शनिवार, 27 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. विचार-मंथन
  3. विचार-मंथन
  4. Narendra Mod
Written By
Last Modified: गुरुवार, 25 सितम्बर 2014 (20:24 IST)

अच्छे दिनों के वायदे से मोहभंग के संकेत

अच्छे दिनों के वायदे से मोहभंग के संकेत - Narendra Mod
-अनिल जैन

आमतौर पर यह कहा और माना जाता है कि उपचुनाव के नतीजों के आधार पर कोई राजनीतिक निष्कर्ष निकालना सही नहीं होता है। यह दलील अपनी जगह उसी स्थिति में सही हो सकती है, जब इक्का-दुक्का सीट पर उपचुनाव हुए हो। लेकिन पिछले महीने विधानसभा और लोकसभा की जिन सीटों के लिए उपचुनाव हुए उनका दायरा काफी बड़ा है, न सिर्फ संख्या में बल्कि भौगोलिक रूप से भी। इसलिए इनके नतीजे मायने रखते हैं।
केंद्र में भाजपा नीत गठबंधन की सरकार बनने के साढ़े तीन महीने बाद हुए 33 विधानसभा सीटों और 3 लोकसभा सीटों के इन उपचुनावों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के संदर्भ में भी देखा जा रहा था। भाजपा यह मानकर चल रही थी कि अब भी मोदी लहर कायम है। पर उसके इस दावे की हवा निकल गई। उपचुनावों के नतीजों से भाजपा को तगड़ा झटका लगा है, इस हद तक कि शायद ही किसी को इसका अंदाजा रहा हो। इन नतीजों से साफ है कि देश आंख मूंदकर भाजपा या मोदी की कथित हवा के साथ बहने को तैयार नहीं है। इन नतीजों के बाद भाजपा यह कहकर भी नहीं बच सकती कि उपचुनाव के परिणाम आमतौर पर सत्तारूढ़ दल के पक्ष में ही जाते हैं। उत्तराखंड, बिहार और कर्नाटक के उपचुनावों में मात खाने के बाद उसने यही दलील दी थी। इस बार यह दलील उत्तरप्रदेश के संदर्भ में तो लागू हो सकती है, पर राजस्थान और गुजरात में कतई नहीं, जहां मरणासन्न कांग्रेस ने वापसी कर सबको चौंका दिया है। ये नतीजे भाजपा के लिए तगड़ा झटका है, इस हद तक कि शायद ही किसी को इसका अनुमान रहा हो। 
 
उत्तरप्रदेश में भाजपा को लोकसभा की अस्सी में से इकहत्तर सीटें हासिल हुई थीं। उसके सहयोगी अपना दल की दो सीटों को जोड़ दें तो यह आंकड़ा तिहत्तर सीटों तक पहुंच जाता है। किसने सोचा था कि आम चुनाव में मिली इतनी जबर्दस्त कामयाबी की चमक इतनी जल्दी फीकी पड़ जाएगी। उत्तरप्रदेश की ग्यारह विधानसभा सीटों के उपचुनाव में भाजपा सिर्फ तीन सीटें हासिल कर सकी।
 
नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस के तहत आने वाली रोहनिया विधानसभा सीट समेत आठ सीटें समाजवादी पार्टी की झोली में गईं, जबकि सभी ग्यारह सीटों पर पिछले विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव की लहर के बावजूद भाजपा और उसके सहयोगी दलों के उम्मीदवार जीते थे। भाजपा का यही हाल राजस्थान में भी हुआ, जहां उसने लोकसभा की सभी पच्चीस सीटें जीती थीं। वहां जिन चार सीटों पर उपचुनाव हुए वे सभी पहले भाजपा के पास थी, लेकिन उपचुनाव में वह सिर्फ एक सीट ही बरकरार रख सकी, बाकी पर कांग्रेस ने कब्जा जमा लिया। 
 
गुजरात में भाजपा का ऐसा हश्र तो नहीं हुआ, पर जो भी हुआ उससे नरेन्द्र मोदी के गृहराज्य में भी उसका प्रभाव घटने के ही संकेत मिले। गुजरात की नौ में से छह सीटें भाजपा और तीन कांग्रेस को मिलीं। खास बात यह रही कि कांग्रेस को मिली तीनों सीटें पहले भाजपा के पास थीं। मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस विधानसभा की एक सीट भाजपा से छीनने में कामयाब रही। भाजपा के लिए यह जरूर संतोष की बात हो सकती है कि लगभग डेढ़ दशक बाद उसका पश्चिम बंगाल विधानसभा में एक सीट से फिर खाता खुल गया। अलबत्ता लोकसभा की तीन सीटों के परिणाम में कोई फेरबदल नहीं हुआ है, जो सीट जिस पार्टी के पास थी, उसी के पास रही। लेकिन इनमें उल्लेखनीय बात यह रही कि उत्तरप्रदेश में अपने मुखिया मुलायम सिंह यादव के इस्तीफे से खाली हुई मैनपुरी सीट पर समाजवादी पार्टी ने पहले से ज्यादा अंतर से जीत हासिल की जबकि गुजरात में नरेन्द्र मोदी के इस्तीफे से खाली हुई वडोदरा सीट पर भाजपा की जीत का अंतर पहले के मुकाबले घट गया। वैसे लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा के लिए यह पहला झटका नहीं है। इससे पहले बिहार और कर्नाटक में और उससे पहले उत्तराखंड में हुए उपचुनावों में भी उसे मायूस होना पड़ा था। लोकसभा चुनाव में भाजपा अपनी सफलता का सूत्र मोदी मैजिक को मानती रही है। सवाल है कि अब एक के बाद एक मिले इन झटकों के लिए वह किसे जिम्मेदार ठहराएगी? 
 
