है, जिसके मस्तिष्क में कई ट्यूमर (अर्बुद) थे। मदर टेरेसा के चमत्कारिक प्रभावों से 2008 में वह अचानक बिल्कुल ठीक हो गया। उस व्यक्ति का नाम, पता, बीमारी का इतिहास या और कोई विवरण नही बताया जा रहा है।
 
वक्तव्य के अनुसार, इस रोगी की पत्नी मदर टेरेसा से प्रार्थना कर रही थी कि उसके पति को ठीक करदें। रोगी कोमा (बेहोशी) में था और उसका आपातकालीन ऑपरेशन होने वाला था। लेकिन, न्यूरोसर्जन "जैसे ही ऑपरेशन कक्ष में वापस आया, उसने रोगी को पूरी तरह सचेत और वेदनारहित पाया।“ डॉक्टरों ने उससे कहा था कि उसे जो दवाएं लेनी पड़ी हैं, उनके कारण उसका पुंसत्व नहीं रह जाएगा। लेकिन, ठीक हो जाने के बाद वह दो बच्चों का बाप भी बना। वेटिकन द्वारा गठित डॉक्टरों के समीक्षक दल ने इस घटना को वैज्ञानिक व्याख्या से परे बताया, जबकि धर्मशास्त्रियों वाले आयोग ने इस का अर्थ यही लगाया कि यह सब मदर टेरेसा का ही कमाल है। 
मदर टेरेसा और पांच रुपए का कमाल... पढ़ें अगले पेज पर...

पांच रुपए का कमाल : मदर टेरेसा का ही यह भी एक कमाल है कि जब उन्होंने 'मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी' की स्थापना की थी, तब उनके पास केवल पांच रुपए थे। इस बीच सभी जानने को व्यग्र हैं कि इस मिशनरी को अब तक कितने अरब या खरब डॉलर मिल चुके हैं, और वे कहां हैं? अकेले कोलकाता में उसके 19 सदन हैं। दुनिया के 133 देशों में उसकी शाखाएं हैं। 700 से अधिक आश्रमों, धर्मशालाओं, अनाथालयों इत्यादि में 4500 स्वयंसेवी नर्सें काम करती हैं।
 
दुनिया भर से धन, धान्य और दवाओं जैसी चीज़ों के रूप में करोडों, संभवतः अरबों डॉलर मूल्य के दानों की हर साल अविराम वर्षा हो रही है। तब भी, कम से कम भारत में, उसके आश्रम या सेवागृह अब भी वैसे ही गंदे, टूटे-फूटे और फटेहाल मिलते हैं, जैसे आधी सदी पहले हुआ करते थे। हर कोई उन्हें भीतर से नहीं देख सकता। फ़िल्म या फ़ोटो लेना या वहां काम करने वाली नर्सों से बात करना मना है। तब भी सच्चाई छिप नहीं पाती। 
  
एल्ज़े बुशहोयेर जर्मन के सार्वजनिक टेलीविज़न चैनल 'एमडीआर' में प्रोग्राम एंकर हैं। 2004 में उन्होंने मरणासन्न लोगों के लिए मदर टेरेसा के पहले सेवाश्रम "निर्मल हृदय" में छह सप्ताह तक बिना किसी वेतन के स्वयंसेवी के तौर पर काम किया। अपने अनुभवों के बारे में उन्होंने लिखा, "मरीजों के नाम नहीं, नंबर थे। इससे हमेशा बड़ा घालमेल होता था। (रोगाणुओं से बचाव के लिए) मेडिकल नकाब और हाथ के दस्ताने मैंने खुद ख़रीदे। महिलाओं के कमरे में 40 या उससे अधिक औरतें थीं। ग़ंदी, अधनंगी, पगलाई-सी। सिर पूरी तरह मुंडित। वे पथरीले फर्श पर कीड़ों-मकोड़ों की तरह रेंगती थीं। यदि कैमरा मेरे साथ होता (फ़ोटो खींचना मना था) तो मैं इस दृश्य का ज़रूर फ़ोटो लेती और एमनेस्टी इंटरनेशनल को भेजती...उस हर एक की पिटाई करती, जो मुझे ऐसा करने से रोकता... मैं चीखना चाहती हूं कि आखिर वे भी तो आदमी ही हैं, उन्हे भी तो अपनी गरिमा का अधिकार है!“ 
 
