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Written By अनिल जैन
Last Modified: गुरुवार, 8 जनवरी 2015 (23:30 IST)

कौन हैं हमारी खेती की बर्बादी के असली गुनाहगार?

कौन हैं हमारी खेती की बर्बादी के असली गुनाहगार? - Indian agriculture
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की सत्ता के सूत्र संभालने के बाद जिन कामों को अपनी प्राथमिकता सूची में शामिल किया, उनमें हमारी बदहाल खेतीबाड़ी और किसानों का कहीं जिक्र नहीं है। 
अलबत्ता 'सांसद आदर्श ग्राम योजना' के जरिए उन्होंने गांवों की दशा सुधारने की प्रतीकात्मक पहल जरूर की है और इसके जरिए महात्मा गांधी के विचारों से अपना जुड़ाव भी प्रदर्शित किया है, लेकिन इस योजना में भी खेतीबाड़ी और उसके सहारे चलने वाले ग्रामोद्योगों तथा किसानों की कोई जगह नहीं है, जिन्हें गांधी भारत की आत्मा मानते थे। 
 
सवाल है कि आखिर खेती और किसानों की दशा सुधारे बगैर गांवों की दशा कैसे सुधारी जा सकती है? गांधी की वैचारिक विरासत के दावेदारों यानी आजाद भारत के शासकों ने विकास का जो मॉडल अपनाया उसने भी किसानों का कोई भला नहीं किया बल्कि उसके चलते ही आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी हमारी खेती आज गहरे संकट में फंसी हुई है। खेती का रकबा लगातार सिकुड़ रहा है और तमाम आर्थिक दुश्वारियों के चलते देश के विभिन्न इलाकों में किसानों के आत्महत्या करने का सिलसिला बना हुआ है।
 
वैसे देश में खेतीबाड़ी की बदहाली हाल के वर्षों की कोई ताजा परिघटना नहीं है, बल्कि इसकी शुरुआत आजादी के पूर्व ब्रिटिश हुकूमत के समय से ही हो गई थी। कोई समाज कितना ही पिछड़ा क्यों न हो, उसमें बुनियादी समझदारी तो होती ही है। अंग्रेजों से पहले के राजे-रजवाड़े खेतीबाड़ी के महत्व को समझते थे। इसलिए वे किसानों के लिए नहरें-तालाब इत्यादि बनवाने और उनकी साफ-सफाई करवाने में पर्याप्त दिलचस्पी लेते थे। वे यह अच्छी तरह जानते थे कि किसान की जेब गरम रहेगी तो ही हम तमाम मौज-शौक कर सकेंगे। उस दौर में देश के हर इलाके में खेतों की सिंचाई के लिए नहरों का जाल बिछा हुआ था। 
 
भारत ही नहीं, कृषि पर आधारित दुनिया की किसी भी सभ्यता में नहरों का केंद्रीय महत्व हुआ करता था। यह भी कह सकते हैं कि यही नहरें उनकी जीवन रेखा होती थीं। भारत में इस जीवन रेखा को खत्म करने का पाप अंग्रेज हुक्मरानों ने किया। जहां-जहां उन्होंने जमींदारी व्यवस्था लागू की वहां-वहां नहरें या तो सूख गईं या फिर उन्हें पाट दिया गया। 
 
भ्रष्ट और बेरहम जमींदार पूरी तरह अंग्रेज परस्त थे और राजाओं के कारिंदे होते हुए भी अंग्रेजों को ही अपना भगवान मानते थे। किसानों के दुख-दर्द और समस्याओं से उनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था। उन्हें तो बस किसानों से समय पर लगान चाहिए होता था। समय पर लगान न चुकाने वाले किसानों पर जमींदार और उनके कारिंदे तरह-तरह के शारीरिक, मानसिक और आर्थिक जुल्म ढहाते थे। रही सही कसर सूदखोर महाजन पूरी कर देते थे, जो किसानों को कर्ज और ब्याज की सलीब पर लटकाए रहते थे। तो इस तरह ब्रिटिश हुक्मरानों के संरक्षण में जालिम जमींदारों और लालची महाजनों के दमनचक्र के चलते भारतीय खेती के सत्यानाश का सिलसिला शुरू हुआ।
 
