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जलवायु परिवर्तन सम्मेलन : क्या भारत की पहल सार्थक होगी?

जलवायु परिवर्तन सम्मेलन : क्या भारत की पहल सार्थक होगी? - Climate change conference
पेरिस। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित दुनियाभर के करीब 150 नेता कार्बन उत्सर्जन को सीमित करने के दीर्घकालीन समझौते तक पहुंचने के लिए पेरिस में सोमवार से शुरू हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में शरीक हुए। 
पीएम मोदी ने फ्रांस की राजधानी के लिए रवाना होने के साथ टिप्पणी की थी कि यह सबकी जिम्मेदारी है कि ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ काम किया जाए। वहीं, संयुक्त राष्ट्र प्रमुख बान की मून ने बढ़ते ग्रीन हाउस उत्सर्जन से निपटने के लिए एक टिकाऊ सार्वभौम करार की जरूरत का जिक्र किया।
 
प्रधानमंत्री ने पेरिस रवाना होने से ठीक पहले कहा, '...सम्मेलन में हम पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से जुड़े अहम मुद्दों पर चर्चा करेंगे। पीएम मोदी ने अपने रेडियो कार्यक्रम 'मन की बात' कार्यक्रम का उपयोग भी यह कहने में किया कि पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के बारे में चिंतित है। उन्होंने कहा, 'इस पर हर जगह चर्चा है और चिंता जताई जा रही है...अब पृथ्वी का तापमान नहीं बढ़ना चाहिए। यह सभी की जिम्मेदारी और चिंता है।
पेरिस में हुआ दुनियाभर के नेताओं का जमावड़ा..पढ़ें अगले पेज पर...

पेरिस में नेताओं का जमावड़ा : 12 दिवसीय सम्मेलन पेरिस हमले के मद्देनजर अभूतपूर्व सुरक्षा कवर में हो रहा है। इस हमले में 130 लोग मारे गए थे। पीएम मोदी के अलावा अन्य नेताओं में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, चीन के शी जिनपिंग और रूस के व्लादिमीर पुतिन संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के आधिकारिक शुभारंभ में सोमवार को शरीक हुए। इस सम्मेलन में प्रथम वास्तविक सार्वभौम जलवायु समझौते तक पहुंचना है।
 
सम्मेलन का लक्ष्य : 30 नवंबर से 11 दिसंबर के बीच हो रहा पेरिस जलवायु सम्मेलन का लक्ष्य पिछले 20 से भी अधिक साल में पहली बार जलवायु पर एक कानूनी बाध्यकारी और सार्वभौम समझौता करना है। साथ ही इसका लक्ष्य ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना है।
 
पीएम मोदी ने इस अहम सम्मेलन में भारतीय पैवेलियन का उद्घाटन किया। उन्‍होंने इस मुद्दे पर भारत के रुख पर भाषण भी दिया और प्रकृति, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन को कम करने पर भारत के सौहार्द को भी जाहिर किया। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत का कहना है कि विकसित देश सदियों से बड़े प्रदूषक हैं और उन्हें विकासशील देशों को कोष मुहैया कर और कम कीमत पर प्रौद्योगिकी उपलब्ध कराकर ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने में व्यापक भूमिका निभानी चाहिए।
 
पेरिस शिखर वार्ता के पहले प्रधानमंत्री मोदी ने जलवायु परिवर्तन को दुनिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती माना है। उन्होंने साफ-सुथरी ऊर्जा के इस्तेमाल के लिए एक आक्रामक रुख दिखाया है। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर शुरू से भारत का स्पष्ट रुख रहा है कि कार्बन उत्सर्जन के मामले में विकसित देश अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाएं और सभी देश विकास को नुकसान पहुंचाए बिना जलवायु परिवर्तन के खिलाफ पक्के इरादे के साथ काम करें। इसी क्रम में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत ने कार्बन उत्सर्जन में 33 से 35 फीसदी तक कटौती का स्पष्ट ऐलान कर दिया जो कि एक बड़ा कदम है।  
 
केंद्र सरकार ने फैसला किया है कि वह 2030 तक कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता में 33 से 35 फीसदी कटौती करेगी। यह कमी साल 2005 को आधार मानकर की जाएगी। इमिशन इंटेसिटी कार्बन उत्सर्जन की वह मात्रा है, जो एक डॉलर कीमत के उत्पाद को बनाने में होती है। सरकार ने यह भी फैसला किया है कि 2030 तक होने वाले कुल बिजली उत्पादन में 40 फीसदी हिस्सा कार्बन रहित ईंधन से होगा। भारत साफ-सुथरी ऊर्जा के लिए बड़ा कदम उठाने जा रहा है। 
 
भारत पहले ही कह चुका है कि वह 2022 तक 1 लाख 75 हजार मेगावाट बिजली सौर और पवन ऊर्जा से बनाएगा। वातावरण में फैले ढाई से तीन खरब टन कार्बन को सोखने के लिए अतिरिक्त जंगल लगाए जाएंगे। भारत ने यह भी साफ कर दिया है कि वह सेक्टर आधारित (जिसमें कृषि भी शामिल है) किसी योजना के लिए बाध्य नहीं है। 
 
पृथ्वी का तापमान 1520 सेंटीग्रेड से 1532 डिग्री सेंटीग्रेड हो चुका है। 40 वर्षों में पृथ्वी का तापमान 27 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ जाएगा। सन् 2003 में 45 हजार लोगों की मृत्यु यूरोप में दो हफ्ते के भीतर हुई थी। समुद्र तटों तथा बड़ी नदी के मुहानों पर बसे मुंबई, चेन्नई, देश की राजधानी दिल्ली जैसे दुनिया के बड़े शहरों के सिर पर बाढ़ का खतरनाक साया मंडराने लगा है। समुद्री जल के स्तर में बढ़ोतरी से तटीय क्षेत्र के मीठे पानी के स्रोतों में खारा पानी मिल जाने से समूचा इको सिस्‍टम असंतुलित हो जाएगा। सूखा, गर्म हवाएं (लू), चक्रवात, तूफान और झंझावात जैसी आपदाएं जल्दी-जल्दी आने लगेंगी। कृषि उपज में प्रतिकूल परिवर्तन, गर्मियों में जलधारा में कमी, प्रजातियों का लोप और रोगवाही जीवाणुओं के प्रकार व मात्रा में वृद्धि हो जाएगी। मच्छरों का प्रकोप बढ़ेगा। वनों, खेतों और शहरों में नए-नए कीड़े-मकोड़े का आतंक बढ़ सकता है, जिससे मच्छरजनित रोग बढ़ेंगे।
 
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के सबसे बड़े स्रोत कोयले से ऊर्जा (60 प्रतिशत), वनों का ह्रास (18 प्रतिशत), खेती (14 प्रतिशत), औद्योगिक प्रक्रियाएं (4 प्रतिशत) और अपशिष्ट (4 प्रतिशत) है। विकासशील देशों ने जहां विश्व की 80 प्रतिशत से अधिक आबादी निवास करती है। 1751 से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जित भंडार में सिर्फ 20 प्रतिशत का योगदान किया है। बड़े विकासशील देशों जैसे कि भारत, चीन, ब्राजील व दक्षिण कोरिया अभी भी प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में विकसित देशों से कई गुना पीछे हैं। विश्व बैंकों के अनुसार जहां विकसित देशों में प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 13 टन है, विकासशील देशों में यह 3 टन से भी कम है। अमेरिका में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन भारत की तुलना में 20 गुना अधिक है। विश्व में सिर्फ 15 प्रतिशत जनसंख्या के साथ अमीर देश कार्बन डाइऑक्साइड के 47 प्रतिशत से अधिक उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं।
 
