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Written By WD

अकादमी सम्मान लौटाने में बदनीयती की राजनी‍ति

अकादमी सम्मान लौटाने में बदनीयती की राजनी‍ति - Literature Academy
कवि साब
संदेह नहीं कि इधर देश की ताजा सामाजिक असहिष्णुता के घटनाक्रम का जो बेहूदा विस्तार देखने को मिला और मिल रहा है, वह न सिर्फ अमानवीय, असंवेदनशील और बेहद अनर्थकारी ही नहीं है, बल्कि सामाजिक समरसता के ताने-बाने को ‍छिन्न-भिन्न करने वाला कुकृत्य भी है जिसकी जितनी भी निंदा की जाए, कम ही कही जाएगी। किंतु खासतौर से देखने वाली बात यह भी है ही कि कट्टरपंथी तत्वों की तेज होती करतूतों के साथ ही समाज के जागरूक बुद्धिजीवी और साहित्यकारों की ओर से किया जाने वाला संभव प्रतिरोध भी बढ़ा है।


साहित्यकारों ने जोखिम उठाते हुए असहमति के अपने अधिकार की रक्षा में साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने का जो कदम उठाया है उसमें राजनीति भी कोई कम नहीं है। ये लक्ष्य से अधिक इरादों का घालमेल है और नीयत में कोई खोट भी। 
 
माना ‍कि मौजूदा वक्त आपातकाल का वक्त नहीं है। यह भी माना कि इस वक्त देश में लोकतांत्रिक-प्रक्रियाएं बदस्तूर जारी हैं और यह भी माना कि शांतिपूर्ण तरीके से प्रतिरोध जताने, अभिव्यक्त करने और न्यायपालिका से न्याय प्राप्त करने के तमाम अवसर उपलब्ध हैं। लेकिन साफ-साफ देखा जा सकता है कि सत्ता, समाज और साहित्यकारों के अंतरसंबंधों में व्यापक टकराव बढ़ा है और बढ़ता जा रहा है। 
 
कौन नहीं मानेगा कि मौजूदा वक्त आपातकाल से भी कहीं ज्यादा भयावह और बदतर वक्त हो गया है। कौन नहीं मानेगा कि इस वक्त लोकतांत्रिक संस्थाओं को अशक्त करने का एक महादुष्चक्र जारी है और कौन नहीं मानेगा कि असहमति के प्रति असहिष्णुता का विस्तार हत्या की हद तक हो गया है। किंतु क्या सम्मानित साहित्यकारों को सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने की राजनीति से बचना नहीं चाहिए? 
 
सलमान रुश्दी ने भारतीय साहित्यकारों द्वारा साहित्य अकादमी सम्मान लौटाए जाने की कार्रवाई को सर्वथा उचित बताते हुए यही कहा है कि भारत में धर्मांध-कट्टरता बढ़ी है और स्वतंत्र अभिव्यक्ति बाधित की जा रही है, जबकि चेतन भगत ने इस तमाम गतिविधि को संदिग्ध मानते हुए लेखकों को संदेहों-सवालों के घेरे में ले लिया है। कुछ लेखकों ने इधर की कुछ घटनाओं को सामाजिक-समरसता के संदर्भ में नितांत अनिष्टकारी माना है। 
 
लेखक सामाजिक-राजनीतिक जनचेतना का प्रतिनिधि और पहरेदार होता है। प्रचलित प्रवाह-विरुद्ध चलना किसी भी प्रगतिशील लेखक का स्वाभाविक स्वभाव और जिद दोनों हैं। ऐसा लेखक किसी भी सत्ता का सगा नहीं होता है। ऐसे लेखक ही सत्ता की सच्ची ‍निगरानी करते हैं और सत्ता की सच्ची निगरानी में बने रहते हैं। ऐसे लेखकों की दृष्टि उधर से देखती है‍ जिधर से सत्ता देखना नहीं चाहती है। सत्ता को लेखकों की चिंताओं और सरोकारों पर पर्याप्त गौर करना चाहिए। 
 
सामाजिक समरसता के मूल्यों की रक्षार्थ अपेक्षित होता है कि सत्ता अपने संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन बेहद ईमानदारी, बेहद संवेदनशीलता और बेहद पक्षपात‍रहित तरीकों से ही करे। किंतु सत्ता हथियाने के और सत्ता में बने रहने के कतिपय क्रूर कारणों से ऐसा नहीं कर पाने में स्वयं को असहाय और असमर्थ पाती है। अकादमी की स्वायत्तता के प्रति सजगता और स्वतंत्रता के प्रति निष्पक्षता ही अकादमी का एकमात्र साहसिक साख का प्रमाण पत्र है। 
 
