शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
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Written By Author अनिल जैन

रूठा मानसून और निष्ठुर राजनीति

रूठा मानसून और निष्ठुर राजनीति - Monsoon
इस वर्ष मानसून के कमजोर रहने के अनुमान ने पिछले दिनों बेमौसम बारिश ओलावृष्टि की मार झेल चुके कृषि क्षेत्र का संकट और गहरा कर दिया है। हर साल मानसून की भारत यात्रा अमूमन पहली जून से शुरू होती है जब वह केरल के तट से टकराता है। जून के मध्य तक देश के बड़े हिस्से में उसकी आमद हो जाती है और जून के खत्म होते-होते वह लगभग समूचे भारत को तरबतर कर देता है। इस बार उसके आने में विलंब तो हो ही चुका है और मौसम विभाग ने इस वर्ष अपने पहले के 93 फीसदी बारिश के अनुमान को बदलते हुए अब सिर्फ 88 फीसदी बारिश का संशोधित अनुमान जारी किया है। 
अगर बारिश का आंकड़ा 96 फीसदी से नीचे रहता है तो उसे सामान्य से कम माना जाता है। मौसम विभाग के 88 फीसदी के ताजा पूर्वानुमान से पैदा हुई सूखे की आशंका न सिर्फ किसानों की सिहरन बढ़ा दी है बल्कि उद्योग जगत भी सहमा हुआ है। रिजर्व बैंक के गवर्नर ने भी आसन्न सूखे के खतरे से महंगाई बढ़ने की आशंका जताई है। नतीजतन औद्योगिक विकास दर के घटने का भी अंदेशा बढ़ गया है। समझा जा सकता है कि आने वाले दिन न सिर्फ कृषि क्षेत्र के लिए बल्कि समूची अर्थव्यवस्था के लिए बेहद चुनौती भरे रहने वाले हैं। सवाल है कि क्या हमारी राजनीति इस चुनौती से निबटने का कोई ठोस रास्ता तलाशेगी या कुदरत को ही कोसती रहेगी? 
 
जानकारों का मानना है कि यदि मौसम विभाग का पूर्वानुमान सही साबित हुआ तो देश की लगभग आधी खेतिहर जमीन सूखी रह जाएगी। चिंता की बात यह है कि देश के उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र में तो 85 फीसदी तक बारिश होने का अनुमान लगाया गया है, जिसका असर दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान जैसे राज्यों में पैदावार पर हो सकता है। इन क्षेत्रों के किसानों पर यह दोहरी मार होगी, क्योंकि बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि के कारण उनकी रबी की फसल को पहले ही काफी नुकसान हो चुका है। अब यदि बारिश कम हुई तो इसका असर धान, कपास, गन्ना और सोयाबीन जैसी फसलों के उत्पादन पर पड़ सकता है। 
 
यह सही है कि औद्योगिक उत्पादन, सेवा और विनिर्माण क्षेत्रों का देश की अर्थव्यवस्था में खासा योगदान है, लेकिन इसमें 15 फीसदी का योगदान करने वाले कृषि क्षेत्र का महत्व इसलिए बढ़ जाता है, क्योंकि इस पर देश की दो-तिहाई आबादी निर्भर है। लिहाजा कृषि पर किसी भी तरह के संकट का असर चौतरफा होता है। यह अकारण नहीं है कि मानसून का ताजा संशोधित अनुमान जारी होने के थोड़ी ही देर बाद मुंबई शेयर बाजार भी बुरी तरह लड़खड़ा गया और उसका सूचकांक 600 अंक तक गिर गया!  
 
यकीनन सूखे की आहट किसानों के साथ-साथ उद्योग जगत और देश के आर्थिक प्रबंधकों का दिल दहलाने लगी है, क्योंकि रोजगार और उपभोक्ता मांग से कृषि क्षेत्र का परस्पर गहरा नाता है। इस बार कम बारिश से स्थिति इसलिए भी अधिक भयावह हो सकती है क्योंकि देश पिछले साल भी कम बारिश की मार झेल चुका है। रही-सही कसर पिछले दिनों बेमौसम बरसात और ओलों की बौछार ने पूरी कर दी है। इसका दुष्परिणाम 2014-15 के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़ों में भी नजर आया है। पिछले वित्त वर्ष में जीडीपी की वृद्धि दर सात फीसद से अधिक रही, पर कृषि क्षेत्र में कोई वृद्धि होना तो दूर, उल्टे 2.3 फीसदी की कमी दर्ज की गई। 
 