खेती की बर्बादी के इसी दौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय हो चुका था और उसके झंडे तले हमारा राष्ट्रीय आंदोलन भी परवान चढ़ने लगा था। किसी भी आह को कोई न कोई आवाज मिलती ही है, सो राष्ट्रीय आंदोलन के चलते किसानों के राजनीतिक शुभचिंतक भी उभरने लगे थे। चूंकि वे लोग भारत की मिट्टी से जुड़ाव रखते थे, इसलिए भारत को और भारत की समस्याओं से बखूबी वाकिफ थे। उनका इतिहासबोध भी सचेत था। वे जानते थे कि ब्रिटिश राज के पहले भारत समृद्ध था और उसके शहर उस वक्त के पेरिस, लंदन आदि के मुकाबले समृद्ध और सुखी थे, तो इसीलिए कि भारत की खेती हरीभरी थी और देश के अलग-अलग इलाकों में परंपरागत उद्योग-धंधों का जाल बिछा हुआ था। 
 
अंग्रेज आए तो उन्होंने यहां की खेती को ही नहीं, उद्योग-धंधों को भी चौपट करने का सिलसिला शुरू कर दिया। महात्मा गांधी अंग्रेजों से पहले के भारत का पुनर्वास करने का सपना देखते थे। आजादी मिली तो लोगों को उम्मीद बंधी कि गांधी का सपना परवान चढ़ेगा। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका। गांधी और उन्हीं की तरह सोचने वालों को प्रतिक्रियावादी और दकियानूस कहा-समझा जाने लगा। लेकिन जो खुद को आधुनिक और गांधी को पीछे देखू मानते थे, उन्होंने क्या किया? वे चाहते तो भारतीय खेती को पटरी पर लाने के ठोस जतन कर सकते थे, लेकिन गुलामी के कीटाणु उनके खून से जा ही नहीं पाए। उनकी भी विकासदृष्टि अपने पूर्ववर्ती गोरे शासकों से ज्यादा अलहदा नहीं रह पाई। 
 
हमारे जो राष्ट्र-निर्माता गांधी को पीछे देखू या दकियानूस और खुद को आधुनिक मानते थे, उनके लिए देश की किसान बिरादरी का महत्व इतना ही था कि वह अन्न के मामले में देश को आत्मनिर्भर बना सकती है। उसके लिए जितना करना जरूरी था, उतना कर दिया गया। चूंकि उनकी समझ यह भी बनी हुई थी कि जरूरत पड़ने पर विदेशों से भी अनाज मंगाया जा सकता है। इसलिए उन्होंने कभी यह महसूस ही नहीं किया कि हमारी खेतीबाड़ी समृद्ध हो और हमारे किसान व गांव खुशहाल बनें। 
 
नतीजा यह हुआ कि आयातित बीजों और रासायनिक खाद के जरिए जो हरित क्रांति हुई, वह देशव्यापी स्वरूप नहीं ले सकी। उसका असर सिर्फ पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तरप्रदेश जैसे देश के उन्हीं इलाकों में देखने को मिला, जहां के किसान खेती में ज्यादा से ज्यादा पूंजी निवेश कर सकते थे। शासक वर्ग का मकसद यदि आम किसानों को सुखी-समृद्ध बनाने का होता तो देश के उन इलाकों में नहरों का जाल बिछा दिया जाता, जहां सिंचाई व्यवस्था पूरी तरह चौपट हो चुकी है। 
 
ऐसा होता तो खेती की लागत भी कम होती और कर्ज की मार तथा मानसून की बेरुखीके चलते किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर नहीं होना पड़ता। लेकिन हुआ यह कि जो बची-खुची नहरें, तालाब इत्यादि परंपरागत सिंचाई के माध्यम थे, उन्हें भी दिशाहीन औद्योगीकरण और सर्वग्रासी विकास की प्रक्रिया ने लील लिया। जहां खेती में पूंजी निवेश हुआ, वहां भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन हुआ और बिजली की जरूरत भी बढ़ गई। रही-सही कसर कीमतों की मार और बेहिसाब करारोपण ने पूरी कर दी। 
 
हमारे देश में आम आदमी को लूटने का सबसे बड़ा माध्यम है दैनिक उपभोग की वस्तुओं के दामों में शोषणकारी बढ़ोतरी और कदम-कदम पर सरकारी करों का जाल। कीमतों की मार भी दोतरफा होती है। एक ओर हमारे यहां श्रम का उचित मूल्य भी नहीं दिया जाता। यह इसलिए संभव हो पाता है कि रोजगार में लगे हर व्यक्ति पर सैकड़ों बेरोजगारों का दबाव रहता है। इससे श्रमिक की मोलभाव करने की क्षमता कम हो जाती है और उसे जो मजदूरी मिलती है, उसी से संतोष करना पड़ता है। 
 
