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Written By Author अनिल जैन

भारत-पाक के बीच कौन चाहता है युद्ध?

भारत-पाक के बीच कौन चाहता है युद्ध? - India, Pakistan, terrorism, terrorist attack
जम्मू-कश्मीर के उड़ी सेक्टर में भारतीय सेना के ठिकाने पर हुए भीषण आतंकवादी हमले से पूरा देश क्षुब्ध और उद्वेलित है। इस हमले में हमारे 18 जवान मारे गए और इतने ही बुरी तरह जख्मी हुए हैं। शुरुआती जांच में स्पष्ट हो गया है कि हमले में जैश-ए-मुहम्मद नामक कुख्यात आतंकवादी संगठन का हाथ है जिसे पाकिस्तानी सेना और वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई से खाद-पानी मिलता है। 
जाहिर है कि कश्मीर घाटी में पिछले कुछ समय से जारी तनाव का पाकिस्तान ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाना चाहता है। एक तरफ वह संयुक्त राष्ट्र के मंच से कश्मीर मसले को उठा रहा है और खुलेआम कह रहा है कि कश्मीर मसले का हल हुए बगैर भारत-पाकिस्तान के बीच शांति और सामान्य रिश्तों की बहाली नहीं हो सकती, वहीं दूसरी ओर कश्मीर घाटी में आतंकवादियों की घुसपैठ कराकर तथा नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम के उल्लंघन की उकसाने वाली कार्रवाई कर भारत पर दबाव बनाना चाहता है। 
 
उसकी इन हरकतों और इरादों से भारतीय जन-मन का दुखी और आक्रोशित होना स्वाभाविक है, लेकिन सरकार में जिम्मेदार पदों पर बैठे कुछ-कुछ लोगों, सत्तारूढ़ दल के नेताओं-समर्थकों, निहित स्वार्थों से प्रेरित कुछ रिटायर सैन्य अफसरों और पूर्व नौकरशाहों तथा मीडिया के एक बड़े हिस्से की ओर से इस जनाक्रोश को युद्धोन्माद में बदलने की जो कोशिशें की जा रही हैं, वे मुद्दे से भटकाने वाली तो हैं ही, साथ ही हमारे देश के आर्थिक-सामाजिक ताने-बाने के लिए भी कम नुकसानदायक नहीं हैं।
 
दोनों मुल्कों के बीच विवाद के मूल में कश्मीर का मसला है जिसके बारे में देश-दुनिया की आम समझ है कि यह एक राजनीतिक मसला है और इसका समाधान राजनीतिक पहल से ही निकलेगा। हमारी जो सेना अभी तक कश्मीर को भारत से जोड़े रखने में अपनी भूमिका निभाती आ रही है, उसके आला अफसर भी अब यह स्पष्ट तौर पर मानने और कहने लगे हैं कि यह एक राजनीतिक मसला है। 
 
श्रीनगर स्थित सेना की उत्तरी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हुड्डा ने भी पिछले दिनों कहा है कि कश्मीर का मसला कानून-व्यवस्था का नहीं, बल्कि राजनीतिक मसला है और इसका समाधान राजनीतिक पहलकदमी से ही होना है। एक अनुभवी और आला सैन्य अधिकारी की इस राय को न तो हमारा सत्तारूढ़ राजनीतिक नेतृत्व तवज्जो दे रहा है और न ही युद्ध-पिपासु मीडिया। 
 
उड़ी के आतंकवादी हमले में हमारे जो जवान मारे गए हैं, वे कमोबेश सभी किसान-मजदूर-शिक्षक या ऐसे ही किसी अन्य गरीब या निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों की उम्मीदों का सहारा रहे होंगे। उनके असमय दर्दनाक तरीके से मारे जाने पर उनके परिवारजनों का दुख और गुस्सा जायज है और उसमें पूरे देश को शामिल होना ही चाहिए। 
 