यह सिर्फ कहने की बात है कि ये सभी उपचुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े गए थे। सभी जानते हैं कि भाजपा ने अपनी तरफ से ये चुनाव अपनी केंद्र सरकार के अब तक के प्रदर्शन और उग्र हिन्दुत्व के एजेंडे पर ही लड़े थे। अब ईमानदारी का तकाजा है कि वह इन चुनाव नतीजों को मोदी सरकार के अब तक के प्रदर्शन को लेकर दिए गए संदेश और अपने उग्र हिन्दुत्व के रिजेक्शन के रूप में ग्रहण करे। जनता ने अपने मतदान के जरिए से यह बताने का प्रयास किया है कि विकास की बड़ी-बड़ी बातें अपनी जगह सही है, पर सत्तारूढ़ दल को उसकी बातों से नहीं, व्यवहार से ही परखा जाएगा। इस लिहाज से ये चुनावी नतीजे भाजपा और नरेन्द्र मोदी के अच्छे दिन लाने के वादे से लोगों के होते मोहभंग का ही संकेत है।
 
जहां तक उत्तरप्रदेश की बात है, यहां भाजपा की ताजा नाकामी ने दो सवाल खड़े किए हैं। भाजपा 'लव जिहाद' आदि के नाम पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को हवा दे रही थी, यह मानकर कि इससे उसे चुनावी फायदा होगा। इसी रणनीति के तहत उसने योगी आदित्यनाथ को आगे किया था लेकिन मतदाताओं ने उसकी इन कोशिशों को सिरे से नकार दिया। इससे भाजपा को अपने मुद्दों के बारे में नए सिरे से सोचना पड़ सकता है। उत्तरप्रदेश में लोकसभा चुनाव में मिली कामयाबी का श्रेय अमित शाह को दिया गया और इसी आधार पर उन्हें पार्टी का मुखिया भी बनाया गया। लेकिन सवाल है कि अध्यक्ष बनने के बाद उपचुनावों में वे कोई करिश्मा क्यों नहीं दिखा सके?
 
लोकसभा चुनाव में भाजपा को विभाजित विपक्ष का फायदा मिला था। लेकिन इस बार उपचुनावों में स्थिति अलग ही थी। कहने को तो यहां तो विपक्ष में कोई गठजोड़ नहीं था लेकिन यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण है कि बहुजन समाज पार्टी मैदान में नहीं थी और कांग्रेस भी मुकाबले को कायदे से त्रिकोणीय नहीं बना पाई। जाहिर है, सभी सीटों पर मुकाबला भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच सिमट गया था, करीब-करीब वैसे ही जैसा कि कुछ समय पहले बिहार के उपचुनावों में हुआ था। ऐसे हालात में भाजपा ने सुनियोजित तरीके से योगी आदित्यनाथ को अपने हिन्दुत्व का पोस्टरबॉय बनाकर ध्रुवीकरण की कोशिश की। उसे उम्मीद रही होगी कि इससे हिन्दू मतदाताओं का ध्रुवीकरण होगा और आमतौर पर उपचुनाव में घरों से न निकलने वाले मध्य वर्ग के उसके मतदाता पोलिंग बूथों पर टूट पड़ेंगे। लेकिन मतदान के प्रतिशत से साफ है कि ऐसा नहीं हुआ। दूसरी ओर बहुजन समाज पार्टी के मैदान में न होने से अल्पसंख्यक मतदाताओं के बीच भी ऊहापोह की स्थिति नहीं थी। समाजवादी पार्टी को इसका पूरा फायदा मिला और यह बात भी भाजपा के खिलाफ गई।
 
यह तथ्य एक बार नहीं बार-बार साबित हुआ है कि हमारे देश में उग्र सांप्रदायिक राजनीति किसी भी तबके के मतदाताओं को रास नहीं आती। याद करें कि वर्ष 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद उत्तरप्रदेश की कल्याण सिंह सरकार के साथ-साथ मध्यप्रदेश, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश की भाजपा सरकारों को भी बर्खास्त कर दिया गया था। माना गया था कि इन सभी राज्यों में भाजपा ही सत्ता में वापसी करेगी। लेकिन राजस्थान को छोड़कर भाजपा कहीं भी सत्ता में नहीं लौट पाई थी। राजस्थान में भी उसे स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था और वह जोड़तोड़ में माहिर भैरोसिह शेखावत की हिकमत अमली के दम पर ही सरकार बना सकी थी। 
 
