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Written By Author अनिल जैन

आरक्षण पर अदालत की लगाम, सरकारों को सबक

आरक्षण पर अदालत की लगाम, सरकारों को सबक - Jat community
सुप्रीम कोर्ट ने जाट समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के आरक्षण कोटे में शामिल करने के लिए पिछली यूपीए सरकार की ओर से जारी अधिसूचना को रद्द कर दिया। देश की सर्वोच्च अदालत ने इस सिलसिले में ओबीसी आरक्षण रक्षा समिति की एक जनहित याचिका पर अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि जाति एक महत्वपूर्ण कारक है, लेकिन आरक्षण के लिए यही एक आधार नहीं हो सकता है। इसके लिए सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन का आधार भी जरूरी है। 
 
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के साथ ही अब केंद्र सरकार की नौकरियों और केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में जाटों को आरक्षण नहीं मिलेगा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का देश के नौ राज्यो में जारी जाट आरक्षण पर कोई असर नहीं पड़ेगा। यूपीए सरकार ने लोकसभा चुनाव की घोषणा से ठीक पहले 4 मार्च, 2014 को जारी एक अधिसूचना के जरिए दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश के जाटों को ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल कर लिया था। 
 
इसी आधार पर जाटों को केंद्र सरकार की नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों में ओबीसी कोटे के तहत आरक्षण का हक मिल गया था। चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी भाजपा सरकार ने भी इस अधिसूचना को जारी रखा था। उपरोक्त राज्यों में जाटों की खासी तादाद है और कुछ राज्यों में तो वे चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। इन राज्यों में जाटों को ओबीसी में पहले ही शामिल किया जा चुका है, जबकि वे लंबे समय से केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण की मांग कर रहे थे।
 
पिछले डेढ़-दो दशक से जाटों को आरक्षण देने का मुद्दा राजनीति में गूंजता आया है। कई राज्य सरकारों ने इस समुदाय के राजनीतिक समर्थन के बदले इसे आरक्षण का लाभ दिया। 1999 में एक वोट से एनडीए की सरकार गिर जाने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अगले आम चुनाव का प्रचार करते हुए राजस्थान के सीकर में एक सभा को संबोधित करते हुए जाटों को आरक्षण देने की घोषणा की थी। इसके तहत भरतपुर और धौलपुर के जाटों को छोड़कर राजस्थान के पूरे जाट समुदाय को आरक्षण की सुविधा देने का वादा किया गया। इसके बाद उत्तर प्रदेश, हरियाणा और अन्य कई राज्यों के जाट भी इसकी मांग करने लगे। 2004 के बाद से इसे लेकर कई बड़े आंदोलन हुए। यूपीए सरकार ने भी पिछले साल ऐन चुनाव से पहले सियासी फायदे के लिए जाटों को ओबीसी लिस्ट में शामिल करने की अधिसूचना जारी कर दी थी। 
 
केंद्र सरकार की नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में जाटों को पिछड़े वर्ग के तहत दिए गए आरक्षण को रद्द करने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला उन तमाम राजनीतिक दलों के लिए एक सबक है, जो सियासी फायदे के लिए आरक्षण की नई-नई मांगों को हवा देते रहते हैं। ऐसा करते हुए में वे यह देखने या विचारने की जहमत भी नहीं उठाते हैं कि कोई समुदाय आरक्षण का हकदार है या नहीं। जाटों को ओबीसी की केंद्रीय सूची में रखने के यूपीए सरकार के फैसले के राजनीतिक कोण को इसी से समझा जा सकता है कि इसकी अधिसूचना उसने लोकसभा चुनाव की घोषणा से महज एक दिन पहले जारी की थी। उसके इस फैसले से तमाम समाजविज्ञानी और कानूनविद भी हैरत मे पड़ गए थे,  क्योंकि इस संबंध मे तत्कालीन सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की राय नहीं ली थी। जबकि सुप्रीम कोर्ट बहुत पहले ही यह हिदायत दे चुका था कि ओबीसी सूची मे किसी नए लाभार्थी समुदाय को दाखिल करने के लिए आयोग की सहमति जस्र्री है। 
 
