मंगलवार, 16 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. मनोरंजन
  2. बॉलीवुड
  3. फिल्म समीक्षा
  4. Sonchidiya, Movie Review in Hindi, Sushant Singh Rajput, Bhumi Pednekar, Manoj Bajpayee, Hindi Film
Written By

सोनचिड़िया : फिल्म समीक्षा

सोनचिड़िया : फिल्म समीक्षा - Sonchidiya, Movie Review in Hindi, Sushant Singh Rajput, Bhumi Pednekar, Manoj Bajpayee, Hindi Film
एक समय वो भी था जब चंबल की घाटियों में डाकुओं की गूंज थी। उस समय बॉलीवुड में भी कई फिल्में इस विषय पर बनी। डाकुओं को ग्लैमरस तरीके से पेश किया गया और अमिताभ, धर्मेन्द्र, सुनील दत्त, विनोद खन्ना जैसे अभिनेता भी डाकू की भूमिका निभाने के लिए उतावले हो गए।
 
जिस देश में गंगा बहती है, मुझे जीने दो, गंगा-जमुना, मेरा गांव मेरा देश जैसी बेहतरी‍न फिल्में इस विषय पर देखने को मिली। डाकुओं को दौर खत्म होते ही इस तरह की फिल्मों का दौर खत्म हो गया। हालांकि शेखर कपूर की 'बैंडिट क्वीन' और तिग्मांशु धुलिया की 'पान सिंह तोमर' बाद में बनी और ये फिल्में मील का पत्थर साबित हुईं। 
 
फिल्म निर्देशक अभिषेक चौबे 'सोनचिड़िया' के जरिये फिर चंबल के बीहड़ में पहुंच गए और लंबे समय बाद बड़े स्क्रीन पर डाकू देखने को मिले। कहानी 1975 की है। मान सिंह (मनोज बाजपेयी) डाकुओं की गैंग का सरदार है। वकील सिंह (रणवीर शौरी) और लख्ना (सुशांत सिंह राजपूत) उसकी गैंग के महत्वपूर्ण सदस्य हैं। 
 
मान सिंह को नए हथियार खरीदने के लिए पैसों की जरूरत है। लच्छू से उसे खबर मिलती है कि एक गांव में शादी होने वाली है जिसमें बहुत सारा धन और सोना दिया जा रहा है। मान सिंह और उसकी गैंग लूट के इरादे से उस गांव में पहुंच जाते हैं। इधर पुलिस ऑफिसर वीरेंदर गुज्जर (आशुतोष राणा) को भी खबर मिल जाती है कि डाकू आ रहे हैं। 
 
पुलिस और डाकू आमने सामने होते हैं। इस मुठभेड़ में मान‍ सिंह और उसके आधे साथी मारे जाते हैं। वकील, लख्ना और उनके कुछ साथी बच निकलने में सफल रहते हैं। वकील अब गैंग लीडर बन जाता है और लख्ना पर आरोप लगाता है कि उसने ही गैंग से गद्दारी करते हुए पुलिस को खबर दी थी। 
 
पुलिस से भागते-भागते इनकी मुलाकात इंदुमती तोमर (भूमि पेडनेकर) से होती है। उसके साथ उसकी बहन सोनचिड़िया भी रहती है जिसके साथ क्रूरतापूर्वक बलात्कार हुआ है। सोनचिड़िया को अस्पताल पहुंचाना जरूरी है और वह वकील से मदद मांगती है। डाकुओं का समूह इसके लिए तैयार हो जाता है। 
 
सभी देवी से आशीर्वाद लेने एक मंदिर में जाते हैं। वहां पर इंदुमति का पति पहुंचता है और बताता है कि इंदुमति ने अपने ससुर को मार डाला है। वह डाकुओं से इंदुमति को सौंपने के लिए कहता है। वकील तैयार हो जाता है, लेकिन लख्ना इस बात का विरोध करता है। किसकी बात मानी जाती है? क्या इंदुमति को मदद मिलती है? क्या वकील और लख्ना अलग हो जाते हैं? इन बातों के जवाब फिल्म में मिलते हैं। 
 