इसी तरह वर्ष 2011 में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में अदालती फैसला आने के बाद देश अद्‌भुत संयम का परिचय दे चुका है। जाहिर है कि देश का आम मतदाता वर्ग नफरत की राजनीति पसंद नहीं करता है। 21वीं सदी के नौजवानों की सोच विकासपरक है और उनमें अपने सपनों को हकीकत में बदलने की बेचैनी है। इसीलिए नरेन्द्र मोदी के विकास के दिखाए सपनों पर वे झूम उठे थे। ऐसे में उपचुनावों के नतीजों से भाजपा को यह समझ जाना चाहिए कि अकेले सांप्रदायिक राजनीति के सहारे उसे बड़ी चुनावी कामयाबी नहीं मिल सकती। यह दांव खूबसूरत सपनों की चाशनी के साथ ही कारगर हो सकता है, बशर्ते उन सपनों में लोगों को जोड़ने की ताकत हो। 
 
सवाल उठता है कि इन नतीजों से भाजपा क्या कोई सबक लेगी? क्या उसे मोदी के विकास की चाशनी में डूबे हिन्दुत्व और योगी के उग्र हिन्दुत्व का अंतर समझ में आएगा? दरअसल हिन्दुओं के ब़ड़े तबके को अपने धर्म से तो प्यार है, लेकिन वह धर्म के नाम पर जान लेने और देने की बातों से आगे बढ़ना चाहता है। उपचुनाव के नतीजों के बाद सोशल मीडिया पर आई भाजपा समर्थकों प्रतिक्रियाओं ने भी इसी स्र्झान की ओर इशारा किया है कि अब सिर्फ उन्मादी नारों और भड़काऊ बयानों से काम नहीं चलने वाला है। भाजपा ने अगर इस स्र्झान को नहीं समझा और वह योगी आदित्यनाथ जैसे नेताओं के सहारे कम्युनल एजेंडे पर ही आगे बढ़ती रही तो उसे आगे और भी बड़े झटके सहने के लिए तैयार रहना चाहिए।
 
जहां तक राजस्थान और गुजरात की बात है, दोनों सूबों में भाजपा को लगे झटकों पर किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए। दोनों जगह भाजपा की सरकारें हैं और वहां एंटी इनकम्बेंसी यानी सत्ता विरोधी स्र्झान होना सामान्य बात है। लेकिन यह बात इतनी सामान्य होती तो फिर उत्तरप्रदेश में भी लागू होनी चाहिए थी। वहां समाजवादी पार्टी की सरकार है, जो सूबे में कानून व्यवस्था समेत कई मोर्चों पर बुरी तरह नाकाम रही है और 4 महीने पहले ही वहां की जनता ने भाजपा को प्रधानमंत्री समेत 80 में से 73 सीटों का तोहफा दिया है। ऐसे में तो भाजपा को उत्तरप्रदेश में क्लीन स्वीप करना चाहिए था, लेकिन हुआ ठीक इसके उलट। 
 
दरअसल, राजस्थान और गुजरात दोनों ही राज्यों में भाजपा पिछले चुनावों में अपने चरम पर रही। गुजरात में नौ और राजस्थान में उन चार सीटों पर चुनाव हुए थे, जो भाजपा के पास थी। भारतीय राजनीति में ऐसे कई उदाहरण हैं कि चरम स्थिति पर लंबे समय तक कोई पार्टी नहीं रह पाई है। इन दोनों राज्यों में उपचुनावों के नतीजों ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है। दोनों राज्यों की 13 सीटों पर जीत हासिल करना भाजपा के लिए करीब-करीब असंभव था और जाहिर है वह यह चमत्कार नहीं कर पाई।
 
इन उपचुनावों के नतीजे ऐसे समय आए, जब महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में विधानसभा चुनाव की सरगर्मी शुरू हो चुकी है। हालांकि जम्मू-कश्मीर में आई प्राकृतिक आपदा के कारण वहां जरूर चुनावी गहमागहमी फिलहाल थम गई है। भाजपा खुद को आश्वस्त दिखा रही थी कि इन राज्यों में उसी की सरकारें बनेगी। लेकिन उसके गढ़ माने जाने वाले राज्यों में उसे जो आघात लगा है, उससे आगामी चुनावों में भी उसकी संभावनाओं पर सवालिया निशान लग गया है। दूसरी तरफ, जब कांग्रेस के नेतृत्व से लेकर उसकी रणनीति तक, हर चीज पर अंगुली उठ रही थी, उसे नई संजीवनी मिली है। सवाल है कि क्या वह इसे खुद के कायाकल्प के अवसर में बदल पाएगी?