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Written By समय ताम्रकर

मांझी- द माउंटेन मैन: फिल्म समीक्षा

मांझी- द माउंटेन मैन: फिल्म समीक्षा - Manjhi - The Mountain Man, Nawazuddin Siddiqui, Ketan Mehta, Radhika Apte, Samay Tamrakar
दशरथ मांझी अलग ही मिट्टी का बना होगा, वरना एक आदमी पहाड़ से पंगा लेकर अकेला ही विजय हासिल कर ले ये आम आदमी की बस की बात नहीं है। इससे साबित होता है कि व्यक्ति के अंदर असीमित क्षमताएं होती हैं, बस खुद पर उसे यकीन होना चाहिए। 
 
दशरथ मांझी का जीवन ऐसा है कि उस पर फिल्म बनाई जाए और केतन मेहता ने 'मांझी- द माउंटेन मैन' के जरिये यह काम कर दिखाया है। वैसे भी केतन को बायोपिक बनाना पसंद है और वे वल्लभ भाई पटेल, मंगल पांडे और राजा रवि वर्मा पर फिल्म बना चुके हैं। 
 
दशरथ मांझी बिहार के गेहलौर गांव में रहने वाला एक आम आदमी था। 1934 में उसका जन्म हुआ। गेहलौर गांव की तरक्की में सबसे बड़ी रूकावट पहाड़ था। लोगों को घूमकर वजीरजंग जाना पड़ता था, जहां अस्पताल, स्कूल, रेलवे स्टेशन थे। इसमें समय बरबाद होता था। पहाड़ के कारण सुविधाएं भी गेहलौर तक नहीं पहुंची थी। 
 
एक दिन दशरथ मांझी की पत्नी फाल्गुनी (फगुनिया)  पहाड़ से गिर जाती है। घूम कर जाना पड़ता है और इस कारण उसकी मृत्यु हो जाती है। गुस्साया दशरथ विशाल पहाड़ के सामने खड़ा होकर बोलता है 'बहुत बड़ा है, अकड़ है, ये भरम है, भरम' और वह हथौड़ा लेकर अकेला ही सुबह से लेकर रात तक पहाड़ में से रास्ता बनाने में जुट जाता है। 
उसका यह जुनून कभी खत्म नहीं होता। वह कभी नहीं सोचता कि यह काम उसके बस की बात नहीं है। लोग उसे पागल समझते हैं, बच्चे पत्थर मारते हैं, उसके पिता नाराज होते हैं, लेकिन दशरथ इन बातों से बेखबर जुटा रहता है अपने मिशन में। 22 साल लग जाते हैं उसे पहाड़ में से रास्ता बनाने में और अंत में यह आदमी पहाड़ को बौना साबित कर उस पर विजय हासिल कर लेता है। 
 
दशरथ बेहद गरीब था। खाने के पैसे भी नहीं थे, उसके पास। जब पानी की कमी के चलते पूरा गांव खाली हो गया तब भी वह पहाड़ छोड़ कर जाने के लिए तैयार नहीं हुआ। पत्तियां खाकर उसने पेट भरा और पहाड़ को काट डाला। एक पत्रकार उससे पूछता है कि 'इतनी ताकत कहां से लाते हो?' वह जवाब देता है 'पहले जोरू से प्यार था, अब इस पहाड़ से है।' प्यार में कितनी ताकत होती है इसकी मिसाल है दशरथ। लोग ताजमहल बनवाते हैं, लेकिन अपनी पत्नी की याद में दशरथ ने उस पहाड़ को ही उखाड़ फेंका जिसने उसकी पत्नी को उससे छीन लिया था। 
 
दशरथ की कहानी उन लोगों के लिए प्रेरणा भी है जो हर काम को कठिन मानते हैं। फिल्म में एक दृश्य में एक पत्रकार दशरथ के आगे दुखड़ा रोता है कि वह अखबार मालिकों के हाथों की कठपुतली बन गया है। दशरथ कहता है कि नया अखबार शुरू कर लो। वह कहता है कि यह बहुत कठिन है। तब दशरथ पूछता है पहाड़ तोड़ने से भी कठिन है? 

