शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
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Written By Author विभूति शर्मा

सुशासन बाबू की असल परीक्षा अब होगी

सुशासन बाबू की असल परीक्षा अब होगी - Nitish Kumar Bihar election
यह केवल डेढ़ साल पहले की बात है जब पूरे देश में मोदी-मोदी गूँज रहा था। जिस चमत्कारिक रूप से देश में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने सत्ता हासिल की थी और पूरी दुनिया को मोदी ने अपना कायल बनाया था, लगता है वह मोदी लहर अब उतर गई है।
 
मोदी का जादू इतनी जल्दी उतर जाएगा यह तो शायद स्वयं भाजपा के दिग्गजों ने भी नहीं सोचा होगा। मात्र छह माह के बाद दिल्ली की जनता ने भाजपा को धूल चटा दी थी और अब बिहार की जनता ने अहसास करा दिया है कि देश मोदी, भाजपा या किसी अन्य का कायल नहीं है। देश सबसे पहले अपनी समस्याओं से निजात चाहता है, जिसका भरोसा मोदी ने दिलाया था, लेकिन इन डेढ़ साल में समस्याओं ने और विकराल रूप धारण किया है। खास तौर से महगाई की मार ने जनता की कमर तोड़ दी है। ऐसी स्थिति में राजनीतिक लिहाज से दो महत्वपूर्ण राज्यों में पराभव भाजपा के लिए खतरे की घंटी बजा रहा है। अगले दो वर्षों में उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम समेत छह राज्यों में चुनाव होने हैं और यही हाल रहा तो देश पर लम्बे समय तक शासन करने का भाजपा का सपना एक बार फिर टूट जाएगा। 
 
नीतीश के शपथ समारोह में भाजपा विरोधी लामबंद : देश में मोदी की लहर के मद्देनजर बिहार चुनाव के दौरान लालू यादव के साथ मिलकर नीतीश कुमार ने जो महागठबंधन बनाया वह कारगर साबित हुआ। कांग्रेस इसमें तीसरे दल के रूप में शामिल होकर फायदे में रही। बिहार में अपनी उखड़ती जड़ों के बीच उसे मजबूत आधार हासिल हुआ और वह अपना नाम बचाने में कामयाब हो गई। वैसे इस गठबंधन की सफलता के संकेत तो बिहार में पिछले उपचुनाव में ही मिल गए थे, जिन्हें भाजपा समझ नहीं सकी। या कहें की मोदी के मद में डूबी रही। अब हाल यह है कि यह गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर अवतरित होने के संकेत दे रहा है।
 
नीतीश के शपथ समारोह में भाजपा के सभी विरोधी लामबंद दिखाई देने लगे। केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद यह पहला मौका था जब इतनी बड़ी संख्या में विपक्षी नेता एक मंच पर एकत्रित हुए। समारोह में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल, बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ वामदलों के नेता भी मौजूद थे। कांग्रेस के दिग्गजों की उपस्थिति स्वाभाविक है, लेकिन अकाली दल और शिवसेना के नेताओं का पहुंचना नए संकेत दे रहा है। पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखबीरसिंह बादल और शिवसेना के दो मंत्री समारोह में मौजूद थे।
 
मोदी की प्रचंड लहर के मद में भाजपा ने इन दोनों पुराने सहयोगियों के साथ बैर मोल ले लिया है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद भाजपा ने शिवसेना को नाराज किया और धुर विरोधी रही शरद पवार की पार्टी से गठजोड़ तक के संकेत दिए। तब कड़वा घूँट पीकर शिवसेना सरकार में शामिल तो हो गई, लेकिन उसकी टीस जब तब उसके व्यवहार में झलक जाती है।
 