ऐसे में साफ है कि कमतर बारिश किसानों के साथ-साथ अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ सकती है। पिछले वर्ष भी कमजोर बारिश का असर खाद्यान्न उत्पादन पर देखा गया था। यदि मानसून ने अपना यही रंग-ढंग इस वर्ष भी दिखाया, तो रिजर्व बैंक की उदारता के बावजूद महंगाई की मार तो पड़ेगी ही, इसके साथ ही उन योजनाओं पर भी पानी फिर सकता है, जिनके जरिए केंद्र सरकार निवेश जुटाना चाहती है। इसीलिए कम बारिश का पूर्वानुमान जारी करते हुए केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने कामना की है कि इस बाबत उनके मंत्रालय का अनुमान गलत साबित हो जाए।
   
हालांकि ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं, जब मौसम विभाग की भविष्यवाणियां गलत साबित हुई हैं। चूंकि पूर्वानुमान लगाने की मौसम विभाग की प्रक्रिया पहले से काफी बेहतर हुई है। इसलिए उसकी चेतावनी को हलके में नहीं लिया जाना चाहिए। अगर मौसम विभाग का आकलन सटीक रहा, तो बरसात की कमी वाला यह लगातार दूसरा साल होगा जो मुसीबतों से जूझते किसानों के सामने भारी दुश्वारियां पैदा कर देगा। मौसम के बदलते तेवरों के साथ बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से तहस-नहस खेती के बाद इसी मानसून पर टिकी किसानों की आस अभी से छूटती दिख रही है। लेकिन मामला इतने पर ही खत्म नहीं हो रहा है। अमेरिकी मौसम विज्ञानियों की मानें तो प्रशांत महासागर का तापक्रम बढ़ने से उत्पन्न होने वाला अल नीनो का दैत्य अगले साल के मानसून तक भी असर डाल सकता है। ऐसी भयंकर आशंकाएं अगर सही साबित हुईं तो इसका असर न केवल किसानों पर बल्कि देश की विशाल आबादी को गहरे जख्मों से भर कर रख देगा। 
 
हम ज्यादा या कम बारिश के लिए मानसून को दोषी ठहरा सकते हैं, पर इनसे पैदा होने वाली समस्याओं के लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। यह प्राकृतिक कारण नहीं है बल्कि हमारी भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था और राजनीतिक नेतृत्व की काहिली का नतीजा है कि हम न तो सिंचाई के मामले में आत्मनिर्भर नहीं हो पाए और न ही फालतू बह जाने वाले वर्षा-जल के संग्रहण और प्रबंधन की कोई ठोस प्रणाली विकसित कर सके। आजादी के बाद की हमारी समूची राजनीति इस बात के लिए गुनहगार है कि जिस तरह उसने देश के सभी लोगों को स्वच्छ पानी पीने के अधिकार से वंचित रखा, वैसे ही फसलों के लिए भी पानी का पर्याप्त इंतजाम नहीं किया। उन्हें आवारा बादलों के रहमो-करम पर जीने-मरने के लिए छोड़ दिया गया। 
 
वैसे देश में खेतीबाड़ी की बदहाली हाल के वर्षों की कोई ताजा परिघटना नहीं है, बल्कि इसकी शुरूआत आजादी के पूर्व ब्रिटिश हुकूमत के समय से ही हो गई थी। कोई समाज कितना ही पिछड़ा क्यों न हो, उसमें बुनियादी समझदारी तो होती ही है। अंग्रेजों से पहले के राजे-रजवाड़े खेतीबाड़ी के महत्व को समझते थे। इसलिए वे किसानों के लिए नहरें-तालाब इत्यादि बनवाने और उनकी साफ-सफाई करवाने में पर्याप्त दिलचस्पी लेते थे। वे यह अच्छी तरह जानते थे कि किसान की जेब गरम रहेगी तो ही हम तमाम मौज-शौक कर सकेंगे। उस दौर में देश के हर इलाके में खेतों की सिंचाई के लिए नहरों का जाल बिछा हुआ था। भारत ही नहीं, कृषि पर आधारित दुनिया की किसी भी सभ्यता में नहरों का केंद्रीय महत्व हुआ करता था। यह भी कह सकते हैं कि यही नहरें उनकी जीवनरेखा होती थीं। भारत में इस जीवनरेखा को खत्म करने का पाप अंग्रेज हुक्मरानों ने किया। जहां-जहां उन्होंने जमींदारी व्यवस्था लागू की वहां-वहां नहरें या तो सूख गईं या फिर उन्हें पाट दिया गया। भ्रष्ट और बेरहम जमींदार पूरी तरह अंग्रेज परस्त थे और राजाओं के कारिंदे होते हुए भी अंग्रेजों को ही अपना भगवान मानते थे। किसानों की समस्याओं से उनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था। उन्हें तो बस किसानों से समय पर लगान चाहिए होता था। समय पर लगान न चुकाने वाले किसानों पर जमींदार और उनके कारिंदे तरह-तरह के शारीरिक, मानसिक और आर्थिक जुल्म ढहाते थे। रही सही कसर सूदखोर महाजन पूरी कर देते थे, जो किसानों को कर्ज और ब्याज की सलीब पर लटकाए रहते थे। तो इस तरह ब्रिटिश हुक्मरानों के संरक्षण में, जालिम जमींदारों और लालची महाजनों के दमनचक्र के चलते भारतीय खेती के सत्यानाश सिलसिला शुरू हुआ, जो बदले हुए रूप में आज भी जारी है।
 