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से उद्वेलित जाट समुदाय अभी भी अपनी जिद छोड़ने को तैयार नहीं है। अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के अध्यक्ष यशपाल मलिक का कहना है कि हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले से संतुष्ट नहीं है और इसके खिलाफ समीक्षा याचिका दायर करने के लिए सरकार पर दबाव डालेंगे। अगर सरकार ऐसा नहीं करेगी तो जाट समुदाय समीक्षा याचिका दायर करेगा। उनका कहना है कि इसके बाद भी अगर फैसला जाट आरक्षण के खिलाफ आता है तो हम आंदोलन का रास्ता अख्तियार करेंगे और सरकार को बाध्य करेंगे कि वह जाटों को आरक्षण देने के लिए संसद में कानून बनाए और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दे, जैसा कि शाहबानो प्रकरण में हुआ था। मलिक का कहना है कि इस देश में अपना हक कौन छोड़ता है, जो हम छोड़ देंगे। 
 
केंद्रीय सेवाओं में आरक्षण की जाटों की मांग दो दशक से भी पुरानी है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने सितंबर 1992 में ही स्पष्ट कर दिया था कि जाटों को ओबीसी की श्रेणी में शामिल नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े नहीं हैं। आयोग ने कहा था कि जाट कृषि कार्य से जुड़े हैं, लेकिन अब वे काफी आगे बढ़ चुके हैं। यूपीए सरकार को निश्चित ही यह अंदाजा रहा होगा कि आयोग से अगर इस बारे में पूछा गया तो उसका क्या मत होगा। इसीलिए जानबूझकर उसकी अनदेखी की गई। पर हासिल क्या हुआ? यूपीए को चुनाव नतीजों ने तो निराश किया ही और अब  जाटों को ओबीसी की श्रेणी मे रखने का उसका निर्णय भी न्यायिक समीक्षा मे टिक नहीं पाया। यूपीए सरकार के इस फैसले का समर्थन तब भाजपा ने भी किया था। उसका भी कहना था कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की राय को मानने के लिए सरकार बाध्य नहीं है। जाहिर है, वोटों को साधने की कवायद मे कोई किसी से पीछे नही रहना चाहता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा फैसले के जरिए उन्हें अहसास कराया है कि आरक्षण मनमाने ढंग से तय नहीं किया जा सकता। 
 
इसी के साथ अदालत ने कुछ नए मापदंड भी सुझाए हैं। उसने यह तो माना है कि भारतीय समाज में खासकर हिंदुओं में पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारक जाति है, पर इसे एकमात्र आधार नहीं बनाया जाना चाहिए। पिछड़ेपन की कुछ और भी कसौटियां होनी चाहिए। दूसरे, पिछड़ेपन का पैमाना किसी समुदाय विशेष के साथ केवल अतीत में हुआ अन्याय नहीं हो सकता। आरक्षण का निर्धारण इस बात से होना चाहिए कि मौजूदा वक्त में किसी समुदाय की स्थिति कैसी है। इसलिए पुराने आंकड़ों का नहीं, बल्कि नए प्रामाणिक सर्वेक्षणों का सहारा लिया जाए। किन्नरों को आरक्षण का लाभ देने के अपने निर्णय का उदाहरण देते हुए सर्वोच्च अदालत ने कहा कि ऐसे वंचित समूहों की पहचान की जा सकती है, जो वास्तव में विशेष अवसर की सुविधा के हकदार है, पर उन्हें यह हक नहीं मिल रहा है।
 