महाराष्ट्र में नरेन्द्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और कर्नाटक में एमएम कलबुर्गी जैसे मुखर तर्कवादियों की हत्या से विचलित होकर सबसे पहले हिन्दी कथाकार, कवि उदय प्रकाश ने साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने का ऐलान किया था। 
 
असहमति की हत्या के विरुद्ध उदय प्रकाश ने साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने का जो साहस दिखाया है, उससे प्रेरित होकर अब दादरी-कांड के मद्देनजर अंग्रेजी उपन्यासकार नयनतारा सहगल, हिन्दी कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी और कृष्णा सोबती, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी और शायर मुनव्वर राना आदि ने भी साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने की घोषणाएं की हैं। 
 
देश में गर्माते सांप्रदायिक माहौल और बढ़ती जा रही असहिष्णुता के विरोध में गुजराती लेखक गणेश देवी और अन्य 5 मशहूर लेखकों ने भी साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने का फैसला किया है। कन्नड़ के प्रसिद्ध लेखक डॉ. अरविंद मालागत्ती ने साहित्य अकादमी की महापरिषद से इस्तीफा दे द‍िया है। दिल्ली के अमन सेठी भी अपना साहित्य अकादमी सम्मान लौटा रहे हैं।
 
मलयाली उपन्यासकार सारा जोसेफ ने साहित्य अकादमी सम्मान वापस देने का निर्णय ले लिया है, तो वहीं मलयाली कवि के. सच्चिदानंदन के साथ पीके परक्कादाव ने साहित्य अकादमी की सदस्यता ही छोड़ देने की कार्रवाई कर दी है। उधर दादरी-कांड से दुखी होकर उर्दू उपन्यासकार रहमान अब्बास ने महाराष्ट्र राज्य अकादमी का पुरस्कार लौटा दिया है। 
 
पंजाबी के भी कुछ साहित्यकारों ने साहित्य अकादमी सम्मान लौटाए जाने की घोषणाएं की हैं। लेखकों, साहित्यकारों के साथ ही साथ फिल्मकारों, इतिहासकारों और वैज्ञानिकों ने भी सम्मान लौटाने की घोषणाएं की हैं। प्रख्यात आलोचक डॉ. नामवरसिंह ने सम्मान लौटाना नापसंद किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि आने वाले दिनों में कुछ और लेखक भी अपना-अपना साहित्य अकादमी सम्मान लौटा सकते हैं।
 
याद रखा जा सकता है कि सम्मान लौटाने वाले ये लेखक अपने-अपने सम्मान स्वतंत्र तौर पर ही लौटा रहे हैं, न कि सामूहिक होकर। किंतु फिर भी कहीं न कहीं मुद्दा एक ही है- बढ़ती असहिष्णुता जिस पर सभी की सहमति बनी हुई है। जैसा कि मलयाली कवि-लेखक के. सच्चिदानंदन ने स्पष्ट किया है कि मुझे यह कहते हुए बुरा लग रहा कि साहित्य अकादमी लेखकों के साथ खड़ी होने की अपनी जिम्मेदारी और संविधान द्वारा सु‍निश्चित की गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बनाए रखने में नाकाम रही है। के. सच्चिदानंदन चाहते थे कि एमएम कलबुर्गी की हत्या के मामले में अकादमी को राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करना चाहिए था। उनकी दृष्टि में शोक व्यक्त करना पर्याप्त नहीं था। वे विरोध-प्रस्ताव पारित करवाने के पक्ष में थे और वह भी दिल्ली क्षेत्र में।
 
नयनतारा सहगल ने भारत की सांस्कृतिक विविधता, बहुलता और बहस तथा असहमति के अधिकार पर हमले का मुद्दा उठाया है, तो अशोक बाजपेयी ने दादरी-कांड पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लगातार चुप्पी पर सवाल उठाए हैं। इसी बीच हमारे राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने दादरी-कांड के संदर्भ में कहा है कि विविधता, बहुलता और सहिष्णुता के मूल सिद्धांतों ने भारत को सदियों से एकजुट रखा है, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। उन्होंने सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने की कोशिशों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का भरोसा दिया है।
 
केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने भी अल्पसंख्‍यकों की सुरक्षा और सम्मान को बचाए-बनाए रखने का वचन दिया है। इससे पहले हमारे उपराष्ट्रपति डॉ. हामिद अंसारी ने भी हमें यही याद दिलाया है कि हमारा संविधान सभी भारतीयों को विचार, अभिव्यक्ति, आस्‍था और उपासना की स्वतंत्रता का वादा और विश्वास प्रदान करता है। असहमति का अधिकार संवैधानिक गारंटी का अभिन्न हिस्सा है। तर्कवादियों की हत्याएं जरा भी ठीक आचरण नहीं हैं। बाद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की सीख को जिस तरह से लपककर दोहराया, वह भी कोई कम दिलचस्प नहीं रहा। प्रधानमंत्री ने अपनी ओर से स्वतंत्र तौर पर अभी भी कुछ नहीं कहा है। 
 
दिल्ली के नजदीक ही दादरी-कांड का हो जाना बेहद शर्मनाक है जिसकी सभी पक्षों, समुदायों और लेखकों ने निंदा की है। 50 बरस के ग्रामीण लोहार मोहम्मद इखलाक की इस संदेह के आधार पर पीट-पीटकर हत्या कर दी गई कि उसके घर में गोमांस पकाया-खाया गया था। अफवाह फैलाने के लिए वॉट्सऐप एसएमएस और एक मंदिर पर लगे लाउडस्पीकर को जरूरी माध्यम बनाया गया था। मंदिर का पुजारी पहले तो फरार हो गया और जब पुलिस की पकड़ में आया तो कहने लगा कि उसने यह कृत्य दो युवकों की धमकी के दबाव में आकर किया था। बाद में वे दोनों युवक भी पकड़ लिए गए, किंतु आश्चर्य का विषय यह भी रहा कि तकरीबन दो-ढाई हजार उपद्रवी वहां इकट्ठा हो जाने में कैसे सफल हो गए और क्यों तब तक पुलिस गहरी नींद में सोती रह गई? 
 
इस कांड के विरोध में प्रधानमंत्री की चुप्पी अखरने वाली रही थी जिससे खिन्न होकर कुछ लेखक अपना-अपना साहित्य अकादमी सम्मान लौटा रहे हैं। एमएम कलबुर्गी, नरेन्द्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे की हत्या को भी इसी संदर्भ से जोड़कर देखा जा रहा है। कहा यह भी जा रहा है कि एमएम कलबुर्गी, जो साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित क‍िए गए थे, लिहाजा अकादमी की चुप्पी से दुखी हैं। वर्षों पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कन्नड़ लेखक यूआर अनंतमूर्ति ने कहा था कि मोदी सरकार में लेखकों की जान खतरे में पड़ जाएगी। क्या यूआर अनंतमूर्ति का पूर्वानुमान सही साबित नहीं हो रहा है? नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद मोदीवादी हल्ला ब्रिगेड ने यूआर अनंतमूर्ति को पाकिस्तान चले जाने के टिकट भी भेजे थे। विरोध का अधिकार एक लोकतांत्रिक अधिकार है, लेकिन चुना गया प्रधानमंत्री सभी नागरिकों का प्रधानमंत्री होता है।
 
सन् 1954 में अपनी स्थापना के समय से ही साहित्य अकादमी प्रतिवर्ष भारत की सर्वोत्कृष्ट साहित्यिक कृति को सम्मानित करती आ रही है। पहला सम्मान सन् 1955 में दिया गया था। पहले यह सम्मान राशि मात्र 5,000 रुपए थी, जो अब बढ़ाकर 1 लाख रुपए कर दी गई है। इसके अलावा सम्मानित कृति के भारतीय भाषाओं में अनुवाद पर भी लाखों रुपए खर्च होते हैं जिसकी न्यूनतम राशि प्रति भाषा 1 लाख रुपए बैठती है। उसके बाद उसको कमेटियों में रखकर भारत भ्रमण, विदेश यात्राएं आदि पर होने वाला खर्च अनुमानत: प्रत्येक लेखक 25 से 50 लाख तक पहुंच जाता है। यहां तक कि सम्मान प्रदान करते वक्त भी 1 लाख तक खर्च हो जाना सामान्य बात है। फिर कृतियां कोर्स में लगती हैं, रिसर्च की जाती हैं और रॉयल्टी की रकम भी बनती है, सो अलग से।
 
किंतु यदि उपरोक्त इस सब कीमत को छोड़ भी दिया जाए तो उस कीर्ति, उस यश का मूल्य क्या हो सकता है, जो किसी लेखक को साहित्य अकादमी से सम्मानित हो जाने के बाद और कारण ही मिलता है? क्या कोई भी लेखक साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने के साथ ही साथ वह कीर्ति, वह यश भी लौटा सकता है? 
 