इसी प्रकार पंजाब में भाजपा अब अकेले चुनाव लड़ने का मूड बना रही है। उसे पडोसी राज्य हरियाणा की तरह पंजाब में सफलता मिलने की आशा है। वह भूल जाती है कि दिल्ली भी पंजाब के पड़ोस में ही है और यहां पंजाबियत भरपूर है। अपने विरुद्ध लामबंद हो रहे विपक्ष के बीच भाजपा के लिए राहत की बात सिर्फ यह है कि मायावती और मुलायमसिंह ने नीतीश के शपथ समारोह से दूरी बनाए रखी। हालाँकि ये दोनों ऐसे दलों का नेतृत्व सँभालते हैं, जिन्हें भाजपा हितैषी कभी नहीं कहा जा सकता। 
 
दूरगामी परिणाम : बिहार चुनाव के अनेक दूरगामी परिणाम निकलेंगे। सबसे पहले तो संसद के शीतकलील सत्र में ही विपक्ष मुसीबतें खड़ी करेगा। भाजपा को आशा थी की बिहार चुनाव जीतकर वह मजबूती के साथ संसद सत्र में खड़ी हो सकेगी। उसे राज्यसभा में पर्याप्त संख्या बल हासिल होने की आस भी बन जाती, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। अब किसी भी बिल के लिए उसे विपक्ष के रहमोकरम पर रहना होगा। संसद के अलावा महागठबंधन के प्रयोग का असर आगामी हर चुनाव में भी नजर आएगा।
 
इतिहास साक्षी है की भाजपा विरोधी दल धर्म निरपेक्षता के नाम पर लामबंद होकर ही उसे चुनावों में पटखनी देते आए हैं। मोदी लहर के दम पर केंद्र में पहली बार स्पष्ट बहुमत के साथ आई भाजपा के लिए यह सुनहरा मौका था कि वह अपनी छवि बदल सकती थी, पर एक बार फिर उसी चक्रव्यूह में फंसने के आसार बनेंगे।
 
नीतीश की परीक्षा : लालू के साथ महागठबंधन कर नीतीश कुमार ने पहली परीक्षा तो पास कर ली है। उनकी असल परीक्षा तो अब प्रारम्भ होगी। सबसे बड़ा सवाल यह है की क्या लालू के साथ चलते हुए वे अपनी सुशासन बाबू की छवि बरकरार रख सकेंगे। लालू की सरकार को जंगलराज बताकर ही दस साल पहले नीतीश ने भाजपा के साथ मिलकर बिहार की सत्ता संभाली थी। नरेंद्र मोदी का विरोध करते हुए उन्होंने भाजपा का साथ छोड़कर धुर विरोधी लालू का दामन थामा है। अगर वे इस गठबंधन को साधने में सफल होते हैं तो उनके लिए राष्ट्रीय राजनीति में अवसर उजले होते जाएंगे, क्योंकि वे ही हैं जिनके लिए शरद पवार, केजरीवाल, ममता या वामदलों के नेता इस गठबंधन से जुड़ेंगे।
 
इस गठबंधन को भविष्य में बनाए रखने के लिए नीतीश वैसे ही अपरिहार्य हैं जैसे 1996 के दौर में कांग्रेस के विरुद्ध खड़े हुए गठबंधन के लिए अटलबिहारी वाजपेयी हुआ करते थे। अटलजी के नाम पर ही तब विपक्ष एक हुआ था और सरकार बनाई थी। भले वह सरकार मात्र तेरह दिन चली। नीतीश की छवि भी इस दौर में अभी तक ऐसी ही है। इसलिए उनके लिए अनिवार्य है कि वे लालू के साथ संतुलन बनाए रखते हुए अन्य दलों को जोड़ें और बिहार में जंगल राज न लौटने दें।
 
हालाँकि यह काम उनके लिए टेढ़ी खीर साबित होने वाला है। लालू और उनके बेटों सहित राजद के अन्य विधायकों से सुसभ्य व्यवहार की अपेक्षा नहीं की जा सकती। लालू के बेटे अपनी स्कूली पढ़ाई ही पूरी नहीं कर सके। मंत्री बने लालू के बेटे तेजप्रताप ने तो शपथ समारोह में ही अपनी योग्यता की झलक दिखला दी, जब अपेक्षित को उपेक्षित पढ़ बैठे और राज्यपाल को उनसे दुबारा पढ़वाना पड़ा।