अदालत ने सवाल उठाया है कि ओबीसी की सूची मे लाभार्थी समुदायों की संख्या तो जरूर बढ़ी है, लेकिन किसी को उससे बाहर क्यों नही किया गया? क्या सूची में शामिल समुदायों मे से कोई भी अब तक पिछड़ेपन के दायरे से बाहर नही आ सका है? अगर ऐसा है तो फिर ओबीसी आरक्षण शुरू होने के समय से अब तक देश में हुई प्रगति के बारे में हम क्या कहेंगे? दरअसल, राजनीति का खेल ऐसा है कि आरक्षण का लाभ पा रहे बेहतर स्थिति वाले किसी समुदाय को उससे बाहर करने की बात कभी नहीं उठती, अलबत्ता दूसरे उनसे भी ज्यादा उन्नत समुदाय आरक्षण के दावेदार बना दिए जाते हैं। इस तरह आरक्षण सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े और वंचित समुदायों के सशक्तीकरण का जरिया बनने के बजाय आरक्षित सूची की ताकतवर जातियों के बीच लाभ हड़पने की होड़ का मैदान बन जाता है। यह संविधान में वर्णित आरक्षण और सामाजिक न्याय की मूल अवधारणा के भी सरासर खिलाफ है। 
 
दलित संगठनों के राष्ट्रीय महासंघ के अध्यक्ष अशोक भारती कहते हैं कि हमारे संविधान निर्माओं ने आरक्षण की व्यवस्था वंचित तबकों को सामाजिक न्याय देने के लिए की थी लेकिन हमारे राजनीतिक दलों ने अपने राजनीतिक फायदे के लिए सामाजिक न्याय के इस औजार के जरिए सामाजिक अन्याय ही ज्यादा किया है। भारती के मुताबिक केद्रीय सेवाओं में जाटों को ओबीसी-आरक्षण सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर उचित ही किया है, मगर आरक्षण की व्यवस्था में कई विसंगतियां अभी भी बनी हुई हैं। इन विसंगतियों को भी दूर किया जा सकता है, बशर्ते सरकारें और राजनीतिक दल उन मापदंडों को गंभीरता से लें, जो सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में सुझाए हैं।
 
सवाल यही है कि क्या सरकारें और राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के फैसले की भावनाओं को गंभीरता से समझेंगे या ताकतवर और राजनीतिक रूप से संगठित जातीय समुदायों के बेजा दबाव के आगे झुकते रहेंगे? यह सवाल इसलिए उठता है कि महाराष्ट्र में मराठा समुदाय के आरक्षण के मामले में भी पिछले दिनों महाराष्ट्र की भाजपा-शिवसेना सरकार ने उच्च अदालत के फैसले को नजरअंदाज करते हुए कानून पारित कर आर्थिक और राजनीतिक रूप से ताकतवर मराठा समुदाय को आरक्षण का हकदार बना दिया। 
 
जबकि हकीकत यह है कि जिन आधारों पर सुप्रीम कोर्ट ने जाटों के आरक्षण को खारिज किया है, वही आधार मराठों के आरक्षण मामले में भी लागू होते हैं। महाराष्ट्र में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की पिछली सरकार और भाजपा-शिवसेना सरकार, दोनों ही मराठों को आरक्षण देने के मामले में एकमत रही हैं। जाट और मराठा समुदाय के आरक्षण में कुछ समानताएं हैं। जाट समुदाय को आरक्षण देने का फैसला जहां यूपीए सरकार ने 2014 के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले किया था, वहीं महाराष्ट्र में मराठा समुदाय को आरक्षण देने के लिए कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांगे्रस पार्टी की सरकार ने भी 2014 के विधानसभा चुनाव से पहले अध्यादेश जारी किया था।
 
