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भूमि अधिग्रहण पर सरकार की नीयत साफ नहीं

भूमि अधिग्रहण पर सरकार की नीयत साफ नहीं - Land Acquisition Ordinance
भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में समाजसेवी अन्ना हजारे एक बार फिर आंदोलन की राह पर हैं। वे केन्द्र सरकार से इसे तत्काल वापस लेने की मांग कर रहे हैं। मोदी सरकार अध्यादेश के माध्यम से भूमि अधिग्रहण को आसान बनाने जा रही है। इससे निश्चित ही किसानों को नुकसान होगा, लेकिन जमीन अधिग्रहण नहीं होने के कारण अटकने वाली परियोजनाओं की राह भी आसान होगी। हालांकि यह भी माना जा रहा है कि भूमि अधिग्रहण पर सरकार की नीयत साफ नहीं है। 
 
भूमि अधिग्रहण को सरकार की एक ऐसी गतिविधि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा यह भूमि के स्‍वामियों से भूमि का अधिग्रहण करती है, ताकि किसी सार्वजनिक प्रयोजन या किसी कंपनी के लिए इसका उपयोग किया जा सके। यह अधिग्रहण स्‍वामियों को मुआवज़े के भुगतान या भूमि में रुचि रखने वाले व्‍यक्तियों के भुगतान के अधीन होता है। 
संपत्ति की मांग और अधिग्रहण समवर्ती सूची में आता है, जिसका अर्थ है केन्‍द्र और राज्‍य सरकारें इस मामले में कानून बना सकती हैं। ऐसे अनेक स्‍थानीय और विशिष्‍ट कानून हैं, जो अपने अधीन भूमि के अधिग्रहण प्रदान करते हैं किन्‍तु भूमि के अधिग्रहण से संबंधित मुख्‍य कानून भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 है।
 
यह अधिनियम सरकार को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए भूमि के अधिग्रहण का अधिकार प्रदान करता है जैसे कि योजनाबद्ध विकास, शहर या ग्रामीण योजना के लिए प्रावधान, गरीबों या भूमि हीनों के लिए आवासीय प्रयोजन हेतु प्रावधान या किसी शिक्षा, आवास या स्‍वास्‍थ्‍य योजना के लिए सरकार को भूमि की आवश्‍यकता होती है।
 
इसे सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए शहरी भूमि के पर्याप्‍त भंडार के निर्माण हेतु लागू किया गया था, जैसे कि कम आय वाले आवास, सड़कों को चौड़ा बनाना, उद्यानों तथा अन्‍य सुविधाओं का विकास। इस भूमि को प्रारूप के तौर पर सरकार द्वारा बाजार मूल्‍य के अनुसार भूमि के स्‍वामियों को मुआवज़े के भुगतान के माध्‍यम से अधिग्रहण किया जाता है।
 
इस अधिनियम का उद्देश्‍य सार्वजनिक प्रयोजनों तथा उन कंपनियों के लिए भूमि के अधिग्रहण से संबंधित कानूनों को संशोधित करना है साथ ही उस मुआवज़े का निर्धारण करना भी है, जो भूमि अधिग्रहण के मामलों में करने की आवश्‍यकता होती है। 
 
इसके अलावा यदि लिए गए मुआवज़े को किसी विरोध के तहत दिया गया है, बजाय इसके कि इसे प्राप्‍त करने वाले को इसके प्रभावी होने के अनुसार पाने की पात्रता है, तो मामले को मुआवज़े की अपेक्षित राशि के निर्धारण हेतु न्‍यायालय में भेजा जाता है।
 
सभी राज्‍य विधायी प्रस्‍तावों में संपत्ति के अधिग्रहण या मांग के विषय पर कोई अधिनियम या अन्‍य कोई राज्‍य विधान, जिसका प्रभाव भूमि के अधिग्रहण और मांग पर है, में शामिल हैं। इनकी जांच राष्‍ट्रपति की स्‍वीकृति पाने के प्रयोजन हेतु धारा 200 (विधेयक के मामले में) या संविधान की धारा 213 (1) के प्रावधान के तहत भूमि संसाधन विभाग द्वारा की जाती है। इस प्रभाग द्वारा समवर्ती होने के प्रयोजन हेतु भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 में संशोधन के लिए राज्‍य सरकारों के सभी प्रस्‍तावों की जांच भी की जाती है, जैसा कि संविधान की धारा 254 की उपधारा (2) के अधीन आवश्‍यक है।
 
