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Written By Author शरद सिंगी

प्रधानमंत्री की श्रीलंका यात्रा के प्रकट-अप्रकट परिप्रेक्ष्य

प्रधानमंत्री की श्रीलंका यात्रा के प्रकट-अप्रकट परिप्रेक्ष्य - Narendra Modi
श्रीलंका चुनावों के नतीजे आने के पश्चात इस वर्ष 17 जनवरी के अंक में मैंने लिखा था कि मोदी की श्रीलंका यात्रा शीघ्र ही संभावित है। ऐसा हुआ भी। 27 वर्षों पश्चात हुई भारत के किसी प्रधानमंत्री की यह श्रीलंका यात्रा बहुत ही महत्वपूर्ण थी। 
श्रीलंका में हुए सत्ता परिवर्तन को लेकर भारतीय जासूस एजेंसी रॉ पर चुनावों में विवादित भूमिका निभाने के आरोप लगे थे। पूर्व राष्ट्रपति राजपक्षे के नेतृत्व में तो श्रीलंका लगभग पूरी तरह चीन की छत्रछाया में चला गया था। भारत के आसपास चीन की उपस्थिति भारत के कूटनीतिकारों को परेशान कर रही थी। इसमें संदेह नहीं कि भारत, राजपक्षे सरकार की छुट्टी तो चाहता था किंतु यह बात विश्वसनीय नहीं लगती की कि सरकार गिराने में भारत की कोई भूमिका रही हो। 
 
मोदी की यात्रा के महत्व को समझने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं। उत्तरी श्रीलंका में भारतीय मूल का तमिल समुदाय आजादी के 50 वर्षों पश्चात भी जब श्रीलंका में अपने मौलिक अधिकारों को प्राप्त न कर सका तो उसने उग्रवाद का मार्ग अपनाया और तमिल ईलम जैसे आतंकी संगठन को जन्म दिया। तमिल समुदाय को स्वाभाविक रूप से भारत की जनता का नैतिक समर्थन प्राप्त था। तमिल ईलम की बढ़ती आतंकी गतिविधियों ने आखिर श्रीलंका की राजपक्षे सरकार को मजबूर कर दिया तमिल ईलम के साथ सीधे युद्ध करने के लिए। अंततः तमिल ईलम का सफाया तो हुआ किंतु इस युद्ध की आड़ में तमिल समाज के हजारों बेकसूर लोगों का नरसंहार भी हुआ। 
 
इस श्रीलंकाई गृहयुद्ध के दौरान चीन ने श्रीलंका सरकार को बड़ी मात्रा में हथियार मुहैया करवाए थे वहीं भारत इससे दूर ही रहा था, क्योंकि उसे भय था कि ये हथियार तमिलों के विरुद्ध उपयोग किए जाएंगे। इस नरसंहार की संयुक्त राष्ट्र संघ सहित पूरे विश्व ने भर्त्सना की। अंतररराष्ट्रीय मानव अधिकार संगठन और विभिन्न पश्चिमी देश, तमिल नरसंहार के दौरान हुए मानव अधिकारों के हनन की जांच को लेकर भी श्रीलंका पर दबाव बनाए हुए हैं। भारतीय तमिल समुदाय तो पूरी तरह क्रोधित है ही। 
 
तमिल ईलम के खात्मे से राजपक्षे को सिंहली समुदाय में भारी लोकप्रियता मिली और वे अगला चुनाव भी जीते किंतु तमिलों पर अत्याचारों को लेकर भारत ने कई बार अपनी खिन्नता जाहिर की। इस बीच भारत की बेरुखी का चीन ने भरपूर लाभ लिया और सस्ते ऋण और आधारभूत परियोजनाओं में अपनी भागीदारी से श्रीलंका में अपने पैर जमाने की पूरी कोशिश की। चीन से बढ़ती नजदीकी न केवल भारत सरकार को, अपितु अधिकांश श्रीलंकाई नागरिकों को भी नागवार गुजरी। उन्हीं में एक नए राष्ट्रपति सिरिसेना हैं जिन्होंने अपने राष्ट्रपति बन जाने के तत्काल बाद अपनी पहली आधिकारिक यात्रा के लिए भारत को चुना और चीन से थोड़ी दूरी बनाई। 
 
इस पृष्ठभूमि को देखते हुए मोदी की यात्रा न तो कोई औपचारिक यात्रा थी न कोई विशिष्ट अवसर पर आयोजित यात्रा थी। यह यात्रा एक विशिष्ट उद्देश्य के लिए थी जिसमें उन्हें तमिल समुदाय को विश्वास में लेते हुए सिंहलियों से दोस्ती का हाथ बढ़ाना था ताकि श्रीलंका से चीन को बाहर का रास्ता दिखाया जा सके। मोदी का श्रीलंका यात्रा के दौरान जाफना जाना भी एक संवेदनशील मुद्दा था। 
 
जाफना श्रीलंका का उत्तरी हिस्सा है और वहां के तमिल समुदाय की समस्याओं को उठाना यानी सीधे-सीधे श्रीलंका के अंदरुनी मामलों में हस्तक्षेप करना था। तमिल समुदाय का मामला उठाकर सिंहलियों की नाराजी मोल नहीं ले सकते थे। इन बाधाओं के बावजूद मोदी अपनी यात्रा के दौरान एक संतुलन बनाने में सफल रहे। उन्होंने श्रीलंका सरकार से अनुरोध किया कि समुदायों में सुलह और सहयोग को प्राथमिकता दें। तमिल समुदाय देश में समानता, न्याय, शांति और सम्मान के साथ अखंड श्रीलंका की मुख्य धारा का हिस्सा बनें। 
 
कई वर्षों पश्चात अब भारत के पड़ोसी देशों में ऐसे हालात बने हैं, जब देश का सर्वोच्च नेता इन देशों का दौरा कर सकता है। यदि शांति के साथ पारस्परिक सहयोग करने में भी कामयाब रहे तो दक्षिण एशिया का यह क्षेत्र सर्वोमुखी विकास की गति को आगे बढ़ा पाएगा। दुर्भाग्य से यह क्षेत्र सहयोग के मामले में अभी तक बहुत पिछड़ा हुआ है। भारत को यह भी ध्यान रखना होगा कि श्रीलंका गृहयुद्ध की भीषण आग में से बाहर निकला है। जहां घाव अभी पूरी तरह भरे भी नहीं हैं। दुनिया उन्हें कुरेदने में लगी है वहीं भारत के सामने समस्या है कि दुनिया का साथ दे या श्रीलंका के घावों पर मरहम लगाए। भारत, भारतीय तमिल समुदाय को नाराज तो नहीं कर सकता किंतु चीन को इस स्थिति का लाभ भी लेने नहीं दे सकता। 
 
उसी तरह श्रीलंका सरकार भी अपने सिंहली बहुसंख्यकों को नाराज कर भारत के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं कर सकती किंतु उसे विकास में भारत का साथ चाहिए। अटलजी कहा करते थे कि दोस्त बदल सकते हो, पड़ोसी नहीं और यह पड़ोसी तो ऐसा है जिसके साथ पौराणिक काल से रिश्ते हैं। बाधाएं दोनों तरफ हैं किंतु ध्यान रहे बीच में पौराणिक राम सेतु की प्रतीकात्मक संबंधता भी है जिसे न इतिहास भुला सकता है न भूगोल।