शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
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Written By Author विभूति शर्मा

'आप' तो ऐसे न थे

'आप' तो ऐसे न थे - AAP Arvind kejriwal
दिल्ली में सत्ता सँभालने के बाद आम आदमी पार्टी (आप) में जो घमासान प्रारम्भ हुआ वह थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। सत्ता चीज ही ऐसी है। लगभग हर नेता इसका स्वाद चखने को आतुर रहता है। आप सबसे अलहदा और आदर्शवादी होने का चोला ओढ़कर राजनीति के मैदान में उतरी थी और इसी के चलते दिल्ली विधानसभा चुनाव में लगातार दो बार आशा से बहुत ज्यादा सफलता हासिल की।
 
पहली बार सामान्य सी आशा लेकर चुनाव लड़ी आप को जनता ने इतनी सीटें दे दीं की वह सरकार बनाने के करीब पहुँच गई, राजनीतिक आकांक्षाओं के दबाव में उसने सरकार बनाई भी, लेकिन इसके मुखिया अरविन्द केजरीवाल राजनीति के कच्चे खिलाड़ी साबित हुए और 49 दिनों में ही सत्ता छोड़कर भाग खड़े हुए। 
पलायन की इस भूल का आभास उन्हें तब हुआ जब जनता ने लोकसभा चुनाव में आप को दिल्ली की सातों सीटों पर पटखनी दी। इस भूल के लिए केजरीवाल सालभर पछताते रहे और जनता से माफ़ी मांगते रहे। जनता भी दोनों राष्ट्रीय पार्टियों कांग्रेस और भाजपा से आजिज आ चुकी थी, इसलिए उसने देश में मोदी लहर के बावजूद दिल्ली में केजरीवाल को ही एक और मौका देना बेहतर समझा।  मौका भी ऐसा कि जिसकी कल्पना किसी भी पार्टी ने नहीं कि थी। आप ने भी नहीं।
 
दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीटों पर आप के प्रत्याशी जीतकर आए। चकाचौंध करने वाली इस जीत ने आप प्रमुख केजरीवाल को बताया कि दिल्ली की जनता उन पर आँख मूंदकर भरोसा कर रही है और उन्हें इस भरोसे को बनाए रखने के लिए दिल्ली की जनता को आश्वस्त करना होगा कि इस बार वे रणछोड़दास नहीं बनेंगे। केजरीवाल ने इस आश्वस्ति के लिए मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही घोषणा की कि अब पांच साल तक वे सिर्फ दिल्ली पर ध्यान लगाएंगे। इसके बाद ही आगे कुछ सोचेंगे। केजरीवाल की यही घोषणा आप में घमासान की वजह बन गई। अन्य राज्यों खासतौर पर दिल्ली से सटे राज्यों के क्षत्रपों को लगा कि अब उनका क्या होगा और उन्होंने विद्रोह का विगुल बजा दिया।
 
केजरीवाल भले ही दिल्ली के लिए लड़ते आए हों, मगर योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण और मेधा पाटकर जैसे सामाजिक कार्यकर्ता से नेता बने लोग अपने आपको राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। ये लोग भी केजरीवाल की तरह अन्ना के आंदोलन से जुड़े रहे और आप के संस्थापक सदस्य हैं। योगेन्द्र यादव अगर हरियाणा की राजनीति करना चाहते हैं तो प्रशांत भूषण उत्तरप्रदेश की तो मेधा पाटकर महाराष्ट्र की राजनीति में घुसकर अपने पैर फैलाने के इच्छुक हैं। 
 
केजरीवाल की घोषणा से इन्हें अपना भविष्य खतरे में दिखाई देने लगा था। इसलिए इन्होंने आप के उद्देश्यों की दुहाई देते हुए अपनी अलग दुंदुभि भी बजा दी। उधर दिल्ली पर भीषण विजय से मदोन्मत्त केजरीवाल अब किसी भी समझौते के लिए तैयार नहीं थे। वे अपना एकछत्र राज चलना चाहते हैं। उनकी इसी इच्छा ने उन्हें हिटलर की उपाधि तक दिला दी। 
 
केजरीवाल ने एक-एक कर अपने विरोधियों को बाहर का रास्ता दिखाना शुरू कर दिया' राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाकर योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण, प्रो. आनंद कुमार और अजीत झा को कार्यकारिणी से निकालने का एकतरफा फैसला सुना दिया गया। लोकपाल के कट्टर पैरोकार बनकर पार्टी बनाने वाले केजरीवाल ने अपने ही लोकपाल को पार्टी की इस महत्वपूर्ण बैठक से दूर रखा। केजरीवाल पर तानाशाही रवैया अपनाने का आरोप लगते हुए अब तक मेधा पाटकर, शाज़िया इल्मी, अंजलि दमानिया जैसे नेता भी आप से नेता तोड़ चुके हैं।