भारतवर्ष ओजोन परत को सुरक्षित रखते हुए मानवता की रक्षा के लिए पूर्णतः प्रतिबद्ध है। भारत मांट्रियल संघ (1987) में इंग्लैंड संशोधन के साथ सन् 1992 में शामिल हुआ था और हमारे यहां ओजोन प्रकोष्ठ एक राष्ट्रीय संस्थान के रूप में उसी समय से काम कर रहा है। ओजोन प्रकोष्ठ की स्थापना ही ओजोन परत को नष्ट होने से बचाने के लिए की गई है। इसके अतिरिक्त हमारा देश पर्यावरण परिवर्तन के विषय में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन का भी सदस्य है। इस संबंध में ग्रीनिंग इंडिया के लिए स्वयंसेवी संस्थाओं में अनुदान देकर सहायता भी की जा रही है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम में भारतवर्ष में भू-क्षरण पर राष्ट्रीय स्वक्षमता आवश्यकता आकलन का कार्य भी शुरू किया है। इन सबके अलावा भारत सरकार का विशेष प्रयास पर्यावरण शिक्षा और प्रशिक्षण के विषय में जनजागरुकता का प्रचार-प्रसार भी करना है।
 
250 वर्ष के विश्व इतिहास ने यह सिद्ध कर दिया है कि अत्यधिक भोग ने भूमि का दोहन अंतिम सीमा तक कर लिया है। जिस मशीनी युग का विकास व्यक्ति के सुख के लिए किया गया है, वही उसके दुख का कारण बन गया है। प्रतिवर्ष 63000 वर्ग मील जंगल नष्ट हो रहे हैं। सन् 2030 तक ऊर्जा की मांग 50 प्रतिशत तक बढ़ सकती है, जिसमें भारत और चीन की जरूरत सबसे ज्यादा होगी। विश्व का 40 प्रतिशत मीठा पानी वर्तमान में पीने योग्य नहीं रह गया है। विश्व के दो लाख लोग प्रतिदिन गांवों या छोटे शहरों से बड़े शहरों की ओर जा रहे हैं। इससे भी पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है। 
जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर चल रही है जद्दोजहद..अगले पेज पर...

विकसित और विकासशील देशों के बीच जद्दोजहद : पेरिस शिखर सम्मलेन से पहले जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विकसित और विकासशील देशों के बीच जद्दोजहद चल रही है क्योंकि पिछले लीमा शिखर सम्मलेन के कोई बड़े नतीजे नहीं आए थे, लेकिन जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर आम सहमति वाला एक प्रारूप जरूर स्वीकार कर लिया गया था।
 
भारत समेत 194 देशों ने वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कटौती के राष्ट्रीय संकल्पों के लिए आम सहमति वाला प्रारूप स्वीकार कर लिया, जिसमें भारत की चिंताओं का समाधान किया गया था। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन के मुकाबले के लिए पेरिस में होने वाले एक नए महत्वाकांक्षी और बाध्यकारी करार पर हस्ताक्षर का रास्ता साफ हो गया था।
 
अब इस शिखर सम्मेलन का उद्देश्य नई जलवायु परिवर्तन संधि के लिए मसौदा तैयार करना है ताकि पेरिस में होने वाली वार्ता में सभी देश संधि पर हस्ताक्षर कर सकें और हर देश को कानूनी रूप से बाध्य एक संधि के लिए राजी करना था ताकि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घट सके और 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल को नए मसौदे से बदला जा सके।
 
पहले केवल अमीर देशों की जिम्मेदारी थी :  फिलहाल नए समझौते की मूल बात यह है कि इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने की जिम्मेदारी सभी देशों पर डाल दी गई है। इसके पहले 1997 में हुई क्योटो संधि में उत्सर्जन में कटौती की जिम्मेदारी केवल अमीर देशों पर डाली गई थी। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण प्रमुख क्रिस्टियाना फिगुरेज ने कहा कि लीमा में अमीर और गरीब दोनों तरह के देशों की जिम्मेदारी तय करने का नया तरीका खोजा गया।
 
जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत का पक्ष : जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर धनी देशों पर दबाव बढ़ाते हुए भारत ने कहा है कि दुनियाभर में गरीबों के विकास की खातिर विकसित राष्ट्र अपने कार्बन उत्सर्जन में ज्यादा कटौती करें। भारत ने जलवायु परिवर्तन के खतरे का सामना करने को विकासशील देशों की मदद के लिए विकसित राष्ट्रों से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण व वित्तीय मदद देने की मांग भी की। चूंकि विकसित देशों का कार्बन उत्सर्जन भारत के मुकाबले कई गुना ज्यादा है, ऐसे में इन देशों को अपने उत्सर्जन में ज्यादा कटौती करनी चाहिए।  
 
दो धड़ों में बंटी दुनिया : अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अक्सर आमने-सामने नजर आने वाले विकसित और विकासशील देश एक बार फिर दो धड़ों में बंटे हुए दिख रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर देश मोटे तौर पर दो धड़ों में बंट गए। एक तरफ विकसित देशों के धड़े में यूरोपीय संघ के देश और जापान खुलकर अपना पक्ष रख रहे थे, वहीं दूसरी तरफ ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन ने भी बेसिक के नाम से यहां अपना अलग मंच बना लिया। बेसिक देशों ने जलवायु परिवर्तन समझौते के मसौदे पर चर्चा के लिए इस मंच के तहत नियमित बैठकें करने का फैसला लिया। दूसरी ओर यूरोपीय संघ और जापान जैसे विकसित देश जलवायु परिवर्तन समझौते को केवल न्यूनीकरण की व्यवस्था पर केंद्रित रखने पर जोर दे रहे हैं।
 
फिलहाल जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद साफ नजर आ रहा है, लेकिन अधिकांश देश मोटे तौर पर इस बात से सहमत हैं कि सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए काम करना चाहिए। कार्बन  उत्सर्जन को ही लू, बाढ़, सूखा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी का कारण माना जा रहा है। क्योटो प्रोटोकाल के अंतर्गत केवल सर्वाधिक विकसित देशों को ही अपना उत्सर्जन कम करना था और तब यह एक मुख्य कारण भी था कि अमेरिका ने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।
 
अमेरिका का कहना था कि चीन और भारत जैसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था वाले देश हर हाल में इसका हिस्सा बनें। विकासशील देशों का यह तर्क सही है कि जब वैश्विक भूमंडलीय तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) में ऐतिहासिक रूप से उनका योगदान पश्चिम के औद्योगिक-विकसित देशों की तुलना में न के बराबर है, तो उन पर इसे कम करने की समान जवाबदेही कैसे डाली जा सकती है? जबकि लीमा में क्योटो प्रोटोकोल से उलट धनी देश सबकुछ सभी पर लागू करना चाहते थे, खासकर उभरते हुए विकासशील देशों पर भी वे जिम्मेदारी डालना चाहते थे।
कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया..पढ़ें अगले पेज पर...

कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया : पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र समर्थित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने चेतावनी देते हुए कहा कि कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया। दुनिया को खतरनाक जलवायु परिवर्तनों से बचाना है तो जीवाश्म ईंधन के अंधाधुंध इस्तेमाल को जल्द ही रोकना होगा। आईपीसीसी ने कहा है कि साल 2050 तक दुनिया की ज्यादातर बिजली का उत्पादन लो-कार्बन स्रोतों से करना जरूरी है और ऐसा किया जा सकता है। इसके बाद बगैर कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) के जीवाश्म ईंधन का 2100 तक पूरी तरह इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए।
 
शिखर सम्मेलनों के अधूरे लक्ष्य : 1992 में रियो डि जेनेरियो में अर्थ समिट यानी पृथ्वी सम्मेलन से लेकर लीमा तक के शिखर सम्मेलनों के लक्ष्य अभी भी अधूरे हैं। आज आपसी विवादों के समाधान की जरूरत है। कटु सच्चाई यह है कि जब तक विश्व अपने गहरे मतभेदों को नहीं सुलझा लेता तब तक कोई भी वैश्विक कार्रवाई कमजोर और बेमानी सिद्ध होगी। पिछले 13 महीनों के दौरान प्रकाशित आईपीसीसी की तीन रिपोर्टों में जलवायु परिवर्तन की वजहें, प्रभाव और संभावित हल का खाका रखा गया है। इस संकलन में इन तीनों को एक साथ पेश किया गया था ताकि 2015 के अंत तक जलवायु परिवर्तन पर पर एक नई वैश्विक संधि करने की कोशिशों में लगे राजनेताओं को जानकारी दी जा सके। 
 
भारत ने इस साल पेरिस में होने वाले शिखर सम्मेलन से पहले जलवायु परिवर्तन पर अपने रोडमैप की घोषणा कर दी। केंद्र सरकार ने फैसला किया है कि वह 2030 तक कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता में 33 से 35 फीसदी कटौती करेगी। यह कमी साल 2005 को आधार मानकर की जाएगी। इमिशन इंटेसिटी कार्बन उत्सर्जन की वह मात्रा है, जो एक डॉलर कीमत के उत्पाद को बनाने में होती है।
 
सरकार ने यह भी फैसला किया है कि 2030 तक होने वाले कुल बिजली उत्पादन में 40 फीसदी हिस्सा कार्बन रहित ईंधन से होगा यानी भारत साफ-सुथरी ऊर्जा के लिए बड़ा कदम उठाने जा रहा है। भारत पहले ही कह चुका है कि वह 2022 तक 1 लाख 75 हजार मेगावाट बिजली सौर और पवन ऊर्जा से बनाएगा। वातावरण में फैले ढाई से तीन खरब टन कार्बन को सोखने के लिए अतिरिक्त जंगल लगाए जाएंगे।
 
जलवायु परिवर्तन के कारण : नगरीकरण, औद्योगीकरण, कोयले पर आधारित विद्युत तापगृह, तकनीकी तथा परिवहन क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन, कोयला खनन, मानव जीवन के रहन-सहन में परिवर्तन (विलासितापूर्ण जीवनशैली के कारण रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीशनर तथा परफ्यूम का वृहद पैमाने पर उपयोग), धान की खेती के क्षेत्रफल में अभूतपूर्व विस्तार, शाकभक्षी पशुओं की जनसंख्या में वृद्धि, आधुनिक कृषि में रासायनिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग आदि कुछ ऐसे प्रमुख कारण हैं जो हरित गृह गैसों के वातावरण में उत्सर्जन के लिए उत्तरदायी हैं।
 
हरित गृह गैसें (ग्रीन हाउस गैसें) : हरित गृह गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड सबसे प्रमुख गैस है जो आमतौर से जीवाश्म ईधनों के जलने से उत्सर्जित होती है। वातावरण में यह गैस 0.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है तथा इसकी तपन क्षमता एक है। जैव ईधनों के जलने से प्रतिवर्ष 5 बिलियन टन से भी ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड का जुड़ाव वातावरण में होता है जिसमें उत्तरी तथा मध्य अमेरिका, एशिया, यूरोप तथा मध्य एशियन गणतंत्रों का योगदान 90 प्रतिशत से भी ज्यादा का होता है। पूर्व-औद्योगीकरण काल की तुलना में वायु में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर आज 31 प्रतिशत तक बढ़ गया है। चूंकि वन कार्बन डाइऑक्साइड के प्रमुख अवशोषक होते हैं, अतः वन-विनाश भी इस गैस की वातावरण में निरन्तर वृद्धि का एक प्रमुख कारण है। 
 
वातावरण में 20 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड की अधिकता के लिए वनों का विनाश जिम्मेदार है। वन-विनाश के फलस्वरूप 1850 से 1950 के बीच लगभग 120 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड की वातावरण में बढ़ोतरी हुई है। पिछले 100 वर्षों में कार्बन डाइऑक्साइड की वातावरण में 20 प्रतिशत बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वर्ष 1880 से 1890 के बीच कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा लगभग 290 पीपीएम (पार्ट्स ऑफ पर मिलियन) वर्ष 1980 में इसकी मात्रा 315 पीपीएम, वर्ष 1990 में 340 पीपीएम तथा वर्ष 2000 में 400 पीपीएम तक बढ़ गई है। ऐसी संभावना है कि वर्ष 2040 तक वातावरण में इस गैस की सान्द्रता 450 पीपीएम तक बढ़ जाएगी। कार्बन डाइऑक्साइड का वैश्विक गर्मी की वृद्धि में 55 प्रतिशत का योगदान है। औद्योगीकृत विकसित देश वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड वृद्धि के लिए ज्यादा उत्तरदायी हैं।
 
मीथेन : मीथेन भी एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हरित गृह गैस है जो 1 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से वातावरण में बढ़ रही है। मीथेन की तपन क्षमता 36 है। यह गैस कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में 20 गुना ज्यादा प्रभावी होती है। पिछले 100 वर्षों में वातावरण में मीथेन की दुगुनी वृद्धि हुई है। धान के खेत, दलदली भूमि तथा अन्य प्रकार की नमभूमियां मीथेन गैस के उत्सर्जन के प्रमुख स्रोत हैं। 
 
एक अनुमान के अनुसार वातावरण में 20 प्रतिशत मीथेन की वृद्धि का कारण धान की खेती तथा 6 प्रतिशत कोयला खनन है। इसके अतिरिक्त, शाकभक्षी पशुओं तथा दीमकों में आंतरिक किण्वन (इंटरनल फरमेन्टेशन) भी मीथेन उत्सर्जन के स्रोत हैं। वर्ष 1750 की तुलना में मीथेन की मात्रा में 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक मीथेन एक प्रमुख हरितगृह गैस होगी। इस गैस का वैश्विक तपन में 20 प्रतिशत का योगदान है। विकासशील  देश विकसित देशों की तुलना में मीथेन उत्सर्जन के लिए ज्यादा उत्तरदायी हैं।
 
क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स : क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स रसायन भी हरितगृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी होते हैं। क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स रसायनों का इस्तेमाल आमतौर से प्रशीतक, उत्प्रेरक तथा ठोस प्लास्टिक झाग के रूप में होता है। इस समूह के रसायन वातावरण में काफी स्थाई होते हैं और यह दो प्रकार के होते हैं- हाइड्रो फ्लोरो कार्बन तथा पर फ्लोरो कार्बन। हाइड्रो फ्लोरो कार्बन की वातावरण में वृद्धि दर 0.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष है तथा इसकी तपन क्षमता 14600 है। पर फ्लोरो कार्बन की भी वार्षिक वृद्धि दर 0.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष है जबकि इसकी तपन क्षमता 17000 है। 
 
हाइड्रो फ्लोरो कार्बन का वैश्विक तपन में 6 प्रतिशत का योगदान है जबकि पर फ्लोरो कार्बन का वैश्विक तपन में 12 प्रतिशत का योगदान है। औद्योगीकरण के कारण क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स की वातावरण में 25 प्रतिशत वृद्धि हुई है। अतः विकासशील देशों की तुलना में औद्योगीकृत विकसित देश क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स के उत्सर्जन के लिए ज्यादा उत्तरदायी हैं।
 