इसी संदर्भ में प्रसिद्ध संवेदनशील और प्रगतिशील गीतकार गुलजार ने कदापि असत्य नहीं कहा है कि इस वक्त देश में जो हालात बने हैं, उसके खिलाफ लेखकों, साहित्यकारों, पत्रकारों का खड़ा होना बेहद वाजिब है। ये दर्द वो दर्द है, जो किसी भी आवाज को दबाने से पैदा होता है, लेकिन अकादमी सम्मान लौटाना ठीक नहीं।
 
यह भी क्यों नहीं याद रखा जाना चाहिए कि साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्‍था है, कोई राजनीतिक मंच नहीं। अकादमी ने अब तक लगभग ढाई-तीन सौ लेखकों को सम्मानित किया है और यह भी कि, यह मंच साहित्य अकादमी से सम्मानित लेखकों का कोई क्लब नहीं है। सत्ताई वित्त-पोषण पर चलने वाली स्वायत्त संस्थाओं की कुछ सीमाएं और कुछ संकोच भी होते हैं। 
 
यह अच्‍छी बात है कि अपनी स्वायत्तता के प्रति अकादमी सजग है, किंतु सामाजिक समरसता पर चोट करने वाली घटनाओं से लेखकों की असहमति पर अकादमी भी अपनी सहमति जाहिर करती तो संदेश बेहतर हो सकता है। यहां खतरा यह भी है कि लेखकों की वैचारिक लड़ाई में अकादमी की भागीदारी एक सीमा से अधिक होने पर नतीजे नुकसानदेह भी हो सकते हैं। 
 
स्वायत्तता के साथ ही साथ अकादमी की अर्जित-निष्पक्षता भी क्या संदेहास्पद नहीं हो सकती है? तब कौन लेखक चाहेगा कि उसकी कृति साहित्य अकादमी से सम्मानित हो? साहित्य अकादमी को वामपंथी या दक्षिणपंथी राजनीति की अय्याशी का अड्डा नहीं बनने देने की जिम्मेदारी क्या बड़ी सजगता की मांग नहीं करती है? हो यह भी सकता है कि अकादमी की स्वायत्तता ही खतरे में पड़ जाए। फिर सुधीन्द्र कुलकर्णी के मुंह पर कालिख पोत देने की कुत्सित मानसिकता की भी कोई सराहना तो नहीं की जा सकती है? 
 
और अंत में कुछ ऐसे सीधे सवाल, जो हम सभी के लिए प्रासंगिक भी हैं और जरूरी भी। साहित्य अकादमी से ये उम्म‍ीद क्यों की जाना चाहिए कि वह हर किसी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और आपराधिक घटना पर अपनी ओर से संस्थागत बयान जारी करे? ऐसा भी अकादमी की स्थापना से लेकर अब तक कब हुआ है कि साहित्य अकादमी ने साहित्य से इतर किसी ‍गतिविधि पर कोई लिखित वक्तव्य जारी किया हो? असहनीय असहिष्णुता पर जरूर बोला जाना चाहिए।
 
यह पूछा जाना अन्यथा नहीं होना चाहिए कि सिख विरोधी दंगों को रोकने में विफल राजीव गांधी सरकार से सम्मान लेना या कश्मीरी पंडितों के विस्थापन या अयोध्या-ध्वंस पर चुप्पी लगा जाना कैसे सही हो सकता है? गुजरात के दंगों ने लेखकों की किस संवेदनशीलता को इकतरफा झकझोरा है था? यूनियन कार्बाइड कांड के खलनायक और तकरीबन 20,000 लोगों की हत्या के आरोपी एंडरसन को सम्मानपूर्वक किसने भगाया था? क्या साहित्य अकादमी कोई लेखक संगठन है, जो पक्ष-विपक्ष में बयान जारी करे? सम्मान लौटाने वाले पद्म सम्मान क्यों नहीं लौटाते? सिर्फ एक-दो ने पद्म सम्मान लौटाया है। अकादमी सम्मान लौटाने वाले लेखकों की जन-प्रतिबद्धता और कथित संवेदनशील गंभीरता तब कहां चली गई थी, जब मप्र व्यापमं घोटाले में कथित तौर पर 40 से ज्यादा हत्याएं अथवा आत्महत्याएं हो गईं?
 
