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Written By ND

मगर कुछ नहीं बदला

मगर कुछ नहीं बदला -
-विनय छजलान

सन्‌ 1984 में जब एक युवा ने इस देश की कमान संभाली थी, तब पहली बार इस देश ने इक्कीसवीं शताब्दी के बारे में सोचना शुरू किया था। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने सही मायनों में एक स्वप्नदृष्टा की भूमिका निभाते हुए देश में कम्प्यूटर क्रांति का आगाज किया। उन्हीं के नेतृत्व में सूचना प्रौद्योगिकी में क्रांति की नींव रखी गई। नए-नए आए रंगीन टीवी की जादुई दुनिया से रूबरू होते भारत ने एक बहुत बड़ी करवट बहुत हौले से ली।

  सन्‌ 1984 में जब एक युवा ने इस देश की कमान संभाली थी, तब पहली बार इस देश ने इक्कीसवीं शताब्दी के बारे में सोचना शुरू किया था। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने सही मायनों में एक स्वप्नदृष्टा की भूमिका निभाते हुए देश में कम्प्यूटर क्रांति का आगाज किया      
राजनीति के तमाम उतार-चढ़ाव के बीच भी इस करवट का असर बदस्तूर जारी रहा। इक्कीसवीं सदी के आधुनिक भारत का स्वप्न सँजोने वाला स्वप्नदृष्टा तो चला गया, लेकिन न तो वह सपना खत्म हुआ और न ही उसको हकीकत में बदलने के प्रयत्न। जहाँ नरसिंहराव सरकार की मुक्त अर्थव्यवस्था ने उस सपने को चलने के लिए पैर दिए, वहीं वाजपेयी सरकार के 'शाइनिंग इंडिया' ने मानो उसको पंख ही लगा दिए।

  अटलजी के बाद मनमोहन की सरकार आई, शाइनिंग इंडिया का नारा जरूर पिट गया, लेकिन सचमुच का इंडिया नहीं। भारत की तरक्की की रफ्तार तो मानो न थमने वाली रफ्तार पकड़ चुकी थी। जो सकल घरेलू उत्पाद के आँकड़े आ रहे थे, वे इस हौसले को और गति दे रहे थे कि कल हमारा है      
जब देश के युवा उद्यमी सारी दुनिया में छाने लगे, जब यहाँ के सॉफ्टवेयर इंजीनियरों का डंका सारी दुनिया में बजने लगा, जब हर गाँव में केबल टीवी और हर हाथ में मोबाइल नजर आने लगा और जब देश का दूरदराज इलाका भी प्रधानमंत्री सड़क योजना से जुड़ने लगा तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो हमारा इक्कीसवीं सदी के आधुनिक भारत का सपना, जो एक युवा प्रधानमंत्री ने देखा था, वह एक अनुभवी नेता के नेतृत्व में पूरा हो रहा है।

अटलजी के बाद मनमोहन की सरकार आई, शाइनिंग इंडिया का नारा जरूर पिट गया, लेकिन सचमुच का इंडिया नहीं। भारत की तरक्की की रफ्तार तो मानो न थमने वाली रफ्तार पकड़ चुकी थी। साल-दर-साल जो सकल घरेलू उत्पाद के आँकड़े आ रहे थे, वे इस हौसले को और गति दे रहे थे कि कल हमारा है।

इन तमाम सकारात्मक प्रतीकों और संदेशों के बीच भारत को एक सर्वशक्तिमान लोकतंत्र के रूप में देखने के लिए लालायित एक अरब लोगों की आकांक्षाओं को उस वक्त करारा झटका लगा, जब वाम दलों ने संप्रग से परमाणु समझौते के मुद्दे पर अपना समर्थन वापस ले लिया।

  समर्थन वापसी के बाद सत्ता के गलियारों में दलाली का जो घिनौना खेल खेला गया, उसने मानो 21वीं सदी का स्वप्न देख रहे करोड़ों भारतीयों के मुँह पर करारा तमाचा जड़ दिया। ...विकास के तमाम प्रतीक झूठे नजर आने लगे और भविष्य के उजले भारत की तस्वीर पर कालिख पुत गई      
एक सैद्धांतिक मुद्दे पर सहयोगी दल यदि सरकार से समर्थन वापस लें तो इससे तो लोकतंत्र मजबूत ही होगा, लेकिन समर्थन वापसी के बाद सत्ता के गलियारों में दलाली का जो घिनौना खेल खेला गया, उसने मानो 21वीं सदी का स्वप्न देख रहे करोड़ों भारतीयों के मुँह पर करारा तमाचा जड़ दिया। ...विकास के तमाम प्रतीक झूठे नजर आने लगे और भविष्य के उजले भारत की तस्वीर पर कालिख पुत गई।

जिस तरह सत्ता के समर्थन या विरोध के भाव तय किए जाने लगे, उससे यह अहसास हुआ कि तरक्की की सारी बातें बेमानी हैं। परदे के पीछे तो दरअसल देश की राजनीति और उसके संचालक गहरे दलदल में डूब चुके हैं। ऐसा नहीं है कि ये सब पहले नहीं होता था।

  लोकसभा में बेदाग छवि वाले प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह विश्वास का मत जीतें या हारें, उनका और उनकी सरकार का दामन दागदार तो हो ही चुका है। ...जनता के सामने तो सारे ही दल अपना विश्वास का मत हार ही चुके हैं। कितना कुछ बदल गया है... मगर कुछ नहीं बदला      
पहले पैमाना छोटा था और सूचना देर में मिलती थी। तब शिबू सोरेन और उनके सांसद कितने में बिके, यह बहुत बाद में उजागर हो पाया, लेकिन आज तो जैसे शेयरों के भाव आप ऑनलाइन देख सकते हैं, वैसे ही सांसदों के भाव भी देखे जा सकते हैं। सूचना क्रांति और तमाम टीवी चैनलों की उपलब्धता ने यही तो मदद (?) की है हमारी!!

आप सभी ने विश्वास मत पर लंबे भाषण सुने होंगे, लेकिन जब हर किसी को यह मालूम ही है कि मतदान इन भाषणों के आधार पर नहीं होगा, उसके लिए तो अलग ही 'डील' हो चुकी है, तो फिर इस तरह की बहस के क्या मायने? जनता के साथ आखिर ये छलावा क्यों?

लोकसभा में बेदाग छवि वाले प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह विश्वास का मत जीतें या हारें, उनका और उनकी सरकार का दामन दागदार तो हो ही चुका है। ...जनता के सामने तो सारे ही दल अपना विश्वास का मत हार ही चुके हैं। कितना कुछ बदल गया है... मगर कुछ नहीं बदला...।
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