नाइट्रस ऑक्साइड : नाइट्रस ऑक्साइड गैस 0.3 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से वातावरण में बढ़ रही है तथा इसकी तपन क्षमता 140 है। जैव ईंधन, जीवाश्म ईंधन तथा रासायनिक खादों का कृषि में अंधाधुंध प्रयोग इसके उत्सर्जन के प्रमुख कारक हैं। मृदा में रासायनिक खादों पर सूक्ष्म जीवों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप नाइट्रस ऑक्साइड का निर्माण होता है तत्पश्चात यह गैस वातावरण में उत्सर्जित होती है। वातावरण में इस गैस की वृद्धि के लिए 70 से 80 प्रतिशत तक रासायनिक खाद तथा 20 से 30 प्रतिशत तक जीवाश्म ईधन जिम्मेदार हैं। इस गैस का वैश्विक तपन में 5 प्रतिशत का योगदान है। नाइट्रस ऑक्साइड समतापमण्डलीय ओजोन पट्टी के क्षरण के लिए भी उत्तरदायी है जिससे भी वैश्विक ताप में वृद्धि होती है।
 
ओजोन : क्षोभमण्डलीय ओजोन भी एक महत्वपूर्ण हरित गृह गैस है जो वातावरण में 0.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। इस गैस की तपन क्षमता 430 है। ओजोन का निर्माण आमतौर से सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड तथा हाइड्रोकार्बन्स की प्रतिक्रिया स्वरूप होता है। ओजोन गैस का वैश्विक तपन में 2 प्रतिशत का योगदान है।
 
वैश्विक स्तर पर हरित गृह गैसों का उत्सर्जन : जहां तक हरित गृह गैसों के उत्सर्जन का सवाल है वैश्विक स्तर पर भारत मात्र 1.2 टन प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष हरित गृह गैसों का उत्सर्जन करता है। वहीं संयुक्त राज्य अमेरिका प्रतिवर्ष 20 टन से भी अधिक प्रति व्यक्ति हरित गृह गैसों का उत्सर्जन करता है। रूस 11.71 टन, जापान 9.87, यूरोपीय संघ 9.4 तथा चीन 3.6 प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष हरित गृह गैसों का उत्सर्जन करते हैं। अतः विकासशील देशों की तुलना में विकसित देश हरित गृह गैसों का ज्यादा उत्सर्जन करते हैं लेकिन इसका खामियाजा भारत सहित दुनिया के अन्य विकासशील देशों को भुगतना पड़ता है।
भारत के इन क्षेत्रों पर पड़ेगा जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव..पढ़ें अगले पेज पर...

जलवायु परिवर्तन का भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर दुष्प्रभाव : संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनइपी) की 2009 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 100 वर्षों में विश्व के तापमान में 0.74 सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। इस शताब्दी का पहला दशक (2000-2009) अब तक का सबसे उष्ण दशक रहा है। वर्ष 2010 में भारत के विभिन्न राज्यों जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश के अनेक जिलों तथा राजधानी दिल्ली में मार्च के महीने में 40 डिग्री सेल्सियस तक तापमान रिकॉर्ड किया गया, जबकि महाराष्ट्र राज्य के अनेक जिलों (जलगांव, नासिक, शोलापुर आदि) में अप्रैल के प्रथम सप्ताह में 43 डिग्री सेल्सियस तक तापमान रिकॉर्ड किया गया। हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में मार्च के महीने में औसत से 10 डिग्री सेल्सियस ज्यादा तापमान रिकॉर्ड किया गया, जिससे पिछले 109 वर्ष पुराना रिकॉर्ड टूट गया। भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में जलवायु परिवर्तन के नि:संदेह गंभीर परिणाम होंगे, जो कि देश के विभिन्न क्षेत्रों पर इन संभावित दुष्प्रभावों के तौर पर सामने आएंगे। 
 
पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण क्षेत्र पर प्रभाव : जलवायु परिवर्तन के कारण बंगाल की खाड़ी में जल स्तर में वृद्धि होगी जिसके परिणामस्वरूप जैव-विविधता सम्पन्न मैन्ग्रुव पारितन्त्र (मैंग्रोव इकोसिस्टम) नष्ट हो जाएंगे। जलस्तर में वृद्धि के कारण अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह भी जल में डूब जाएंगे परिणामस्वरुप जैव-विविधता की वृहद पैमाने पर क्षति होगी क्योंकि ये द्वीप समूह जैव-विविधता सम्पन्न हैं तथा बहुत से पौधों तथा जन्तुओं की प्रजातियां यहां के लिए स्थानिक (वह प्रजातियां जो देश के किसी अन्य हिस्से में नहीं पाई जाती हैं) हैं। 
 
सागर जल की तपन के कारण मूंगे का द्वीप लक्षद्वीप मूंगा विरंजन (कोरल ब्लीचिंग) का शिकार होकर नष्ट हो जाएगा। बाद में समुद्री जलस्तर बढ़ने से यह द्वीप पूरी तरह से डूबकर समाप्त हो जाएगा। वैश्विक तपन से हिमालय की वनस्पतियां विशेष रूप से प्रभावित होगी जिससे जैव-विविधता क्षय का खतरा बढ़ेगा।
 
जलवायु परिवर्तन के कारण कीटों, खरपतवारों तथा रोगाणुओं की जनसंख्या बढ़ेगी जिनके नियन्त्रण के लिए वृहद पैमाने पर रासायनिक कीटजीवनाशकों (पेस्टिसाइड्‍स) के प्रयोग के कारण पर्यावरण प्रदूषित होगा। कीटनाशकों तथा शाकनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से गैर-लक्षित उपयोगी कीट, फसलों की जंगली प्रजातियां तथा पौधों की अन्य उपयोगी प्रजातियां भी प्रभावित होंगी, जिससे जैव-विविधता का क्षरण होगा। 
 
रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता के कारण मृदा की सूक्ष्मजीवी जैव-विविधता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसके अतिरिक्त उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग से मृदा की संरचना नष्ट होगी जिससे मृदा क्षरण को बढ़ावा मिलेगा परिणामस्वरूप बंजर भूमि के क्षेत्रफल में इजाफा होगा। रासायनिक कीटनाशकों तथा उर्वरकों से जल प्रदूषित होगा। सतही तथा भूमिगत जल के प्रदूषण का गंभीर खतरा होगा। सुपोषण (यूट्रोफिकेशन) से प्रभावित नमभूमियां (जो जैव-विविधता की संवाहक होती हैं) स्थलीय पारितन्त्र में परिवर्तित हो जाएंगी जिससे जैव-विविधता का क्षय होगा। जलवायु की तपन के परिणामस्वरूप वनों में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि होगी फलस्वरूप वन क्षेत्रफल में गिरावट के कारण पारिस्थितिक असंतुलन का गंभीर खतरा पैदा होगा। वनों के क्षरण के परिणामस्वरूप जैव-विविधता क्षय की दर में भी अभूतपूर्व वृद्धि होगी।
 
स्वास्थ्य क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव : भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में तापमान वृद्धि के कारण मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। जलवायु की उष्णता के कारण ग्रीष्म ऋतु में लू तथा गर्मी से होने वाली मौतों में अभूतपूर्व वृद्धि होगी। जलवायु परिवर्तन के कारण देश में श्वास तथा हृदय-संबंधी बीमारियों की दर में इजाफा होगा। जलवायु की तपन के कारण उच्च रक्तचाप, मिर्गी तथा माइग्रेन जैसी बीमारियों की बारम्बारता में वृद्धि होगी, साथ ही मानसिक बीमारियों जैसे अवसाद (डिप्रेशन) तथा साइजोफ्रेनिया (सीजोफ्रेनिया) से पड़ने वाले दौरों के बारम्बारता में भी बढ़ोतरी होगी।
 