लेकिन कॉर्पोरेट घरानों से नियंत्रित हमारे टीआरपी पिपासु टीवी चैनल उनके क्षोभ और शोक का निर्लज्जता के साथ व्यापार कर रहे हैं। जिस दिन उड़ी में हमला हुआ उस दिन से लेकर आज तक दिल्ली और मुंबई स्थित टीवी के खबरिया चैनलों पर शाम की तीतर-बटेरछाप बहसों में शामिल रक्षा तथा विदेश मंत्रालय, सेना एवं खुफिया सेवाओं के पूर्व अफसर देश में युद्धोन्माद पैदा कर रहे हैं। टीवी चैनलों के मूर्ख एंकर भी वीर बालकों की मुद्रा में उनके सुर में सुर मिला रहे हैं। 
 
ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। दरअसल ये 'रक्षा विशेषज्ञ' किसी भी आतंकवादी हमले के बाद टीवी चैनलों के वातानुकूलित स्टूडियो में बैठकर पाकिस्तान को युद्ध के जरिए सबक सिखाने का सुझाव देते हैं और साथ ही यह रुदन भी कर डालते हैं कि भारतीय सेना के पास संसाधनों का अभाव है। अपनी ऐसी बातों से ये लोग आम लोगों पर यही प्रभाव छोड़ने की कोशिश करते हैं कि वे बहुत बहादुर और देशभक्त हैं, लेकिन बात इतनी सीधी नहीं है।
 
दरअसल, यह उच्च तकनीक वाले हथियारों के अंतरराष्ट्रीय कारोबार से जुड़ा मामला है। भारत हथियारों का बहुत बड़ा खरीदार है, लिहाजा हथियार बनाने वाली कई विदेशी कंपनियों के हित भारत से जुड़े हैं। भारतीय सेना, सुरक्षा एजेंसियों, विदेश सेवा और रक्षा महकमे के कई पूर्व अफसर इन कंपनियों के परोक्ष मददगार होते हैं। 
 
ये कंपनियां ऐसे लोगों को उनके रिटायरमेंट के बाद अनौपचारिक तौर पर अपना सलाहकार नियुक्त कर लेती हैं। ये लोग इन कंपनियों के हथियारों की बिक्री के लिए तरह-तरह से माहौल बनाने का काम करते हैं। देश में युद्धोन्माद पैदा करना और सेना में संसाधनों का अभाव बताना भी इनके इसी 'उपक्रम' का हिस्सा होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन लोगों को इस काम के लिए हथियार कंपनियों से अच्छा- खासा 'पारिश्रमिक’ मिलता है। तो देशभक्ति के नाम यह इनका अपना व्यापार है, जो इन दिनों जोरों पर चल रहा है। 
 
युद्ध का माहौल बनाने के सिलसिले में कुछ टीवी चैनलों ने यह भी बता दिया है कि दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध होने की स्थिति में पाकिस्तान का नुकसान ज्यादा होगा, वह तबाह हो जाएगा, दक्षिण एशिया का भूगोल बदल जाएगा आदि-आदि। कुछ चैनल सुझा रहे हैं कि भारत युद्ध न भी करें तो पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में घुसकर आतंकवादियों के शिविर नष्ट कर दे। 
 
ऐसा सुझाव देने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि अमेरिका भी आतंकवाद के सफाए का इरादा जताते हुए ही अफगानिस्तान, इराक और सीरिया में घुसा था, लेकिन हुआ क्या? वह आतंकवाद का सफाया तो नहीं कर पाया बल्कि उल्टे खुद ही वहां ऐसी बुरी तरह फंस गया है कि उससे निकलते नहीं बन रहा है। खुद को सीमित युद्ध में ही झोंकने से उसकी अर्थव्यवस्था चरमरा रही है, सो अलग। 
 
जब अमेरिका की यह हालत है तो भारत क्या खाकर पाकिस्तान में आतंकवादियों के शिविरों पर हमला करके उनका सफाया कर आएगा? क्या पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में शिविर चलाने वाले आतंकवादियों ने अपना पता-ठिकाना सबको बता रखा है या अपने शिविरों के बाहर साइन बोर्ड या बैनर लगा रखे हैं? इस तरह के मूर्खतापूर्ण सुझाव देने वाले चैनलों की टीआरपी में कितना इजाफा हो रहा है, यह तो पता नहीं लेकिन इससे यह जरूर पता चल रहा है कि देश के बड़े-बड़े मीडिया संस्थानों में कैसे-कैसे वज्र मूर्ख भरे हुए हैं।
 
भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान का यह मुगालता पुराना है कि अमेरिका, भारत का दोस्त है। इससे भी बड़ा मुगालता मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा उनके व्यक्तिगत दोस्त हैं। इसी मुगालते के चलते हमारी सरकार ने अमेरिका को अपना सामरिक साझेदार बनाते हुए उसकी सेना को अपने वायुसेना और नौसेना अड्डों के उपयोग की अनुमति दे दी है। हमारे कॉर्पोरेट घरानों, कॉर्पोरेट पोषित मीडिया और देश के उच्च-मध्यम वर्ग के मन में भी अमेरिका के प्रति अगाध श्रद्धा है। 
 
ऐसे सभी लोगों के लिए क्या यह सूचना महत्वपूर्ण नहीं है कि अमेरिकी ने उड़ी पर हुए आतंकवादी हमले की निंदा तो की है लेकिन इस हमले के संदर्भ में उसने अपने बयान में किसी भी रूप में पाकिस्तान का जिक्र नहीं किया है। जाहिर है कि वह इस हमले के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार नहीं मान रहा है और बड़ी चालाकी से पाकिस्तान की करतूतों पर परदा डाल रहा है। इसकी वजह यह है कि हथियार खरीदी के मामले में पाकिस्तान भी अमेरिका का कोई छोटा ग्राहक नहीं है। इसके अलावा अमेरिका ने अल कायदा से निपटने के नाम पर पाकिस्तान में अपना सैन्य अड्डा भी कायम कर रखा है और पाकिस्तानी सैन्य अड्डों का इस्तेमाल भी वह करता रहता है। 
 
जहां तक चीन का सवाल है, उसके तो और भी ज्यादा हित पाकिस्तान के साथ जुड़े हुए हैं। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत-पाकिस्तान युद्ध की स्थिति में कौन किसके साथ रहेगा! यह सच है कि पाकिस्तान लगातार भारत को उकसाने वाली हरकतें कर रहा है। सीमा पर उसकी सैन्य हलचलों में तेजी आ गई है। जाहिर है कि वह भारत को युद्ध के लिए आमंत्रण दे रहा है। वह चाहता है कि युद्ध हो ही। 
 
इस समय पाक की आर्थिक हालत बेहद खस्ता हो रही है। उसे भरोसा है कि भारत के हमला करने की स्थिति में चीन और सऊदी अरब जैसे देश उस पर पैसों की बौछार कर देंगे। उसका भरोसा निराधार भी नहीं है। ये देश ही नहीं, बल्कि अमेरिका और कुछ यूरोपीय देश भी पाकिस्तान को उसके हर संकट के समय आर्थिक मदद करते रहे हैं। एक तरह से इन देशों की मदद से ही पाकिस्तान का पालन-पोषण हो रहा है। 
 
कुल मिलाकर युद्ध हमारे लिए बुरी तरह घाटे का सौदा साबित होगा। पाकिस्तान भले ही हमारी तरह परमाणु शक्ति संपन्न है लेकिन वह निहायत ही उद्दंड और गैरजिम्मेदार मुल्क भी है। आर्थिक तौर पर तो वह बर्बाद है ही। उसके पास अपनी बेगुनाह अवाम के अलावा खोने को भी कुछ खास नहीं है। इसलिए उसके साथ युद्ध की स्थिति में जो भी कुछ बिगड़ना है वह भारत का ही बिगड़ना है। 
 
बड़ी-बड़ी मूंछों वाले हमारे तथाकथित रक्षा विशेषज्ञ चाहे जो भी ढींगे हांके, हमारी सेनाओं के शीर्ष अधिकारियों ने उड़ी पर हमले वाले दिन शाम को ही सरकार को आगाह कर दिया था कि कोई भी फैसला जल्दबाजी में न लिया जाए। समझा जा सकता है कि हमारा सैन्य नेतृत्व भी फिलहाल युद्ध के लिए व्यावहारिक तौर पर तैयार नहीं है।
 