आजाद भारत के हुक्मरान चाहते तो भारतीय खेती को पटरी पर लाने के ठोस जतन कर सकते थे, लेकिन गुलामी के कीटाणु उनके खून से नहीं गए तो नहीं ही गए। उनकी भी विकासदृष्टि अपने पूर्ववर्ती गोरे शासकों से ज्यादा अलहदा नहीं रह पाई। उनके लिए देश की किसान बिरादरी का महत्व इतना ही था कि वह अन्न के मामले में देश को आत्मनिर्भर बना सकती है। उसके लिए जितना करना जरूरी था, उतना कर दिया गया। चूंकि उनकी समझ यह भी बनी हुई थी और आज भी बनी हुई है कि जरूरत पड़ने पर विदेशों से भी अनाज मंगाया जा सकता है। इसलिए उन्होंने कभी यह महसूस ही नहीं किया कि हमारी खेतीबाड़ी समृद्ध हो और हमारे किसान व गांव खुशहाल बनें। नतीजा यह हुआ कि आयातित बीजों और रासायनिक खाद के जरिए जो हरित क्रांति हुई, वह अखिल भारतीय स्वरूप नहीं ले सकी। उसका असर सिर्फ पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तरप्रदेश जैसे देश के उन्हीं इलाकों में देखने को मिला, जहां के किसान खेती में ज्यादा से ज्यादा पूंजी निवेश कर सकते थे। शासक वर्ग का मकसद यदि आम किसानों को सुखी-समृद्ध बनाने का होता तो देश के उन इलाकों में नहरों का जाल बिछा दिया जाता, जहां सिंचाई व्यवस्था पूरी तरह चौपट हो चुकी है। ऐसा होता तो खेती की लागत भी कम होती और कर्ज की मार तथा मानसून की बेरुखी के चलते किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर नहीं होना पड़ता। लेकिन हुआ यह कि जो बची-खुची नहरें, तालाब इत्यादि परंपरागत सिंचाई के माध्यम थे, उन्हें भी दिशाहीन औद्योगीकरण और सर्वग्रासी विकास की प्रक्रिया ने लील लिया। जहां खेती में पूंजी निवेश हुआ, वहां भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन हुआ और बिजली की जरूरत भी बढ़ गई। रही-सही कसर कीमतों की मार और बेहिसाब करारोपण ने पूरी कर दी।
  
विश्व बैंक के एक आकलन के अनुसार भारत की कुल खेती के मात्र 35 प्रतिशत हिस्से को सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। यानी लगभग दो-तिहाई खेती आसमान भरोसे है। जिस देश की लगभग दो तिहाई आबादी की जीविका खेती से जुड़ी हुई हो, उसकी एक अनिवार्य जरूरत यानी सिंचाई की इस उपेक्षा को आपराधिक षड्यंत्र के अलावा और क्या कहा जा सकता है? देश के अधिकांश क्षेत्रों में बिजली सरकारी सेक्टर में है, पर वह गांवों को इतनी बिजली नहीं दे सकता कि किसान दिन में अपने खेतों की सिंचाई कर रात को चैन की नींद सो सके। गांवों में बिजली दिन में नहीं, रात में आती है और वह भी कुछ घंटों के लिए। क्या यह किसी लोक हितकारी व्यवस्था का लक्षण है कि अपना पैसा खर्च कर धरती से पानी निकालने के लिए किसानों को रात-रात भर जागना पड़े? देश की आजादी के सातवें दशक में भी देश के आधे से अधिक किसान मानसून की मेहरबानी पर जिंदा हैं, यह तथ्य अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि हमारा व्यवस्था तंत्र अभी शराफत और अपनी बुनियादी जिम्मेदारी से कोसों दूर है।