उष्णता तथा नमी के कारण घाव के उपचार हेतु ‘प्रतिजैविक’ (एंटीबायोटिक्स) पर निर्भरता में वृद्धि होगी। रोगाणुओं की नई प्रजातियों के उद्भव से पुराने ‘प्रतिजैविक’ असरहीन हो जाएंगे। स्वाइन फ्लू (स्वाइन फ्लू) के विषाणु में उत्परिवर्तन के कारण टेमीफ्लू नामक ‘प्रतिजैविक’ अब इस बीमारी के उपचार में असरहीन साबित हो रही है जिससे इस बीमारी का प्रकोप घटने की बजाय दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। इसके अतिरिक्त संक्रामक बीमारियों जैसे दस्त, पेचिश, हैजा, क्षयरोग, आंत्रशोथ, पीलिया आदि की बारम्बारता में वृद्धि के फलस्वरूप इन बीमारियों से होने वाली मौतों में कई गुना वृद्धि होगी। बच्चों में खसरे तथा निमोनिया के प्रकोप में वृद्धि के कारण इन बीमारियों से मृत्यु दर में इजाफा होगा। 
 
चूंकि तापमान तथा नमी बीमारी फैलाने वाले वाहकों के फैलने में सहायक होते हैं। अतः भारत में मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों जैसे मलेरिया, फ्रील पांव, डेंगू ज्वर, चिकनगुनिया, जापानी मस्तिष्क ज्वर तथा बेस्ट नाइल ज्वर के प्रकोप में वृद्धि होगी। पिछले कुछ वर्षों से डेंगू ज्वर, चिकनगुनिया तथा जापानी मस्तिष्क ज्वर के प्रकोप में वृद्धि दर्ज की गई है। डेंगू ज्वर जहां उत्तर भारत के शहरी क्षेत्रों में आज प्रमुख स्वास्थ्य समस्या के रूप में उभरा है, वहीं देश का पूर्वी उत्तर प्रदेश जापानी मस्तिष्क ज्वर का प्रमुख केन्द्र बन गया है। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के 35 जिले मस्तिष्क ज्वर से प्रभावित हैं। उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त मस्तिष्क ज्वर बीमारी का प्रकोप देश के बिहार, झारखण्ड एवं असम राज्यों में भी है।
 
मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों के अतिरिक्त, अन्य वाहकों जैसे सी-सी मक्खी तथा बालू मक्खी से फैलने वाली बीमारियां क्रमशः निद्रा रोग (स्लीपिंग सिकनेस) तथा काला-अजार (ब्लैक फीवर) की बारम्बारता में वृद्धि होगी। जहां काला-अजार असम, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा, में प्रमुख स्वास्थ्य समस्या है, वहीं निद्रा रोग मुख्यतः बिहार तथा पश्चिम बंगाल की स्वास्थ्य समस्या है। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप न सिर्फ उक्त बीमारियों का प्रकोप बढ़ेगा, अपितु इनका विस्तार देश के अन्य राज्यों में भी होगा।
 
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप खाद्यान्न उत्पादन में कमी से भारत जैसे विकासशील देश में गरीबी में वृद्धि होगी। गरीबी के कारण वेश्यावृत्ति में वृद्धि होगी परिणामस्वरूप एड्स जैसी लाइलाज यौन संचारी संक्रामक बीमारी का प्रसार होगा जिससे इस घातक बीमारी के प्रकोप में बढ़ोतरी के कारण मृत्यु दर में कई गुना वृद्धि होगी। एक अनुमान के अनुसार, देश में आज लगभग 50 लाख (5 मिलियन) से भी ज्यादा व्यक्ति इस विषाणु रोग से ग्रसित हैं। असुरक्षित यौन संबंध इस बीमारी के प्रसार का प्रमुख कारण है। एड्स के अतिरिक्त हेपेटाइटिस बी, सूजाक तथा सिफलिस जैसी यौन संचारी बीमारियों के संचार तथा प्रकोप में भी वृद्धि होगी।
 
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप खाद्यान्न में कमी के कारण देश में कुपोषण की समस्या होगीपरिणामस्वरूप, रक्तअल्पता (एनीमिया), रतौंधी, रिकेट्स, मेरेस्मस, क्वासिरकोर, पेलाग्रा, बांझपन आदि जैसी गैर-संक्रामक बीमारियों की दर में वृद्धि होगी। कुपोषण के कारण बच्चों की मृत्यु दर में अभूतपूर्व वृद्धि होगी। कुपोषण से प्रभावित जनसंख्या संक्रामक बीमारी क्षयरोग के प्रति संवेदनशील होगी परिणामस्वरूप क्षयरोग के प्रकोप में अभूतपूर्व वृद्धि होगी। वर्तमान में भारत में लगभग 1.5 करोड़ क्षयरोगी हैं जो दुनिया में क्षयरोगियों की संख्या के एक तिहाई से भी ज्यादा हैं। प्रत्येक वर्ष 20,000 से 25,000 भारतीय क्षयरोग से पीड़ित होते हैं और इस बीमारी से 1,500 से भी ज्यादा लोगों की मृत्यु होती है।
 
कृषि क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव : जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप मुख्य फसलों जैसे गेहूं तथा धान की पैदावार में अभूतपूर्व कमी आएगी। जलवायु की तपन के परिणामस्वरूप देश के वर्षा सिंचित क्षेत्रों  में मुख्य फसलों के उत्पादन में लगभग 125-130 मिलियन टन तक की कमी आएगी।
 
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में कीटों तथा रोगाणुओं की जनसंख्या में अभूतपूर्व वृद्धि होगी तथा साथ ही कीटों तथा रोगाणुओं की नई प्रजातियां भी विकसित होंगीं। इन कीटों तथा रोगाणुओं द्वारा फसलों पर आक्रमण के फलस्वरूप उत्पादन में गिरावट आएगी। कीट संक्रमण के प्रति संवेदनशील कपास जैसी नकदी फसल पर इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ेगा। फसल उत्पादन में बढ़ोतरी हेतु कीटनाशकों पर निर्भरता बढ़ेगी।
 
जलवायु परिवर्तन तथा वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि के कारण खरपतवारों की जनसंख्या में वृद्धि होगी जिससे फसल उत्पादकता प्रभावित होगी। पौधों के पुष्पीय कुलों विशेषकर पोयेसी, साइप्रेसी, फैबेसी, यूफोर्बिएसी, एपोसायनेसी, अमरेन्थेसी, क्रैसुलेसी तथा पार्टुलैकेसी से संबद्ध खरपतवारों का प्रकोप औरों की तुलना में ज्यादा होगा। फसलों की खरपतवारों से सुरक्षा के लिए खरपतवारनाशकों अथवा शाकनाशकों पर निर्भरता में अभूतपूर्व वृद्धि होगी।
 
भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि के फलस्वरूप पौधों में कार्बन स्थिरीकरण की दर में भी वृद्धि होगी जिसके कारण मृदा से पोषक तत्वों के अवशोषण की दर में भी वृद्धि होगी। परिणामस्वरूप मृदा की उर्वरा शक्ति में कमी आएगी। मृदा की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिए रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता में अभूतपूर्व वृद्धि होगी।
 
जलवायु की तपन के कारण मृदा में जीवांश पदार्थों की विघटन की दर में भी वृद्धि होगी लेकिन वाष्पीकरण की दर में वृद्धि के फलस्वरूप मृदा में नमी की कमी के कारण परिणाम उल्टा भी हो सकता है। दोनों ही स्थितियों में पोषक चक्र की दर प्रभावित होगी जिससे मृदा की उर्वरा शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
 
