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Last Modified: गुरुवार, 11 सितम्बर 2014 (11:25 IST)

डिब्बाबंद भोजन- स्वास्थ्यप्रद या धीमा जहर

डिब्बाबंद भोजन- स्वास्थ्यप्रद या धीमा जहर - Mid day meal
-सचिन कुमार जैन
भारत सरकार के गलियारों में हाल ही में हुई एक बैठक ने एक नई चुनौती के बढ़ने का संकेत दे दिया है। 26 अगस्त 2014 को खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हर सिमरत कौर और पेप्सी कंपनी की अध्यक्ष इंदिरा नूयी के बीच यह चर्चा हुई कि मध्याह्न भोजन योजना (इसमें 8वीं कक्षा तक के 12 करोड़ स्कूली बच्चों को हर रोज उनके हक के रूप में भोजन दिया जाता है) में स्वास्थ्यकर प्रसंस्कृत भोजन दिए जाने के विषय पर चर्चा हुई। इस बैठक ने उनके सबके मन में एक भय पैदा कर दिया है, जो जानते हैं कि बड़ी और बहुराष्ट्रीय कंपनियां जिस तरह के पेय और खाने की सामग्री का उत्पादन और व्यापार करती हैं, उनमें बच्चों को केवल और केवल बीमार बनाने वाले तत्त्व हैं। 
 
शीतल पेय और डिब्बाबंद खाद्य सामग्री बनाने वाली कंपनियां आंगनवाड़ी के पोषण आहार कार्यक्रम और स्कूल मध्याह्न भोजन योजना में ठेका लेने की कोशिश कर रही हैं। यह कोई नई कोशिश नहीं है। वर्ष 2006-07 में भी भारत की बिस्किट बनाने वाली कंपनियों ने तत्कालीन सरकार को प्रभावित करके मध्याह्न भोजन योजना और आंगनवाड़ी में ताजे-गरम पके हुए खाने की जगह प्रसंस्कृत भोजन की वकालत की थी, क्योंकि इससे उन्हें 35 हजार करोड़ रुपए का धंधा मिलता है और लत लगाने के लिए सरकारी कार्यक्रम। उनका मकसद था कि इस भोजन की आपूर्ति स्वयं सहायता समूहों के स्थान कुछ बड़ी कंपनियां करें। वास्तव में वे इन खाद्य सामग्रियों में परिरक्षक (प्रिज़र्वेटिव) के रूप में जिन रसायनों का उपयोग करती हैं, उससे उन खानों की लत लगती है। इन कंपनियों के लिए स्वास्थ्यप्रद भोजन का मतलब है कारखाने से निकला डिब्बाबंद भोजन। ये तो मानते हैं कि वह भोजन स्वच्छ है जिसे इंसान ने न छुआ हो। इस सोच को मान्यता देना देश की पोषण सुरक्षा के साथ सबसे बड़ा समझौता होगा।
 
इस विषय को हमें दो नजरियों से देखना होगा। एक- जिस तरह से मध्याह्न भोजन कार्यक्रम में मिलने वाले खाने की गुणवत्ता पर सवाल उठे और कुछ ऐसी घटनाएं हुईं जिनमें भोजन में कीड़े, छिपकली और दूषित तत्व पाए गए और बच्चे बीमार भी हुए और उनकी मृत्यु भी हुई। इन दुर्घटनाओं के आधार पर मध्याह्न भोजन योजना की बहुत आलोचना हुई और बंद करने की वकालत भी की गई, किंतु प्रश्न यह है कि जब सरकार ही प्राथमिक स्तर के बच्चे के लिए 3.5 और माध्यमिक स्तर के बच्चे के भोजन के लिए 5 रुपए प्रतिदिन का प्रावधान करती है, तो भोजन की गुणवत्ता के ऊंचे मानकों का पालन कैसे होगा? हर घटना बताती है कि सामुदायिक निगरानी जरूरी है, पर इसकी व्यवस्था मजबूत नहीं बनाई गई। देश में हर अंचल में भोजन की एक संस्कृति होती है। यह संस्कृति क्षेत्र में उत्पादित होने वाली सामग्री के आधार पर आकार लेती है। मध्याह्न भोजन योजना में अभी भी यह प्रावधान नहीं है कि हर गांव या बसाहट खुद यह निर्णय ले सके कि बच्चों के भोजन में स्थानीय सामग्री हो। मूल निर्णय तो सरकारें ही लेती हैं कि प्रदेश-देश के बच्चे क्या खाएंगे! अब जरा सोचिए भारत सरकार निर्णय का हक अपने तईं क्यों रखती है? ताकि वे पेप्सी कंपनी के साथ वाणिज्यिक और व्यापारिक समझौता कर सकें।
 