संसद में पूर्ण बहुमत प्राप्त भाजपा नरेंद्र मोदी सरकार सन 2013 में भूमि अधिग्रहण के लिए बने उचित मुआवजे का अधिकार, पुनर्स्थापन, पुनर्वास एवं भूमि पारदर्शिता अधिग्रहण अधिनियम 2013 में शामिल कई प्रावधानों को बदलने के लिए जोरशोर से मंथन में जुट चुकी है। ग्रामीण विकास मंत्री की भूमिका निभाते हुए नितिन गडकरी स्वयं पहले उक्त अधिनियम में बदलाव के सुझाव तैयार कर चुके हैं और बाद में सड़क, राजमार्ग एवं जहाजरानी मंत्री की भूमिका निभाते हुए संसद में उक्त कानून में बदलाव करने के लिए सहयोग की अपील करते दिखाई देते हैं।
 
 
क्या हैं अंग्रेजों के जमाने का भूमि अधिग्रहण अधिनियम... पढ़ें अगले पेज पर...

अंग्रेजों के शासनकाल में 120 वर्ष पूर्व बने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के बदले आजादी के 66 वर्ष बाद जनवरी 2014 से लागू उक्त कानून में चार महत्वपूर्ण प्रावधान हैं- (1) जबरन भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगाना, (2) पीपीपी योजनाओं के लिए सरकार की अनुमति और प्रभावित होने वाले तबके पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन कर प्रभावित तबके को पुनर्वास का लाभ देने की अनिवार्यता, (3) खाद्यान्न संकट से देश को बचाए रखने के लिए बहुफसली और सिंचित भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगाना और (4) किसानों की जमीन का जरूरत से पहले अधिग्रहण पर रोक लगाने के लिए अवार्ड हो जाने वाली जमीन का अनिवार्य रूप से पांच वर्ष की अवधि में मुआवजा वितरण करना और भौतिक कब्जा लेना जरूरी है अन्यथा जमीन का अधिग्रहण स्वतः ही रद्द हो जाएगा।
 
यही नहीं इस अवधि में अधिग्रहित जमीन को तीसरे पक्ष को बेचने पर होने वाले लाभ का बंटवारा कर चालीस फीसदी हिस्सा प्रभावित तबके को देने वाले कुछ अच्छे प्रावधान शामिल हैं। इस तरह का लाभ विशेष तौर पर अंग्रेजों के शासन में बने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के तहत उन प्रभावितों को भी मिलेगा जिनकी जमीन का अधिग्रहण पांच वर्ष या इससे अधिक अवधि पूर्व किया जा चुका है और प्रभावित जमीन पर भौतिक रूप से कब्जा किसानों के पास है या अधिग्रहित जमीन का मुआवजा किसानों को नहीं दिया गया है।
 
मोदी सरकार के द्वारा उक्त विधेयक में शामिल इसी तरह के प्रावधानों को भूमि के अधिग्रहण करने की प्रक्रिया को जटिल बनाने का दोषी मानते हुए उन्हें बदले जाने की बात कही जा रही है। ग्रामीण विकास मंत्री के द्वारा उक्त विधेयक में शामिल प्रावधानों के तहत जहां जमीन अधिग्रहण के लिए लोगों की मंजूरी हेतु सहमति 80 फीसदी से कम करके 50 फीसदी करने की बात कही जा रही है वहीं पीपीपी के लिए सरकारी प्रावधानों को हटाने की बात भी हो रही है।
 
इसके अलावा कानून में बहुफसली जमीन के अधिग्रहण पर रोक लगाने वाले प्रावधानों में भी बदलाव होने की उम्मीद है। उक्त विधेयक में इस तरह के बदलाव के बाद निजी योजनाओं के कारण समाज पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन करने और प्रभावित तबके का पुनर्वास करने की अनिवार्यता स्वतः ही समाप्त हो जाएगी।
 