जलवायु परिवर्तन का प्रत्यक्ष प्रभाव वर्षा के वितरण पर भी पड़ेगा। उत्तरी तथा मध्य भारत में कम वर्षा होगी जबकि इसके विपरीत देश के पूर्वोतर तथा दक्षिण-पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा होगी। परिणामस्वरुप वर्षा जल की कमी से उत्तरी तथा मध्य भारत में लगभग सूखे जैसी स्थिति होगी जबकि देश के पूर्वोत्तर तथा दक्षिण पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा के कारण बाढ़ जैसी समस्या होगी। दोनों ही स्थितियों में फसल की पैदावार प्रभावित होगी। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में जल-जमाव तथा मृदा की लवणता जैसी समस्याएं भी पैदा होंगी।
 
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप ध्रुवीय बर्फ तथा हिमनदियों (ग्लेशियर्स) के पिघलने से समुद्री जलस्तर में वृद्धि होगी जिसके कारण उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गोवा, गुजरात तथा बंगाल राज्यों के तटीय क्षेत्र प्रभावित होंगे। परिणामस्वरूप जल-जमाव, मृदा की लवणता तथा क्षारीयता जैसी समस्याएं पैदा होंगी और तटीय क्षेत्र बंजर भूमि में तब्दील हो जाएंगे जिसका सीधा प्रभाव फसल उत्पादन पर पड़ेगा।
 
जलवायु परिवर्तन के कारण वाष्पीकरण तथा पौधों में वाष्पोत्सर्जन की दर में अभूतपूर्व वृद्धि होगी परिणामस्वरूप जलस्रोतों तथा मिट्टी में जल की कमी होगी। जल की कमी के कारण फसल उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। जल की कमी का धान जैसी मुख्य फसल पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ेगा। तालाबों में जल की कमी के कारण सिंघाड़ा तथा मखाना जैसी फसलों की खेती प्रभावित होगी। मीठे जल स्रोतों में जल की कमी के कारण मत्स्य पालन तथा उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
 
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव देश की फसल पद्धति पर भी पड़ेगा। उत्तर तथा मध्य भारत का ज्यादातर क्षेत्रफल दलहनी फसलों तथा मिलेट्स (मोटे अनाज वाली फसलें जैसे- ज्वार, बाजरा तथा रागी) के अधीन होगा। उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में गेहूं के क्षेत्रफल में अभूतपूर्व गिरावट आएगी। धान उगाने वाले देश के पूर्वोत्तर तथा दक्षिणी-पश्चिमी राज्यों में इस फसल के क्षेत्रफल में वृद्धि होगी।
 
जलवायु की तपन के फलस्वरूप फसलों की कुछ चुनिंदा तापरोधी, सूखारोधी, रोगरोधी तथा कीटरोधी किस्मों की वृहद पैमाने पर खेती के कारण फसल विविधता पर प्रभाव पड़ेगा जिससे पौष्टिक देसी किस्में विलुप्त हो जाएंगी परिणामस्वरूप आनुवांशिक क्षय की प्रक्रिया में वृद्धि होगी। खरपतवारों के वर्चस्व के कारण फसलों की जंगली प्रजातियां भी विस्थापित हो जाएंगी जिससे फसल सुधार कार्यक्रम पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
 
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप हिमालय की हिमनदियों के पिघलने के कारण, गंगा, ब्रह्मपुत्र, सतलज, रावी, व्यास आदि नदियों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा परिणामस्वरूप जल की कमी होगी जिसके कारण फसल उत्पादन पर प्रभाव पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं जैसे आंधी, समुद्री तूफान, अल नीनो तथा सूखा के प्रकोप में अभूतपूर्व बढ़ोतरी के फलस्वरूप फसल उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पडेगा।
 
तपन के परिणामस्वरूप रोगाणुओं की जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ नई प्रजातियों के उद्भव के कारण देश के पशुधन आबादी पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। हरे तथा सूखे चारे की कमी के कारण भी पशुधन प्रभावित होगा। पशुधन किसानों की अतिरिक्त आय के स्रोत के साथ कृषि कार्यों जैसे जुताई में भी उपयोगी होते हैं।
सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव..अगले पेज पर...

सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव : जलवायु परिवर्तन का प्रभाव सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र पर भी पड़ेगा। कृषि में कीटनाशकों, शाकनाशकों तथा रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता के कारण छोटे अथवा गरीब किसान और गरीब होंगे, जबकि सम्पन्न किसान भी गरीब होंगे। कृषि धंधों में हानि के परिणामस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन होगा जिससे शहरी क्षेत्रों में भीड़-भाड़ वाली स्थिति होगी फलस्वरूप सामाजिक ताना-बाना नष्ट होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में संयुक्त परिवार बिखरकर एकल परिवार में परिवर्तित हो जाएंगे। एड्स जैसी बीमारी के प्रकोप के कारण भी समाज के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा।
 
अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह में भारत की आदिम जनजातियां जैसे ग्रेट अण्डमानीस, सेण्टेनलीज, ओन्जे तथा जारवा (निग्रोटो समूह) निकोबारीज तथा शाम्पेन (मंगोलायड समूह) निवास करती हैं। यह आदिम जनजातियां यहां के घने वनों में रहती हैं तथा अपने भोजन की पूर्ति हेतु शिकार तथा मछली पकड़ने पर निर्भर होती हैं। समुद्र के जलस्तर में वृद्धि के कारण द्वीप समूह के डूबने से इन आदिम जनजातियों का अस्तित्व सदैव के लिए समाप्त हो जाएगा।
 
जलवायु परिवर्तन के फलस्‍वरूप समुद्री जलस्तर में बढ़ोतरी के कारण देश के तटीय क्षेत्रों से लगभग 10 करोड़ (100 मिलियन) लोग विस्थापित होंगे। इन विस्थापित लोगों का शहरी क्षेत्रों की तरफ पलायन होगा जिसके परिणामस्वरूप शहरी क्षेत्रों में झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि होगी। शहरी क्षेत्रों में झुग्गी-झोपड़ियों के विस्तार के कारण मूलभूत सुविधाएं (बिजली, पानी आदि) प्रभावित होंगी। इसके अतिरिक्त गंदगी के साथ आपराधिक घटनाओं में भी वृद्धि होगी।
 
तपन के कारण वनों में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि के परिणामस्वरूप वनों में रहने वाली जनजातियां विस्थापित होगीं। चूंकि जनजातियों की पहचान उनके संस्कृति, रहन-सहन तथा खानपान से होती है, अतः मुख्य जीवनधारा में आने के बाद उनमें बदलाव आएगा, जिससे उनकी पहचान स्वतः ही समाप्त हो जाएगी।
 
भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में उष्णता में वृद्धि के फलस्वरूप मानव प्रजनन दर में बढ़ोतरी होगी, जिसके कारण जनसंख्या की विकास दर में भी वृद्धि होगी। जनसंख्या की विकास दर में वृद्धि के कारण संसाधनों पर दबाव बढ़ेगा, जिससे संसाधनों का क्षय होगा। जनसंख्या वृद्धि के कारण गरीबी तथा बेरोजगारी जैसी समस्याओं में अभूतपूर्व वृद्धि होगी।
 
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप कीटों तथा रोगाणुओं की जनसंख्या में बढ़ोतरी के कारण फसल उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा जिससे आर्थिक तंगी या ऋण बोझ के कारण किसान आत्महत्या को मजबूर होंगे। देश के महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं तेलंगाना जैसे राज्यों में किसानों की आत्महत्या की दर में कई गुना वृद्धि होगी।
 
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव आर्थिक जगत पर पड़ेगा। फसल पैदावार में गिरावट के कारण देश की अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा जिससे मुद्रास्फीति की दर बढ़ेगी। मुद्रास्फीति की दर बढ़ने के कारण गरीबी तथा भुखमरी के साथ-साथ बेरोजगारी भी बढ़ेगी। गरीबी के कारण बालश्रम तथा वेश्यावृत्ति सहित अन्य अपराधों में अभूतपूर्व वृद्धि होगी जो देश की कानून व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती होगी। गरीबी में वृद्धि के कारण माओवाद तथा नक्सलवाद जैसी समस्याओं में भारी वृद्धि होगी। 
 
मुद्रास्फीति बढ़ने के कारण उद्योग जगत भी प्रभावित होगा। कृषि पर आधारित उद्योगों में उत्पादन की कमी के कारण उद्योग-धन्धे बंद हो जाएंगे परिणामस्वरुप बेरोजगारी की समस्या पैदा होगी। ग्रामीण क्षेत्रों के साथ-साथ शहरी क्षेत्रों में भी आत्महत्या की घटनाओं में अभूतपूर्व इजाफा होगा।
संसाधन क्षेत्र पर कैसा रहेगा जलवायु परिवर्तन का प्रभाव..पढ़ें आगे...