खेतों में काम करने वाले मजदूरों की हालत तो और भी ज्यादा बद्तर है। बड़े किसान तो खेतिहर मजदूरों के श्रम का शोषण करते ही हैं, छोटे किसान चूंकि खुद गरीब होते हैं, लिहाजा वे भी अपने खेतों में काम करने वालों को पर्याप्त मजदूरी नहीं दे पाते। इस सबका असर यह होता है कि छोटे किसानों और उनके यहां काम करने वाले मजदूरों की क्रयशक्ति में बढ़ोतरी बहुत ही धीमी गति से होती है और उनका उपभोग स्तर काफी नीचे बना रहता है।
 
कीमतों की दूसरी मार खेती की उपज की कीमतों पर होती है। जब मौसम के बेगानेपन या किसी और वजह से फसल चौपट हो जाती है, तब तो छोटा किसान मुसीबत में होता ही है, जब फसल अच्छी होती है, तब भी उसकी दुश्वारियां कम नहीं होतीं, क्योंकि तब उसे उसकी फसल की उचित कीमत नहीं मिलती। आधुनिक कृषि प्रणाली ने कई तकनीकी सुविधाएं जरूर उपलब्ध करा दी हों, लेकिन कुल मिलाकर उसने किसानों की समस्याएं ही बढ़ाई हैं। 
 
खेती की लागत बढ़ गई है और हर अगली फसल के लिए कर्ज लेना किसानों की मजबूरी बनती गई है। यह सोचने की जहमत किसी ने नहीं उठाई कि अगर खेती लाभकारी नहीं होगी तो कर्ज चुकाने की गुंजाइश कहां से निकलेगी? यही वजह है कि खेती के लिए कर्ज लेने वाले बहुत-से किसान आखिरकार अपने को इस स्थिति में पाते हैं कि उनके पास असमय ही मौत को गले लगाने के अलावा कोई चारा नहीं है। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि किसी की रोजी-रोटी का सहारा ही उसके लिए दुष्चक्र बन जाए। 
 
फिर किसानों का संकट सिर्फ उनका अपना संकट ही नहीं है। यह सवाल देश की खाद्य सुरक्षा से भी ताल्लुक रखता है। पीएचडी चेम्बर ऑफ कॉमर्स की एक रिपोर्ट में भी कहा गया है कि देश की बढ़ती आबादी के अनुपात में खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी नहीं हो रही है। रिपोर्ट बताती है कि कृषि क्षेत्र पर मेहरबानी के तमाम सरकारी दावों के बावजूद हमारा खाद्यान्न उत्पादन घट गया है। यह बेहद खतरनाक संकेत है। खासकर इन हालात में जब इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्‌यूट द्वारा जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2014 में 76 देशों में भारत को 55वां स्थान मिला है। इस कतार में सूडान, उत्तर कोरिया और पाकिस्तान तक हमसे बेहतर हालत में हैं। 
 
दुनियाभर के कुपोषित बच्चों में भारत की हिस्सेदारी 38 फीसदी है और पूरी दुनिया में हर साल कुपोषण से मरने वाले 60 लाख बच्चों में 21 फीसदी भारत से होते हैं। देश में पांच वर्ष तक की उम्र के लगभग 45 फीसदी बच्चे समुचित आहार के अभाव में अंडरवेट हैं। ये सारे तथ्य भारत में भूखमरी के खतरनाक हालात को बयान करते हैं और शायद इसकी सबसे बड़ी वजह कमतर खाद्य उत्पादन ही है।
 
सवाल उठता है कि तमाम कोशिशों के बावजूद खाद्यान्न उत्पादन जरूरत के अनुपात में बढ़ने के बजाय घट क्यों रहा है? इसकी प्रत्यक्ष वजह मौजूदा नीतियों में निहित खामियां ही दिखती हैं। औद्योगिक विकास और विदेशी पूंजी निवेश की चिंता में दुबली होती हमारी सरकारों ने किसानों की लगातार अनदेखी की है। शहरीकरण और औद्योगीकरण के चलते खेती का रकबा लगातार घटता जा रहा है। खेती घाटे का सौदा बन गई है और किसान कर्ज के कुचक्र में फंस गया है। नतीजतन खेती से उसका मोहभंग होता जा रहा है। 
 
कहा जा सकता है कि हमारी खेती और किसानों की मौजूदा हालत देश की कृषि नीति की ही नहीं, बल्कि विकास नीति की भी केंद्रीय विफलता है। इस विफलता के अपराधी हमारे वे योजनाकार या नीति-नियंता हैं, जिन्हें सामाजिक और आर्थिक समता का दर्शन खटकता है, बकवास लगता है। सवाल यही है कि सबके के लिए अच्छे दिन लाने का वायदा कर सत्ता में आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमारी खेती और किसानों के दुर्दिनों को खत्म करने के लिए क्या इस दोषपूर्ण विकास नीति को बदलने का कौशल और साहस दिखा पाएंगे?