झूठा फ़रिश्ता : स्मरणीय है कि मदर टेरेसा को असहाय गरीबों और निपट दरिद्रों का फ़रिश्ता बताने वाले कहते नहीं थकते उनके सेवाश्रमों में उन लेगों को अपनी मानवीय गरिमा वापस मिल जाती है, जिन्हें ग़ंदी बस्तियों की गटरों से उठा कर लाया जाता है।
 
डॉ. मरियाने ज़ामर ईसाइयत के इसिहास की प्रोफ़ेसर हैं। जर्मन दैनिक फ्राकफुर्टर रुंडशाऊ से उन्होंने कहा, "सभी जानते हैं कि मदर टेरेसा ने डॉक्टरी चिकित्सा के दान में मिले उपकरणों के उपयोग तक पर रोक लगा रखी थी। वेदना निवारक और निश्चेतक कहीं दिखाई नहीं पड़ने चाहिए थे। जिन गिनी-चुनी दवाओं का इस्तेमाल होता भी था, वह सही ढंग से नहीं होता था। साफ़-सफ़ाई की सबसे बुनियादी शर्तों की भी परवाह नहीं की जाती थी। कोढ़ियों को नहलाने-धोने वाली नर्सें दस्ताने नहीं पहन सकती थीं। इंजेक्शन की सुइयों को रोगाणुमुक्त किए बिना तब तक बार-बार इस्तेमाल किया जाता था, जब तक वे भोथरी नहीं हो जाती थीं... यहां तक कि एक मकान में उन्होंने लिफ्ट तक नहीं लगाने दी।"  
  
पर-पीड़ा सुख : मदर टेरेसा या उनके मिशन का साथ छोड़ चुकी नर्सों के ऐसे बयानों की कमी नहीं है, जिनसे प्रमाणित होता है कि उनके आश्रमों और सदनों में सड़ रहे लोगों को सेवा नहीं, "पर-पीड़ा का सुख देने वाली यातना" मिलती थी, और संभवतः अब भी यही हाल है। बहुत से लोग कुछ और दिन जी लेते, यदि उन्हें ठीक से भोजन और इलाज मिल जाता। यूरोप के बहुतेरे देशों के कानून में ऐसी दशा को 'जानबूझ कर सहायता नहीं देने से मौत का मामला' माना जाता है, जिसके लिए कड़ी सज़ाओं का प्रावधान है। कलकत्ता के 'निर्मल हृदय' और 'शिशु सदन' में हुई बहुत-सी मौतों के लिए मदर टेरेसा और उनकी नर्सों को जर्मनी जैसे देशों में जेल की हवा खानी पड़ सकती थी। लेकिन भारत ने तो उन्हें देश के सर्वोच्च अलंकरण भारत-रत्न से सम्मानित किया। मदर टेरेसा क्योंकि एक यूरोपीय भी थीं, इसलिए स्वीडन की उसी नोबेल पुरस्कार समिति ने – जो महात्मा गांधी, आचार्य विनोबा भावे या जयप्रकाश नारायण को –  सम्मानित नहीं कर सकी, मदर टेरेसा को नोबेल शांति पुरस्कार देने में गर्व महसूस किया।
 
कैनडा में मॉन्ट्रियाल और ओटावा विश्वविद्यालयों के तीन वैज्ञानिकों ने जानना चाहा कि संत घोषित होने जा रही मदर टेरेसा वास्तव में कितनी संत-महात्मा थीं! "तथ्यों का हमारा विश्लेषण मदर टेरेसा की पवित्र संत वाली उस तस्वीर से बिल्कुल मेल नहीं खाता, जो दुनिया में बन गई है।” मॉन्ट्रियाल विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर और अध्ययन टीम के मुखिया सेर्ज लारिवे ने कहा। उनका यह भी कहना था कि मदर टेरेसा को "धन्य  घोषित करने के जो कारण बताए गए, वे भी बनावटी थे और एक सुगठित एवं सुनियोजित जनसंपर्क (पीआर) अभियान की देन थे।” इस अध्ययन के निष्कर्ष 2013 में फ्रेंच भाषा की एक विज्ञान पत्रिका मे प्रकाशित भी हुए।  
क्या करती थीं करोड़ों डॉलर का मदर टेरेसा... पढ़ें अगले पेज पर....