मोदी सरकार में मौजूदा केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री की मंशा भाजपा के वरिष्ठ नेता और मोदी सरकार के प्रथम ग्रामीण विकास मंत्री गोपीनाथ मुंडे द्वारा जिस विधेयक का क्रियान्वयन सुनिश्चित करने की जो बात कही थी, उसके विपरीत है। यही नहीं, कार्यवाहक मंत्री की मंशा न केवल यूपीए दो के कार्यकाल में अस्तित्व में आए उक्त विधेयक के औचित्य को मिटाने की है बल्कि वह उक्त विधेयक से संबंधित तत्कालीन संसदीय समिति की अध्यक्ष रहीं और मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन की सिफारिशों तथा पिछली सरकार में नेता विपक्ष रहीं सुषमा स्वराज द्वारा संसद में भूमि अधिग्रहण विधेयक पर चर्चा के दौरान दिए गए सुझावों को हटाने की भी है। 
 
ऐसा किसलिए हो रहा है यह किसी से छुपा नहीं है। किसान और आदिवासियों की भूमि बचाने की खातिर न जाने कितने ही आंदोलन, धरने-प्रदर्शन और भूख हड़ताल होते रहे हैं। काफी जद्दोजहद के बाद पिछली सरकार के कान खड़े हुए थे और आखिरकार सितंबर 2013 में यूपीए-दो सरकार के कार्यकाल में 119 वर्ष पुराने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के बदले उचित मुआवजे का अधिकार, पुनर्स्थापन, पुनर्वास एवं भूमि पारदर्शिता अधिग्रहण अधिनियम 2013 नामक नया कानून बना।
 
मोदी सरकार द्वारा नए भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में की जा रही संशोधन की बात इंगित करती है कि सरकार लंबित और बंद पड़ी विकास योजनाओं को चालू करने के नाम पर बहुफसली भूमि के अधिग्रहण पर लगी रोक, भूमि अधिग्रहण से प्रभावित 80 फीसदी तबके की लिखित सहमति लेने की अनिवार्यता, सार्वजनिक निजी साझेदारी यानी पीपीपी विचार के लिए इस कानून को सबसे बड़ी रुकावट मानते हुए इसे दूर करने के लिए इसमें बदलाव जरूरी मानती है।
 
सरकारी स्तर पर इस तरह के बदलाव के बाद देश में जमीन के कारोबारियों से लेकर खदान और बांध बनाने वालों के ‘अच्छे दिनों’ के लिए न केवल देश के लाखों-करोड़ों किसान, आदिवासियों और खेतिहर मजदूरों को अब बेदखल होना पड़ेगा बल्कि देश की कृषि भूमि न केवल मंडी में बिकने वाले सामान की तर्ज पर बिकेगी, बल्कि विदेशी ताकतें एफडीआई के नाम पर निजी डेवलपरों के सहयोग से कृषि भूमि को रौंदते हुए कांक्रीट के जंगल में तब्दील कर देश को खाद्यान्न संकट में धकेलने का काम करेंगी।
 
इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री को नितिन गडकरी के सुझावों को उक्त अधिनियम में शामिल करने की अपेक्षा देशवासियों के साथ लोकतांत्रिक तरीके से चर्चा करनी चाहिए तथा देश के लिए अन्न पैदा करने के लिए खेती की जमीन, पीने के पानी के लिए नदियों और भूजल के स्रोतों को बचाने और पर्यावरण की हिफाजत के लिए वनों को बचाने वाले प्रावधानों को उक्त अधिनियम में शामिल करना चाहिए।
 
उद्योगों के पक्ष में होने वाला यह संभाव्य बदलाव किसान, आदिवासियों और खेतिहर मजदूरों सहित आने वाली पीढ़ियों के हितों को किनारे कर जमीन के कारोबारियों के लिए सहूलियत देना मात्र है। हालांकि कानून में बदलाव के पीछे सरकार की तरफ से यह दलील दी जा रही है कि मौजूदा कानून में शामिल प्रावधान भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को खासा जटिल बनाने वाले हैं, दूसरी ओर यह भी ध्यान देने की बात है कि भाजपा शासित राज्यों से आ रही मांग को देखते हुए केन्द्र ने इसमें बदलाव की योजना बनाई है। कुल मिलाकर यह सब एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है जिससे केवल सरकार के अपने ही हित सधेंगे।
 