फिल्म का विषय पुराना जरूर हो गया है, लेकिन अभिषेक चौबे और सुदीप शर्मा ने अच्छी कहानी लिखी है। परत-दर-परत बातें सामने आती हैं इसलिए दर्शकों की रूचि फिल्म में बनी रहती है। फिल्म के किरदारों पर भी खासी मेहनत की गई है। दर्शाया गया है कि कोई भी डाकू नहीं बनना चाहता है और हर डाकू बुरा नहीं होता। 
 
स्क्रीनप्ले इस तरह लिखा गया है कि ‍फिल्म बहुत ज्यादा गंभीर नहीं लगती। इसमें हंसी-मजाक की भी गुंजाइश रखी गई है। सुदीप के द्वारा लिखे संवाद इसमें अहम भूमिका निभाते हैं। 
 
जहां तक कमियों का सवाल है तो कुछ बातें अस्पष्ट हैं। साथ ही कुछ उतार-चढ़ाव ऐसे हैं जो महज दर्शकों को चौंकाने के लिए रखे हैं। फिल्म को वास्तविकता के नजदीक रखने के लिए चंबल के बीहड़ों में बोली जाने वाली बोली ही किरदारों से बुलवाई गई है जो समझना हर दर्शक के लिए मुश्किल है। फिल्म की शुरुआत में इससे तालमेल बैठाना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन कुछ मिनटों में बातें समझ आने लगती हैं। हालांकि कुछ प्रिंट्स में सब-टाइटल्स दिए गए हैं, लेकिन भारतीय दर्शक इस तरह से फिल्म देखने के आदी नहीं हैं। कुछ प्रिंट्स हिंदी में डब भी किए गए हैं। यदि आप फिल्म देखने जा रहे हैं तो यह तय करके ही जाएं कि किस तरह से फिल्म देखना है। 
 
अभिषेक चौबे ने निर्देशक के रूप में अच्छा काम किया है। उन्होंने फिल्म के लिए अच्छा माहौल तैयार किया और उम्दा कलाकारों ने उनके काम को आसान किया। कुछ शॉट्स जरूर फिल्म के मूड को मैच नहीं करते हैं, लेकिन जिस दर्शक वर्ग के लिए उन्होंने फिल्म बनाई है वो इसे पसंद कर सकता है। अभिषेक यह बात अच्छी तरह जानते थे कि कब ड्रामा में तनाव पैदा करना है और कब हास्य। फ्लैशबैक वाला पोर्शन थोड़ा लंबा हो गया है और इसे छोटा किया जाना था। 
 
फिल्म का एक्टिंग डिपार्टमेंट बहुत मजबूत है। सुशांत सिंह राजपूत का अभिनय काबिल-ए-तारीफ है और लगा ही नहीं कि वे एक्टिंग कर रहे हैं। मनोज बाजपेयी का रोल लंबा नहीं है, लेकिन वे अपने अभिनय के बूते पर गहरा असर छोड़ते हैं। रणवीर शौरी अपने किरदार के साथ पूरी तरह न्याय करते हैं। भूमि की फिल्म में एंट्री काफी देर से होती है, लेकिन उनके किरदार की एंट्री के बाद फिल्म में तनाव बढ़ जाता है। आशुतोष राणा ने संवाद इतनी सफाई से बोले हैं कि लगता है कि उन्हें सुनते ही रहें। 
 
विशाल भारद्वाज का संगीत फिल्म के मूड के अनुरूप है और फिल्म देखते समय अच्छा लगता है। अनुज राकेश धवन की सिनेमाटोग्राफी फिल्म देखने की अपील को बढ़ा देती है। उन्होंने कई एंगल से फिल्म को शूट किया है और प्रयोग करने से नहीं घबराए हैं। 
 
कुछ हटके पसंद करते हैं तो 'सोनचिड़िया' को मौका दिया जा सकता है। 
 
बैनर : आरएसवीपी
निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला
निर्देशक : अभिषेक चौबे
संगीत : विशाल भारद्वाज
कलाकार : सुशांत सिंह राजपूत, भूमि पेडनेकर, मनोज बाजपेयी, रणवीर शौरी, आशुतोष राणा 
रेटिंग : 3/5 
ये भी पढ़ें
अक्षय कुमार के साथ इस हॉरर फिल्म में नजर आएंगी सोभिता धुलिपाला