करोड़ों डॉलर का क्या होता है? :  प्रो. लारिवे ने लिखा कि "पोप ने मदर टेरेसा को धन्य घोषित करते समय उनके व्यक्तित्व के अजीब और अमानवीय पहलुओं की अनदेखी कर दी.” मरणासन्न निरीह रोगियों के बारे में तो वे कहती थीं कि "वे शूली पर चढ़ा दिए गए जीसस क्राइस्ट (ईसा मसीह) की तरह जब कष्ट झेलते हैं, तब उनके निकट पहुंच जाते हैं, “जबकि वे खुद अपने जीवन के अंतकाल में अपने कष्टों को कम करने के लिए अमेरिका में इलाज कराने पहुंच जाती थीं। कैनडा के इन तीनों शोधकों ने इस बात की भी छानबीन की कि मदर टेरेसा और उनके मिशन को दुनिया भर से करोड़ों डॉलर के बराबर जो दान-सामान मिलते हैं, उनका क्या होता है?
 
उनका कहना है कि मदर टेरेसा को 1979 में मिले नोबेल शांति पुस्कार की धनराशि सहित जो कुछ भी दान वगैरह मिलता था, उसे वे गुप्त बैंक-खातों में जमा कर देती थीं। उन्होंने इस बात की रत्ती भर भी परवाह नहीं की कि दानदाता का दान कितना पाक या नापाक है और वह स्वयं कितना भला या बुरा आदमी है। इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिलता कि "दशकों तक जो करोड़ों डॉलर मिलते रहे हैं, वे कहां गए?” वे हर आपदा या त्रासदी के समय "प्रार्थनाएं तो खूब करती-करवाती थीं, उदाहरण के लिए भारत में भोपाल की ज़हरीली गैस त्रासदी के समय, पर पीड़ितों के लिए कभी कुछ दिया नहीं।“
 
90 प्रतिशत पैसा वैटिकन बैंक में जाता है : न्यूयॉर्क के ब्रांक्स इलाके में मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी' की एक शाखा में नौ वर्षों तक नर्स का काम करने के बाद सूज़न शील्ड्स भाग खडी हईं – "असह्य झूठ और पाखंड के कारण। बेचारे ग़रीबों की देखभाल तो हम कर ही नहीं पा रहे थे। हमारा अधिकतर समय चेक और डाक संभालने में निकल जाता था।" न्यूयॉर्क की उस शाखा में हर रात 25 नर्सें चेकों के लिए रसीदें काटने और पांच डॉलर से लेकर एक लाख डॉलर तक के चेक छांटने में लगी रहती थीं। अकेले इस एक शाखा में ही हर साल पांच करोड़ डॉलर की बरसात होती थी।
 
ब्रिटेन संभवतः एकमात्र ऐसा अपवाद है, जहां 'मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी' सरकारी अधिकारियों को वित्तीय जानकारी देने के लिए बाध्य है। वहां जमा होने वाला 90 प्रतिशत पैसा ग़रीबों, अनाथों या निरीह मरणासन्न लोगों की देखभाल पर ख़र्च होने के बदले रोम में वेटिकन बैंक के इस मिशनरी वाले खाते में जाता है। वैटिकन बैंक संसार के सबसे संदिग्ध क़िस्म के बैंकों मे गिना जाता है। कोई नहीं जानता कि 'मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी' ने 1952 से अब तक कितने अरब या खरब डॉलर वेटिकन बैंक को दिए होंगे और बैंक या वेटिकन ने उनका क्या किया? सबसे अधिक संभावना यही लगती है कि यह पैसा वैटिकन के तामझाम और ईसाई धर्म के प्रचार पर ख़र्च किया गया होगा।
 
मदर टेरेसा ने वास्तव में आजीवन ग़रीबों को तडप-तड़प कर मरने दिया और उनकी पीड़ा का महिमामंडन किया। यही कहती रहीं कि ग़रीबी की पीडा "ग़रीब को शूली पर लटके ईसा मसीह के निकट पहुंचा देती है।" मरने से पहले वह यदि ईसाई बन जाए, तो उसके सभी पाप भी माफ़ हो जाते हैं। वे धर्मप्रचारक थीं न कि ग़रीबी-विवारक। उनकी ख्याति ने कैथलिक ईसाइयों की संख्या खूब बढ़ाई। इसीलिए अब संत बना कर उन्हें देवताओं का दर्जा दिया जा रहा है, न कि इसलिए कि उन्होंने कोई सच्चा पतित-पावन जीवन बिताया है।