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन के लिए एक अध्यादेश को मंजूरी दे दी। अध्यादेश में कानून में निर्धारित अनिवार्यताओं में से पांच और क्षेत्रों को बाहर रखा गया। मंत्रिमंडल की बैठक के बाद केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि किसानों के हित और औद्योगिक विकास के बीच संतुलन कायम करने की जरूरत है। जेटली ने कहा कि पांच क्षेत्रों में शामिल हैं- रक्षा उद्देश्य, ग्रामीण अवसंरचना, सस्ते मकान और गरीबों के लिए आवासीय परियोजना, औद्योगिक गलियारे और अवसंरचना या सामाजिक अवसंरचना (इनमें ऐसी सार्वजनिक-निजी परियोजनाएं भी शामिल होंगी, जिसमें भूमि की मिल्कियत सरकार के पास रहेगी) के लिए भूमि अ‍‍धिग्रहण को मंजूरी दी जाएगी। 
 
जेटली ने कहा कि कानून के मुताबिक मुआवजा राशि ऊंची होगी, पुनर्वास और स्थानांतरण कार्य को अंजाम दिया जाएगा, लेकिन इन परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया आसान होगी। इसमें सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन, खाद्य सुरक्षा मूल्यांकन, 80 फीसदी भूस्वामियों की सहमति और कानून में उल्लिखित अन्य कई प्रावधानों को नहीं अपनाया जाएगा। मंत्री ने कहा कि कानून में कई खामियां रह गई हैं।
 
उन्होंने कहा है कि हमने इस कानून में एक संतुलन स्थापित कर लिया है। इन पांच विकास गतिविधियों में प्रक्रिया में ढील दी गई है और उच्च मुआवजा राशि, पुनर्वास और स्थानांतरण को पूर्ववत कायम रखा गया है। उन्होंने कहा है कि ये पांच लक्ष्य विकास और ग्रामीण विकास से संबंधित हैं। यह पूछे जाने पर कि जिन मामलों में छूट दी गई है, उसके दायरे में एक विशाल क्षेत्र आ जाता है। जेटली ने कहा है कि ऐसा नहीं करने पर हम अवसंरचना (इन्फ्रास्ट्रक्चर) कैसे बनाएंगे? हमें इसके लिए भूमि की जरूरत होगी।
 
भूमि अधिग्रहण कानून में राजमार्ग, सिंचाई के नहरों, रेलमार्गों, बंदरगाहों जैसी सभी रैखिकीय परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण को अनिवार्यताओं से बाहर रखा गया है। कानून के प्रावधान 13 मौजूदा कानूनों के तहत भूमि अधिग्रहण पर भी लागू नहीं होते हैं, जिनमें मुख्य रूप से विशेष आर्थिक जोन अधिनियम-2005, परमाणु ऊर्जा अधिनियम-1962 और रेलवे अधिनियम-1989 जैसे कानून शामिल हैं।
 
और क्या कहता है मनमोहन सरकार का कानून... पढ़ें अगले पेज पर....

जबकि इससे पहले के भूमि-अधिग्रहण कानून, 2013 के प्रावधानों में बताया गया है कि (1) 80% किसानों के राज़ी होने पर ही भूमि का अधिग्रहण किया जाएगा, (2) 5 वर्ष तक इस्तेमाल नहीं होने पर भूमि वापस किसानों को दे दी जाएगी, (3) किसान द्वारा अधिग्रहीत जमीन के विवाद में किसी भी स्तर पर किसान हस्तक्षेप की मांग कर सकते हैं, (4) सार्वजनिक निजी भागीदारी के तहत किसानों के लिए पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना की व्यवस्था भी अवश्य करना होगी, (5) विधेयक के नए मसौदे के अनुसार सरकार अब निजी कम्पनियों के लिए या निजी उद्देश्यों के लिए जमीन का अधिग्रहण नहीं कर सकती, (6) कई फसलें उगाने वाली जमीन का अधिग्रहण सार्वजनिक उद्देश्य के लिए भी नहीं किया जाएगा, (7) इस मसौदे के अनुसार सरकार को बांध निर्माण जैसे सार्वजनिक कामों के लिए 80% किसानों की रजामंदी अनिवार्य नहीं रहेगी, (8) निजी कम्पनियों के निजी इस्तेमाल के लिए अब सरकार भूमि अधिग्रहण नहीं करेगी। यदि कम्पनियां 100 एकड़ या इससे अधिक भूमि का अधिग्रहण करती है तो उन्हें पुनर्वास पैकेज अपनी तरफ से देना होगा। पर सरकार इनमें बदलाव करना चाहती है।
 