साहित्य अकादमी सम्मान को लौटाने की यह क्रमश: कार्रवाई बेतुकी इसलिए प्रतीत होती है कि सम्मान लौटाने वाले ये ज्यादातर लेखक अपने-अपने वैचारिक आग्रहों की वजह और पक्षधरता मौजूदा सरकार से भिन्न रखते हैं और चाहते हैं कि इस सरकार का शीलभंग करने के लिए साहित्य अकादमी सम्मान का गोला-बारूद इस्तेमाल किया जाना सार्थक हो सकता है।
 
याद रखा जा सकता है कि साहित्य अकादमी किसी कृ‍ति की गुणवत्ता को ही सम्मानित करती है, न कि कृतिकार की पक्षधरता को। सब जानते हैं कि सम्मान लौटाने वाले ये लेखक राजनीतिक चेतना के प्रति कितने संदिग्ध अथवा असंदिग्ध रहे हैं? असहमति की सहमति बनाए-बचाने रखने के लिए साहित्य अकादमी की स्वायत्तता को संदिग्ध बना दिया जाना कहां तक उचित है?
 
बहुत संभव है कि साहित्य अकादमी के सम्मान लौटाए जाना किसी दीर्घकालीन राजनीति का सोचा-समझा कोई लेखकीय मास्टर स्ट्रोक हो, किंतु फिलहाल तो इसमें प्रचार पाने का सस्तापन ही अधिक नजर आ रहा है। साहित्य अकादमी के कंधों पर रखकर बंदूक चलाना कैसे सम्मानजनक कहा जा सकता है? फिर इस तथ्य को क्यों और कैसे भुलाया जा सकता है कि साहित्य अकादमी सम्मान देने की अनुशंसा एक निष्पक्ष ज्यूरी द्वारा ही की जाती है और कि जिसमें सरकार का कोई भी परोक्ष-अपरोक्ष हस्तक्षेप नहीं होता है? क्या विरोध के साथ ही संवाद की भी अपेक्षा नहीं की जा सकती है? क्या सीधे-सीधे अकादमी सम्मान लौटा देने में कुशाग्र बदनीयती ही नहीं छलछला रही है? अगर इस संदर्भ में संवाद की पहल खुद प्रधानमंत्री भी कर लें, तो अन्यथा क्या है? वैसे भी देखा जाए तो बदनीयती नापने का कोई पैमाना कहां होता है?
 
इधर इस समूचे घटनाक्रम में एक बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि अपनी 23 अक्टूबर की एक आपात बैठक में साहित्य अकादमी ने तकरीबन 35 लेखकों द्वारा सम्मान लौटा देने की घोषणाओं के बाद अपनी लंबी चुप्पी तोड़ते हुए कन्नड़ लेखक एमएम कलबुर्गी की हत्या के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित कर दिया। साथ ही अकादमी ने इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए केंद्र और राज्य सरकारों से साहित्यकारों की सुरक्षा की मांग के साथ अकादमी सम्मान लौटाने वाले लेखकों से अपने-अपने सम्मान वापस ले लेने की संवेदनशील अपील भी कर दी है। 
 
अन्यथा नहीं है‍ कि अकादमी का यह कदम कोई दबाव नहीं, बल्कि संवाद जारी रखने का एक खुला प्रारंभ है। इससे जाहिर होता है कि साहित्य की सर्वोच्च संस्था को विवाद नहीं, संवाद की ही ज्यादा जरूरत है। यह कतई असंभव तो नहीं है कि विरोध और असहमति को जारी रखते हुए संवाद भी जारी रखा जा सकता है। 
 
अकादमी सम्मान लौटाने वाले लेखकों को अकादमी की नीयत पर भरोसा करते हुए क्यों नहीं 17 दिसंबर को होने वाली अकादमी की अगली बैठक तक अपने निर्णय पर पुनर्विचार और प्रतीक्षा करना चाहिए? उक्त बैठक में लेखकों के विरोध से उत्पन्न स्थिति पर विचार होना है, जबकि अभी अकादमी के समक्ष साहित्य सम्मान लौटाने वाले लेखकों के प्रस्ताव व घोषणा को स्वीकार करने का कोई प्रावधान ही उपलब्ध नहीं है। 
 
क्या अकादमी सम्मान इतने महत्वहीन हैं कि इन्हें वक्त-जरूरत बाप सभी किया जा सकता है। तो इससे क्या ये संकेत और संदेश नहीं जाता है कि अगर इन सम्मानों को अभी किसी न किसी विरोध में लौटाया जा रहा है, तो कभी न कभी और शायद किसी न किसी समर्थन में ही स्वीकार किया गया था? आखिर ऐसा क्या और क्यों हो रहा है कि अटल बिहारी वाजपेयी और नरेन्द्र मोदी में पर्याप्त बेहूदा फर्क किया जा रहा है? अकादमी सम्मान लौटाने वाले 'कलहकार' भी कमाल कर रहे हैं, मोरपंख लौटाकर 'मोर' लौटाने का 'श्रेय' लूट रहे हैं? पार्टनर ये कैसी पॉलिटिक्स है?