अब हम दूसरे पक्ष पर आते हैं। वह पक्ष है भोजन के स्वास्थ्यप्रद होने का। जरा इस बात से अंदाजा लगाइए कि दुनियाभर में आज तक एक भी ऐसा वैज्ञानिक अध्ययन नहीं हुआ है, जो यह कहता है कि प्राकृतिक भोजन सामग्री की तुलना में प्रसंस्कृत (डिब्बा या पैकेट बंद) खाना स्वास्थ्यकर है। वास्तव में भोजन को डिब्बे या पैकेट में रखने की शुरुआत यात्राओं में सहूलियत के नजरिए से हुई थी, पर आज इसे एक सामान्य व्यवहार बनाकर बाजार में रख दिया गया है। यह एक साधारण की समझ का बिंदु है कि खाने की किसी भी सामग्री को लंबे समय तक रखने के लिए उसमें कुछ रसायन मिलाए जाते हैं या उसे तेल में तलकर रखा जाता है। कुछ सामग्रियों में तेल और नमक मिलाकर सुरक्षित रखा जाता है। रीडर्स डाइजेस्ट में प्रकाशित एक आलेख के मुताबिक पैकेज्ड खाने में 4 घातक तत्व होते है। पहला है ट्रांसफेट- यह खराब किस्म का वसा है, जो इंसान की धमनियों में जाकर जम जाता है। मक्खन, घी, नारियल तेल, सरसों के तेल में पाया जाने वाला वसा स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है, पर इनके विकल्प के रूप में आंशिक हायड्रोजेनेटेड वसा का उपयोग बाजार में मिलने वाली सामग्री में खूब उपयोग होता है। पैकेज्ड खाने के कारण अमेरिका में हृदयाघात से 30 से 100 हजार ऐसी मौतें होती हैं, जिनमें इस भोजन से मिलने वाला ट्रांसफेट अहम भूमिका निभाता है। 
 
परिष्कृत (रिफाइंड) अनाज से बनी सामग्री जैसे सफेद ब्रेड, कम रेशे वाले अनाज से बनी शर्करायुक्त सामग्री, सफेद चावल, सफेद अनाज, पास्ता समेत आपको और भी नाम जानी-मानी कंपनियों के जरिए सुनने को मिल जाएंगे। जब आप परिष्कृत अनाज से बनी ये सामग्रियां खाते हैं, तो हृदयाघात की आशंका 30 प्रतिशत बढ़ जाती है। यह अध्ययन कहता है कि जब कोई उत्पाद यह दावा करे कि सामग्री 7 अनाजों या गेहूं के आटे से बनी है, तो किसी भुलावे में मत आइए। यह धोखा है।
 
अध्ययनों से पता चला कि संपूर्ण अनाज (जिसका कोई भी हिस्सा निकाला नहीं गया हो) खाने वालों में हृदयाघात का खतरा 20-30 प्रतिशत कम पाया गया। तीसरा घातक तत्व है नमक। हम नमक सोडियम नामक तत्व पाने के लिए खाते हैं। इससे दिमाग और शरीर संचालन के बीच सामंजस्य बनता है, खून से दाब को नियंत्रित रखता है, पानी का संतुलन बनाकर रखता है, मांसपेशियों और दिल के बीच संपर्क बनाता है। हमारी जरूरत का तीन-चौथाई सोडियम हमें अनाजों, सब्जियों और फलों से मिल जाता है। परंतु प्रसंस्कृत भोजन में यह बहुत ज्यादा मात्रा में होता है। डिब्बाबंद सूप, चटनी, सॉस, बर्गर और मांस सामग्री में बहुत ज्यादा मात्रा में डाला जाता है। ज्यादा सोडियम होने से शरीर में पानी का संग्रह बढ़ता है और हृदय को खून का प्रवाह बढ़ाने के लिए बहुत ज्यादा मेहनत करना पड़ती है। यहीं उच्च रक्तदाब की शुरुआत होती है। एक व्यक्ति को 1500 मिलीग्राम सोडियम की जरूरत होती है, जो हमें चाय की तीन-चौथाई भरी चम्मच से मिल जाता है। एक बर्गर हमें इससे ज्यादा सोडियम दे देता है। ज्यादा सोडियम नाइट्रेट सांस की बीमारी, अस्थमा और फेफड़ों की कार्यप्रणाली में अवरोध पैदा करता है। 
 
इसी तरह डिब्बाबंद सामग्री में हाई फ्रुक्टोस कॉर्न सिरप (एचएफसीएस) और शकर का भी ऊंची मात्रा में उपयोग होता है। जहां एचएफसीएस का ज्यादा उपयोग होता है, वहां मोटापा और मधुमेह से प्रभावित लोगों की संख्या बहुत बढ़ी है। इससे उच्च रक्तदाब, लत लगने, मेयोकार्डियल इन्फ्रेक्शन, डिसलिपडरमिया, पेंक्रियायटिस, हेप्तिक डिसफंक्संस की समस्या होती है।