संसाधन क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव : जलवायु परिवर्तन का देश के संसाधनों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। वैश्विक तपन से वनों में आग लगने के कारण वन जैसे महत्वपूर्ण जैविक संसाधन नष्ट हो जाएंगे। रासायनिक खादों पर निर्भरता के कारण मृदा अपरदन की दर में वृद्धि होगी जिसके फलस्वरूप मृदा जैसे महत्वपूर्ण संसाधन का क्षय होगा। जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप हिमनदियों के पिघलने के कारण हिमालय से निकलने वाली नदियों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा फलस्वरूप जल संसाधन में अभूतपूर्व कमी होगी। शीतलन हेतु अधिक ऊर्जा की मांग के कारण कोयले जैसा महत्वपूर्ण खनिज संसाधन समाप्त हो जाएगा।
 
ऊर्जा क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव : जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव ऊर्जा क्षेत्र पर पड़ेगा। वातावरण में तपन के कारण शीतलन हेतु ज्यादा ऊर्जा की आवश्यकता होगी। ग्रीष्म ऋतु में गर्मी से बचने के लिए ऊर्जा खपत में अभूतपूर्व वृद्धि होगी जिससे ऊर्जा की समस्या पैदा होगी। तपन के परिणामस्वरूप जल स्रोतों में जल की कमी के कारण पनबिजली परियोजनाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा जिससे ऊर्जा उत्पादन में गिरावट आएगी। ऊर्जा की कमी के कारण देश के उद्योग-धंधे, परिवहन, शोध, चिकित्सा आदि पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
 
राजनीतिक क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव : जलवायु परिवर्तन का अप्रत्यक्ष प्रभाव देश के राजनीतिक क्षेत्र पर भी पड़ेगा। खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट के कारण गरीबी तथा भुखमरी में अभूतपूर्व वृद्धि होगी जिससे गृहयुद्ध जैसे हालात होंगे। ऐसे में राजनीतिक दलों के लिए राजनीति अथवा शासन को सुचरू रूप से चलाना दुष्कर कार्य होगा। गरीबी, भुखमरी, अकाल तथा बेरोजगारी के चलते आम जनता में आक्रोश के कारण देश में राजनीतिक अव्यवस्था तथा अस्थिरता का बोलबाला होगा।
 
आंतरिक सुरक्षा तथा सामरिक क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव : जलवायु परिवर्तन का अप्रत्यक्ष प्रभाव देश की आंतरिक सुरक्षा तथा सामरिक क्षेत्र पर भी पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतरराष्ट्रीय अंतःसरकारी दल (आईपीसीसी) के अनुसार, वर्ष 2050 तक बांग्लादेश की 17 प्रतिशत भूमि और 30 प्रतिशत खाद्यान्न उत्पादन समुद्र की भेट चढ़ जाएंगे। ऐसे में खाद्यान्न उत्पादन घटने तथा समुद्र जलस्तर बढ़ने के कारण पड़ोसी देश बांग्लादेश से घुसपैठ की समस्या में कई गुना वृद्धि होगी जिससे देश के पूर्वोत्तर राज्यों जैसे असम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल आदि में बांग्लादेशी घुसपैठियों का प्रभुत्व होगा। घुसपैठ की समस्या के कारण देश की आंतरिक सुरक्षा प्रभावित होगी। घुसपैठियों के प्रभुत्व के कारण पूर्वी भारत का हिस्सा कटकर अलग देश में परिवर्तित हो सकता है।
 
भारत कम कार्बन और अक्षय प्रौद्योगिकियों के उपयोग के विस्तार और भवनों के ऊर्जा दक्षता में सुधार के द्वारा, कारखानों, उपकरणों आदि के लिए जलवायु परिवर्तन की चुनौती को पूरा करना चाहता है। लंबे समय में कुछ कम कार्बन विकास के विकल्प भारत के लिए कम महंगे हो सकते हैं और नए आर्थिक अवसरों को प्रस्‍तुत कर सकते हैं। समावेशी विकास भारत में भी एक प्रभावी जलवायु परिवर्तन नीति का अभिन्न अंग है और भारत में अध्ययन ये दर्शाता है कि कम कार्बन विकास के रास्ते समावेशी विकास के साथ संगत कर रहे हैं।
यूएनएफसीसीसी के पक्षकारों का पेरिस में सम्मेलन..पढ़ें अगले पेज पर...

यूएनएफसीसीसी के पक्षकारों (सीओपी) का पेरिस सम्मेलन : 2020 के बाद एक पारदर्शी व्यवस्था को पेरिस में COP21 सदस्य देशों द्वारा एक समावेशी प्रक्रिया के माध्यम से अपनाया जाना चाहिए। जितनी स्थिति को बदलने में देरी की जाएगी उतना ही वित्तीय बोझ अधिक होगा और जलवायु व्यवधान का हमें सामना करना पड़ेगा। इस सदी के अंत तक 2 डिग्री सेल्सियस के नीचे के तापमान में वृद्धि रखने का एक अच्छा मौका है, 2050 में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के स्तर में 2010 की तुलना में 40%-70% कम होने की जरूरत है और 2100 तक शून्य के आसपास।
 
हमने विकसित देशों से महत्वाकांक्षी घोषणाओं की उम्मीद की थी लेकिन उनकी घोषणाएं काफी निराशाजनक हैं और उम्मीदों से बहुत कम हैं। ये गंभीर चिंताओं को भी जन्म दे रही हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका ने 2005 आधारभूत से अपने कार्बन उत्सर्जन में 2025 तक 26% से -28 कटौती करने का वादा किया है अर्थात यूरोपीय संघ की प्रतिबद्धता के स्तर से काफी कम (1990 के स्तर से 2030 तक 40% से 27% जीएचजी उत्सर्जन को कम करने के लिए और 27% तक ऊर्जा दक्षता में वृद्धि और अक्षय ऊर्जा की 27% हिस्सेदारी के द्वारा) जो खुद उम्मीद से कम था।  
 
विकसित देशों को जलवायु व्यवधान चुनौतियों का सामना करने के लिए सहायता करनी चाहिए। चीन का बहुत ही रुढ़िवादी आईएनडीसी लक्ष्य 2030 है जो कि अपने कार्बन उत्सर्जन के लिए एक अनुमानित तिथि है, जब तक चीन के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वर्तमान यूरोपीय संघ उत्सर्जन के लिए तुलनात्मक होगा। कुल मिलाकर, जब तक प्रतिबद्धताएं पर्याप्‍त रूप से बढ़ नहीं जातीं तब तक पेरिस समझौता ग्लोबल वार्मिंग को + 2 डिग्री सेल्सियस तक करने के लिए सक्षम नहीं होगा।
 
एक हरित जलवायु कोष महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों को स्वतंत्र रूप से उपलब्ध बनाने के लिए 2009 में स्थापित किया गया था, लेकिन इसके लिए छोटा-सा योगदान केवल 10 बिलियन किया गया है जो कि 2020 तक प्रतिवर्ष $100 अरब डॉलर की जलवायु वित्त पोषण के अपने लक्ष्य की तुलना में काफी कम है।
 
भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन पदचिह्न छोटा है। इसकी हाल ही में कोयले पर अपनी स्वच्छ ऊर्जा कर दोगुनी हो गई है, एक राष्ट्रीय अनुकूलन कोष की स्थापना की है और मेगा सौर परियोजनाओं के लिए एवं नहर तट पर सौर पार्क के लिए भी धन आवंटित किया। भारत में 2022 तक अपने ऊर्जा मिश्रण में 6% से 15% बिजली उत्पादन में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ाने की उम्मीद है। यह स्पष्ट रूप से 2030 के लिए एक उच्च लक्ष्य निर्धारित है। सौर ऊर्जा से 100 गीगावॉट सहित, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2020 तक ऊर्जा के नए और नवीकरणीय स्रोतों से बिजली की 175 गीगावॉट उत्पन्न करने के लिए भारत की योजना की घोषणा की है। फिर दस साल आगे देखते हुए एक सौर समृद्ध देश के रूप में भारत 2030 के लिए एक और भी अधिक महत्वाकांक्षी लक्ष्य-33 से 35 फीसदी उत्सर्जन कटौती-निर्धारित कर दिया है।  
 
 
भारत, अन्य प्रदूषक देशों के बीच बढ़ती खाई : बीपी (ब्रिटिश पेट्रोलियम) द्वारा किए गए अनुमान से हाल ही में हुए पूर्वानुमान की वैधता (इस मामले में अमेरिकी ऊर्जा सूचना प्रशासन द्वारा 2013 के अनुमान) पर सवाल उठता है जिसे संशोधित करने की आवश्यकता हो सकती है।
 
हालांकि आकंड़ों में अशुद्धियों और विकृतियों की संभावना के बावजूद भारत के उत्सर्जन विकास एवं अन्य बड़े प्रदूषक देशों के बीच की खाई अधिक गहरी होती नज़र आ रही है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो भारत में उत्सर्जन विकास दर इस समय में काफी अधिक आगे बढ़ रही है जबकि दूसरे प्रदूषक देशों में इन दरों में या तो गिरावट देखने को मिल रही है या काफी कटौती की जा रही है।
 
इन विभिन्न प्रवृतियों में मुख्यत: दो कारणों से परिवर्तन नहीं हो सकता। पहली यह कि किसी भी अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्था की तुलना में भारत की अर्थव्यवस्था में तेजी से विकास होने की उम्मीद है। परिणामस्वरूप, भारत के जीवाश्म ईंधन, विशेष रूप से अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाला कोयले की खपत काफी बढ़ने का अनुमान है। विज्ञान और पर्यावरण केंद्र द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक कोयले पर भारत की भारी निर्भरता होना की एक समस्या नहीं है। समस्या है कोयला आधारित बिजली संयंत्रों के निराशाजनक दक्षता स्तर, जो कि लगभग सभी मोर्चों पर वैश्विक मानक के नीचे पाए गए हैं।
 
जारी है जलवायु गतिरोध : अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन वार्ता अक्सर इन्हीं गतिरोध के कारण विफल होती हैं।  विकासशील देश अतीत के उत्सर्जन को इंगित करते हुए चाहते हैं कि अमीर देश बड़ी कटौती करें जबकि विकसित देश विकासशील देशों से कटौती की उम्मीद करते हैं।
 
आंशिक रूप से यह भी एक कारण है कि क्यों भारतीय सरकार लगातार अंतरराष्ट्रीय जलवायु सौदों से असंतुष्ट रहती है। इस साल के शुरुआत में, भारत ने जलवायु समझौते को खारिज कर दिया जबकि ऐसा ही एक समझौते पर अमेरिका एवं चीन द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे। समझौता इसलिए खारिज किया गया क्योंकि यह एशिया के पड़ोसी देशों के सममूल्यों के अनुकूल नहीं था जिसका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन भारत की तुलना में चार गुना अधिक एवं संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ के मुकाबले काफी कम तय किया गया था।
 
इसलिए जब भारत और अन्य विकासशील देश, जलवायु परिवर्तन को लेकर, विकासित देशों पर दोहरे मापदंड रखने का आरोप लगाते हैं तो यह काफी हद्द तक सही ही है। हालांकि जलवायु पर उत्सर्जन के प्रभाव की बढ़ती प्रकृति, ऐतिहासिक पक्षपात के जोर को नजअंदाज करती है।
 
वैज्ञानिकों के अनुमान के मुताबिक यदि समय रहते सही कदम नहीं उठाए गए तो ग्लोबल वार्मिंग से बढ़ते तापमान का खामियाजा पूरी दुनिया को उठाना पड़ सकता है। वर्तमान में यह धरती केवल 2 डिग्री सेल्सियस तापमान की वृद्धि सह सकती है। यदि तापमान इससे अधिक बढ़ता है तो इसका दुष्परिणाम समस्त मानव जाति को भुगतना पड़ सकता है।
 
जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल की आधिकारिक पांचवीं आकलन रिपोर्ट (असेसमेंट रिपोर्ट,5) द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के विश्लेषण अनुसार, विश्व के पास अब भी ग्लोबल वॉर्मिंग को 20 डिग्री सेल्सियस से कम करने का मौका है। कहीं भी शेष जीवाश्म ईंधन के भंडार का 80-90% जमीन में ही छोड़ दिया जाना चाहिए। रिपोर्ट के मुताबिक यदि उत्सर्जन दर वर्तमान स्थिति से बढ़ती रही तो साल 2036 तक विश्व का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ सकता है।
क्यों है भारत के लिए गंभीर मुद्दा?..पढ़ें अगले पेज पर...

क्यों है भारत के लिए गंभीर मुद्दा?  
मोटे तौर पर जलवायु परिवर्तन की विडंबना यह है कि ऐतिहासिक दृष्टि से जिन देशों ने उत्सर्जन में सबसे कम योगदान दिया है वही देश इसके दुष्परिणाम से सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगे। उष्णकटिबंधीय राष्ट्रों जैसे कि भारत को, विशेष रूप से, अधिक असंगत प्रभाव भुगतना होगा।
 
समस्या इतनी गंभीर होने के बावजूद, जलवायु पर मंडराता खतरा विकसित देशों द्वारा की लापरवाही दर्शाता है। यह साफ तौर पर विकासशील देशों की सरकारों द्वारा जलवायु परिवर्तन पर निर्णायक कार्रवाई में घरेलू दवाब की कमी को भी दर्शाता है। विशेषज्ञों के अनुसार, कार्बन उत्सर्जन के प्रभाव की बढ़ती प्रकृति से साफ है कि भारत, अपने उच्च कार्बन-विकास के मार्ग पर जारी नहीं रह सकता, जो कि चीन के 'अभी विकास, भुगतान बाद में' के नक्शेकदम पर चल रहा है।
 
भारत का विशाल आकार और बढ़ती उत्सर्जन दर, जो कि वैश्विक प्रवृत्ति अवहेलना करती प्रतीत होती है, जलवायु परिवर्तन के मामले में बनाने या बिगाड़ने जैसा दिखाई पड़ती है। पेरिस वार्ता में भारत के रूख के बारे में अटकलें लगाते हुए पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने हाल ही में लिखा है : 'भारत को जलवायु परिवर्तन के लिए अपने दम पर काम करना चाहिए क्योंकि कई क्षेत्रों में भारत के पास तकनीकी नेतृत्व की क्षमता है…यदि दुनिया मदद के लिए आगे आती है तो अच्छी बात है। लेकिन इस मदद के लिए हमें किसी का इंतज़ार करने की जरूरत नहीं है।'