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Written By गायत्री शर्मा

सही मायने में बाल दिवस

Children's Day 2009 | सही मायने में बाल दिवस
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यूँ तो कहने को बाल दिवस बच्चों का दिन है, जिस दिन बच्चे स्कूल में जी-भर के मौज-मस्ती करते हैं और यह सोचकर खुश होते हैं कि आखिर हमारे लिए भी तो एक विशेष दिन है। परंतु क्या आज बाल दिवस और दिनों की तरह मिठाई-चॉकलेट बाँटने या भाषणबाजियों तक ही सीमित रह गया है या फिर इससे अधिक भी इस दिन का कोई औचित्य है?

जब बच्चों का ही दिन है तो क्यों न उन बच्चों के बारे में भी सोचा जाए जो न तो सुविधासंपन्न है और न ही शिक्षित, जिनके पास न तो खाने को पेट भर रोटी है और न ही तन ढँकने को कपड़े।

ये बच्चे आपको गली-गली व चौराहों-चौराहों पर घूमकर जूते की पॉलिश करते, होटलों में चाय के कप उठाए या फिर भीख माँगते नजर आएँगे। पढ़ाई-लिखाई और खेलने-कूदने की उम्र में ये बच्चे दो जून रोटी की तलाश करते हैं और खानाबदोशों की तरह इधर-उधर भटकते हैं।

गली-मोहल्लों या चौराहों पर इन बच्चों को देखकर कोई नहीं रुकता। कोई इनकी सुध नहीं लेता। यहाँ तक कि वे लोग भी इनकी जिंदगियाँ सँवारने की कोशिश नहीं करते, जो अपने भाषणों में बच्चों के खुशहाल भविष्य की योजनाओं की सफलता के दावे करते नहीं थकते।

कहने को जो राजनेता 'सर्व शिक्षा अभियान' की सफलता की बात करते हैं वे स्वयं ही अपने घर के सामने ईंट और रेती उठाते मजदूर के बच्चों को देख आँखें मूँद लेते हैं। क्या 'बाल मजदूर' शिक्षा के अधिकारी नहीं है? क्या आज बच्चों की प्रगति का सपना केवल कागजों पर ही पूरा हो रहा है या फिर हकीकत में इनके सपने सच होते नजर आ रहे हैं?

बच्चे हो रहे हैं शोषण के शिकार :
आज भी चाचा नेहरू के इस देश में लगभग 5 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं। जो चाय की दुकानों पर नौकरों के रूप में, फैक्ट्रियों में मजदूरों के रूप में या फिर सड़कों पर भटकते भिखारी के रूप में नजर आ ही जाते हैं। इनमें से कुछेक ही बच्चे ऐसे हैं, जिनका उदाहरण देकर हमारी सरकार सीना ठोककर देश की प्रगति के दावे को सच होता बताती है।

यही नहीं आज देश के लगभग 53.22 प्रतिशत बच्चे शोषण का शिकार है। इनमें से अधिकांश बच्चे अपने रिश्तेदारों या मित्रों के यौन शोषण का शिकार है। अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञता व अज्ञानता के कारण ये बच्चे शोषण का शिकार होकर जाने-अनजाने कई अपराधों में लिप्त होकर अपने भविष्य को अंधकारमय कर रहे हैं।

शिक्षा से वंचित देश के नौनिहाल :
सुविधासंपन्न बच्चे तो सब कुछ कर सकते हैं परंतु यदि सरकार देश के उन नौनिहालों के बारे में सोचे, जो गंदे नालों के किनारे कचरे के ढ़ेर में पड़े हैं या फुटपाथ की धूल में सने हैं। उन्हें न तो शिक्षा मिलती है और न ही आवास। सर्व शिक्षा के दावे पर दम भरने वाले भी इन्हें शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ नहीं पाते।

पैसा कमाना इन बच्चों का शौक नहीं बल्कि मजबूरी है। अशिक्षा के अभाव में अपने अधिकारों से अनभिज्ञ ये बच्चे एक बंधुआ मजदूर की तरह अपने जीवन को काम में खपा देते हैं और इस तरह देश के नौनिहाल शिक्षा, अधिकार, जागरुकता व सुविधाओं के अभाव में अपने अशिक्षा व अनभिज्ञता के नाम पर अपने सपनों की बलि चढ़ा देता है।

यदि हमें 'बाल दिवस' मनाना है तो सबसे पहले हमें गरीबी व अशिक्षा के गर्त में फँसे बच्चों के जीवनस्तर को ऊँचा उठाना होगा तथा उनके अँधियारे जीवन में शिक्षा का प्रकाश फैलाना होगा। यदि हम सभी केवल एक गरीब व अशिक्षित बच्चे की शिक्षा का बीड़ा उठाएँगे तो निसंदेह ही भारत प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा तथा हम सही मायने में 'बाल दिवस' मनाने का हक पाएँगे।