अभी यह मसौदा है। इसलिए इस पर चर्चा तभी ज्यादा व सार्थक रहेगी, जब यह सुधारों, संशोधनों के बाद संसद से पास होकर विधेयक के रूप में हमारे सामने आ जाए। फिलहाल इन तमाम मसौदों से यह बात साफ झलक रही है कि सरकार शहरीकरण, औद्योगीकरण एवं बुनियादी ढांचे के विकास के नाम पर जमीन के अधिग्रहण को रोकने का नहीं, बल्कि उसे बढ़ावा देने का काम करने जा रही है। सरकार के इस मसौदे की मंशा एकदम साफ है कि अधिग्रहण तो हो पर विवाद कम से कम हो। किसानों को बेहतर मुआवजे तथा पुनर्वास व पुनर्स्थापना के सुझावों, लालचों से सहमत कराया जाए।
  
अब तक लागू होते रहे भूमि अधिग्रहण कानून और अब उसके नए मसौदों से भी ये बात साफ़ है कि चाहे वर्तमान कांग्रेस की सरकार हो या फिर भाजपा या किसी अन्य पार्टी या मोर्चे की सरकार हो, चाहे वह केंद्र की सरकार हो या फिर प्रांत की सरकार हो, वह कृषि भूमि अधिग्रहण पर अंकुश लगाने वाली नहीं है। बल्कि उसे वह मुआवजे और पुनर्वास के लालचों के साथ पुलिसिया दमनात्मक कार्रवाइयों के साथ ही आगे बढ़ाने वाली है, जैसा कि आज तक होता आ रहा है, क्योंकि धनाढ्य कंपनियों, बिल्डरों, डेवलपरों को निजी मालिकाना हक बढ़ाने की उदारवादी एवं निजी छूटें देने के बाद उन्हें देश के हर संसाधन का अधिकाधिक मालिकाना अधिकार भी दिलाया जाए।  
 
पिछले 20 सालों से लागू हो रही इन्हीं नीतियों के तहत पैसे-पूंजी के धनाढ्य मालिकों को यह अधिकार नीतिगत रूप से बढ़ाया जा रहा है। इसके फलस्वरूप ये हिस्से एक के बाद दूसरे क्षेत्र में अपना मालिकाना अधिकार बढ़ाते जा रहे हैं। स्वभावत: कृषि भूमि पर उनका मालिकाना अधिकार बढ़ाने में भी सरकारें उनका साथ नहीं छोड़ सकतीं। अत: चाहे कैसा भी किसान हिमायती दिखने वाला मसौदा क्यों ना आ जाए, सरकार उसके जरिए व किसानों से जमीन का मालिकाना हक छुड़ाने, छीनने से बाज़ भी नही आ सकती।
 
जहां तक मसौदे में निजी कम्पनियों के हितों के लिए सरकार द्वारा अधिग्रहण न करने का मामला है, तो उसके निजी हितों, स्वार्थों को कहना बताना जितना आसान है, उतना ही आसान उसके जरिए सार्वजनिक हितों को दिखलाना भी है। क्योंकि उत्पादन, विनिमय जैसी आर्थिक क्रियाएं चाहे सार्वजनिक क्षेत्र की हों या निजी क्षेत्र की, वह सामाजिक आर्थिक क्रियाओं को ही परिलक्षित करती है। यह बात दूसरी है कि निजी क्षेत्र से प्रत्यक्ष: और सार्वजनिक क्षेत्र से भी अप्रत्यक्ष: रूप से सबसे ज्यादा लाभ उठाने वाली निजी कम्पनियां ही होती हैं। अत: निजी कम्पनियों द्वारा लाभ के लिए किए जा रहे अधिग्रहण को भी अंतत: निजी मालिकाने में सार्वजनिक हित के लिए किया जाने वाला अधिग्रहण साबित कर दिया जाता है। 
 
फिर इस संदर्भ में अगली व महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले 20 सालों के पूरे दौर में सरकार सार्वजनिक क्षेत्रों के अपने मालिकाना हक को बड़े धनाढ्य मालिकों को मुकम्मल तौर पर सौंपती जा रही है। अत: कृषि भूमि का सरकार द्वारा सार्वजनिक हित के नाम पर किया जा रहा अधिग्रहण भी क्या कल धनाढ्य कम्पनियों के निजी मालिकाना हक के लिए नहीं किया जाएगा? क्योंकि निजीकरण वादी नीति का मतलब ही है की सार्वजनिक क्षेत्र का मालिकाना हक निजी हाथों में सौंप दिया जाना चाहिए ताकि वे अपने दक्ष एवं कुशल प्रबंधन से उसे अधिकाधिक लाभकारी (जाहिर सी बात है अपने लिए) बना दें।
 