जहां तक हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बात है, वे प्रधानमंत्री बनने से पहले भले ही अपने 56 इंची सीने की दुहाई देते हुए पाकिस्तान को उसी की भाषा में सबक सिखाने की बात करते रहे हों, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी की खिल्ली उड़ाते रहे हों लेकिन आज प्रधानमंत्री होने के नाते वे भी नहीं चाहते होंगे कि युद्ध हो। 
 
अगर वे पहले की तरह पाकिस्तान को सुर्ख आंखों से देखते होते तो अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को नहीं बुलाते। वे नवाज शरीफ के साथ शॉल और साड़ी वाली डिप्लोमेसी भी नहीं चलाते और अफगानिस्तान से लौटते वक्त अचानक पाकिस्तान जाकर शरीफ को जन्मदिन की मुबारकबाद भी नहीं देते। 
 
जाहिर है कि प्रधानमंत्री के रूप में वे भी युद्ध के दुष्परिणामों से बेखबर नहीं हैं। यही वजह है कि मीडिया और सेना के तमाम पूर्व अधिकारियों द्वारा युद्ध का माहौल बनाए जाने के बावजूद उड़ी हमले पर उनकी सरकार की ओर से बेहद सधी हुई प्रतिक्रिया आई जिसमें कहा गया कि भारत इस हमले का माकूल समय और स्थान पर माकूल जवाब देगा। 
 
सवाल उठता है कि जब हर तरह से युद्ध हमारे लिए हानिकारक है तो फिर इसका विकल्प क्या? पाकिस्तान की हरकतों और आतंकवाद से हम कैसे निपटें? सवाल महत्वपूर्ण है और इसका जवाब यह है कि हम पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए अमेरिका समेत दुनिया के दूसरे देशों से गुहार जरूर करें लेकिन ऐसा करने के पहले हमें इस दिशा में खुद ही पहल करनी चाहिए। 
 
आखिर भारत खुद ही पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित कर उसके साथ अपने राजनयिक और व्यापारिक रिश्तों को खत्म भले ही न करें, पर उन्हें स्थगित तो कर ही सकता है। हमने उसे 'मोस्ट फेवर्ड नेशन' का जो दर्जा दे रखा है उस दर्जे को और उसके साथ सिन्धु नदी के पानी के बंटवारे की संधि को क्यों खत्म नहीं किया जाता? आखिर यह सब करने से हमें कौन रोक सकता है? 
 
अगर भारत ऐसे कदम उठाता है तो पाकिस्तान पर निश्चित रूप से कारगर दबाव बनेगा। अलबत्ता इन कदमों से हमारे यहां के कुछ उद्योग समूहों के हित जरूर प्रभावित हो सकते हैं जिनके कारोबारी रिश्ते गहरे तौर पर पाकिस्तान और वहां के सत्ता प्रतिष्ठान से ताल्लुक रखने वाले लोगों के साथ जुड़े हैं।
 
पाकिस्तान के खिलाफ अपने स्तर पर की जा सकने वाली इस तरह की राजनयिक और आर्थिक नाकेबंदी के साथ ही हमें अपनी सुरक्षा व्यवस्था और खुफिया तंत्र को भी चाक-चौबंद करने के उपाय करने चाहिए। हर आतंकवादी हमले के बाद इस मोर्चे पर हमारी कमजोरियां उजागर होती हैं और सरकार की ओर से इन कमजोरियों को दुरुस्त करने की बात भी होती है लेकिन होता कुछ नहीं है। 
 
उड़ी पर हुए हमले में भी यह कमजोरी साफतौर पर उभरकर सामने आई है और इससे पहले पठानकोट एयरबेस पर हुआ आतंकवादी हमला भी हमारी इन्हीं कमजोरियों का परिणाम था? इन कमजोरियों को दूर किए बगैर अगर हम पाकिस्तान का रण-निमंत्रण स्वीकार कर भी लें तो उससे मसले का कोई दीर्घकालिक हल नहीं निकल सकता।
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