सुप्रीम कोर्ट ने जाटों के आरक्षण को निरस्त करते हुए कहा है कि जाति का पिछड़ापन आर्थिक और सामाजिक दर्जे पर निर्भर करता है। इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला मराठों के मामले में भी अहम साबित हो सकता है, क्योंकि दोनों ही जातियों की स्थिति एक जैसी हैं। मराठा समुदाय को शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के महाराष्ट्र की पूर्ववर्ती कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की सरकार के फैसले को बॉम्बे हाई कोर्ट में याचिका के माध्यम से चुनौती देने वाले पूर्व पत्रकार केतन तिरोड़कर  कहते हैं, 'हमने हाई कोर्ट के सामने पेश अपनी दलील में कहा था कि मराठा समुदाय महाराष्ट्र में ओबीसी कोटे के तहत आरक्षण पाने का हकदार नहीं है, क्योकि यह समुदाय राज्य में राजनीतिक स्र्प से संगठित और ताकतवर है।'
 
हाई कोर्ट ने मराठों को आरक्षण देने का राज्य सरकार का फैसला रद्द कर दिया था, लेकिन भाजपा-शिवसेना सरकार ने इस मामले में आगे बढ़कर इससे संबंधित अध्यादेश को पारित करके कानून कास्र्प दे दिया। तिरोडकर ने पिछले साल दाखिल अपनी याचिका सवाल उठाया था कि महाराष्ट्र के गठन के बाद राज्य में बने 20 मुख्यमंत्रियों मे से 17 मराठा समुदाय के रहे हैं और राज्य की तीन चौथाई चीनी मिलें और शैक्षणिक संस्थाएं मराठा समुदाय के लोग चला रहे हैं। ऐसे में उसे किस आधार पर पिछड़ा माना जा सकता है। 
 
दिलचस्प बात यह भी है कि जाटों के आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहकर खारिज किया कि अगर पहले गलती से किसी वर्ग को इसमें शामिल कर लिया गया था तो जस्र्री नहीं कि उसी आधार पर उसको आगे भी शामिल रहने दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट की इस दलील से मराठा आरक्षण खटाई में पड़ सकता है, क्योंकि जिस आधार पर मराठों को आरक्षण दिया गया है उसमें से एक में यह दावा किया गया है कि मराठों की उपजाति कुनबी समुदाय को पहले भी बेरोकटोक ओबीसी में शामिल किया गया है।
 
कैसी अजीब विडंबना है कि एक तरफ सरकारी नौकरियां लगातार कम होती जा रही हैं, दूसरी तरफ सरकारें आरक्षण पर आरक्षण दिए जा रही हैं। कोई ढाई दशक पूर्व नव उदारीकृत आर्थिक नीतियां लागू होने के पहले तक देश के सकल रोजगार में सरकारी नौकरियां का हिस्सा दो फीसदी था, जिसमें आर्थिक उदारीकरण के बाद विभिन्न क्षेत्रों में निजीकरण के चलते और कमी आ गई है। इसके बावजूद अलग-अलग जातीय समुदायों की ओर से आरक्षण की मांग उठती रहती है। जो समुदाय सरकार पर दबाव डालने में सफल हो जाता है, वह आरक्षण पाने में सफल हो जाता है। 
 
समाजशास्त्री प्रोफेसर आनंद कुमार का मानना है कि विकास प्रक्रिया का फायदा समाज के कुछ ही तबकों तक पहुंचा है, इसलिए विभिन्न जातियां अपने को किसी न किसी तरह आरक्षित श्रेणी में शामिल कराना चाहती हैं। अफसोस की बात यह है कि उनके ऐसा करने में कामयाब हो जाने के बाद भी आरक्षण का फायदा चंद लोगों को ही मिल पाता है। दरअसल, आरक्षण से अगर सचमुच व्यापक तौर पर समाज का भला होता, तो कई आरक्षित जातियां अब भी पिछड़ेपन के चक्रव्यूह मे न फंसी होती। बेहतर तो यही होगा कि लोग आरक्षण का मोह छोड़े और सरकार को सर्वसमावेशी विकास की नीतियां अपनाने के लिए बाध्य करें।