इसलिए इस दौर में सार्वजनिक हित के नाम पर शहरीकरण औद्योगीकरण और बुनियादी ढांचे के विकास में ऊपर से थोड़ा बहुत सार्वजनिक हित भले ही दिखाई पड़ जाए परंतु उसके भीतर धनाढ्य कम्पनियों का हित व मालिकाना अधिकार ही छुपा हुआ है। अत: आम किसानों व अन्य ग्रामवासियों को इस मसौदों व नए भूमि विधेयक के झांसे में आने की जगह भूमि अधिग्रहण का निरंतर विरोध जारी रखना चाहिए। 
 
ग्रामीण विकास मंत्रालय ने भूमि अधिग्रहण कानून में ऐसे संशोधनों के सुझाव दिए हैं, जो सार्वजनिक निजी भागीदारी वाली परियोजनाओं की खातिर भूमि अधिग्रहण के लिए 70 फीसदी स्थानीय लोगों की और निजी परियोजनाओं के लिए 80 फीसदी लोगों की मंजूरी की जरूरत जैसे किसान के समर्थक प्रावधानों को कमजोर करेंगे।
 
यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ग्रामीण विकास मंत्रालय के प्रस्तावों को सहमति दे देते हैं तो संप्रग सरकार के कार्यकाल के दौरान लागू हुए भूमि अधिग्रहण कानून में बड़े बदलाव हो सकते हैं। इन प्रस्तावों में उस महत्वपूर्ण प्रावधान को भी कमजोर किया जा सकता है, जिसमें सामाजिक प्रभाव आकलन अध्ययन की बात है।
 
राज्यों की ओर से इस अध्ययन का यह कहकर विरोध किया जाता रहा है कि इससे औद्योगीकरण की प्रक्रिया में ज्यादा समय लगता है। मंत्रालय ने प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजे नोट में कहा, 'सहमति प्रावधान की दोबारा जांच की जानी चाहिए क्योंकि पीपीपी परियोजनाओं में भूमि का मालिकाना हक सरकार के पास होता है। पीपीपी परियोजनाओं से सहमति प्रावधान हटाया जाना चाहिए। वैकल्पिक तौर पर सहमति की जरूरत को कम करके 50 फीसदी तक लाया जा सकता है।'
 
नोट में कहा गया कि 'अनिवार्य सामाजिक प्रभाव आकलन अध्ययन को इससे अलग रखा जाना चाहिए। यह अध्ययन बड़ी परियोजनाओं या पीपीपी परियोजनाओं तक सीमित होना चाहिए क्योंकि इससे अधिग्रहण की प्रक्रिया में देरी हो सकती है।' इसमें 'एक से अधिक फसलों वाली सिंचित जमीन के अधिग्रहण पर एक अन्य प्रमुख प्रावधान में संशोधन का भी सुझाव दिया गया है।
 
इसमें कहा गया है, 'खाद्य सुरक्षा (धारा 10) की रक्षा के लिए, एक से अधिक फसलों वाली सिंचित भूमि के अधिग्रहण के स्थान पर बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाने वाले प्रावधान भी संशोधित किया जाना चाहिए क्योंकि दिल्ली, गोवा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में ऐसी कोई बंजर जमीन है ही नहीं जिसका इस काम के लिए इस्तेमाल किया जा सके।'
 
मंत्रालय की ओर से कानून में बड़े बदलावों के ये सुझाव तब आए हैं, जब अधिकतर राज्य नए कानून के बारे में यह कहते हुए खुले तौर पर विरोध जता चुके हैं कि इससे इन्फ्रा प्रोजेक्ट्स के लिए जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया प्रभावित हुई थी। उन्होंने इस कानून के कई प्रावधानों में भारी बदलावों की मांग की। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी की अध्यक्षता में राज्य राजस्व मंत्रियों की बैठक में कांग्रेस शासित हरियाणा समेत कई राज्यों ने अनिवार्य सहमति और सामाजिक प्रभाव आकलन अध्ययन का विरोध किया। यह वे प्रावधान हैं, जो सभी भूमि अधिग्रहणों में अनिवार्य बनाए गए हैं।