 
फिल्म की स्क्रिप्ट केतन मेहता और महेंद्र झाकर ने मिल कर लिखी है और फिल्म में तीन ट्रेक समानांतर चलते हैं। एक तो दशरथ की पहाड़ तोड़ने की प्रेरणास्पद कहानी, जो बताती है कि भगवान भरोसे मत बैठो, क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो। 
 
दूसरा ट्रेक दशरथ और उसकी पत्नी फाल्गुनी की प्रेम कहानी का है और इस तरह का प्रेम अब बहुत कम देखने को मिलता है।
 
तीसरा ट्रेक उस दौर में राजनीतिक तौर पर चल रही उथल-पुथल को दर्शाता है। मसलन छुआछुत को सरकार खत्म करती है, जमींदारों के खिलाफ डाकू खड़े हो जाते हैं, आपातकाल लगता है। दशरथ को पैसा दिलाने के बहाने उसके नाम पर नेता और सरकारी अफसर लाखों रुपये डकार जाते हैं। दशरथ इसकी शिकायत 1300 किलोमीटर दूर पैदल चल कर दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से करने के लिए जाता है, लेकिन पुलिस उसे भगा देती है। वन विभाग वाले पहाड़ को अपनी संपदा बता कर दशरथ को जेल में डाल देते हैं। ये राजनीतिक हलचल बताती है कि तब भी आम आदमी की नहीं सुनी जाती थी और हालात अब भी सुधरे नहीं हैं। भ्रष्टाचार और गरीबी सिर्फ नारों तक ही सीमित है।
 
दशरथ की कहानी में इतनी पकड़ है कि आप पूरी फिल्म आसानी से देख लेते हैं और दशरथ की हिम्मत, मेहनत और जुनून की दाद देते हैं। अखरता है कहानी को कहने का तरीका। निर्देशक केतन मेहता ने कहानी को आगे-पीछे ले जाकर प्रस्तुतिकरण को रोचक बनाना चाहा, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। ये कट्स चुभते हैं। साथ ही दशरथ की प्रेम कहानी के कुछ दृश्य गैर-जरूरी लगते हैं। पहाड़ भी छोटा-बड़ा होता रहता है। केतन मेहता प्रतिभाशाली निर्देशक हैं, लेकिन 'मांझी द माउंटन मैन' में उनका काम उनके बनाए गए ऊंचे स्तर से थोड़ा नीचे रहा है, बावजूद इसके उन्होंने बेहतरीन फिल्म बनाई है। 
 
अभिनय के क्षेत्र में यह फिल्म बहुत आगे है। एक से बढ़कर एक कलाकार हैं। नवाजुद्दीन सिद्दीकी अब हर रोल को यादगार बनाने लगे हैं। चाहे वो बदलापुर का विलेन हो या बजरंगी भाईजान का पत्रकार। मांझी के किरदार में तो वे घुस ही गए हैं। चूंकि नवाजुद्दीन खुद एक छोटे गांव से हैं, इसलिए उन्होंने एक ग्रामीण किरदार की बारीकियां खूब पकड़ी हैं। एक सूखे कुएं वाले दृश्य में उन्होंने कमाल की एक्टिंग की है। मांझी के रूप में उनका अभिनय लंबे समय तक याद किया जाएगा। 
 
राधिका आप्टे का नाम अब ऐसी अभिनेत्रियों में लिया जाने लगा है और हर तरह के रोल आसानी से निभा लेती हैं। मांझी की पत्नी के किरदार में उन्होंने सशक्त अभिनय किया है। फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट भी तगड़ी है और हर कलाकार ने अपना काम बखूबी किया है। 
 
खुश होने पर मांझी बोलता था- शानदार, जबरदस्त, जिंदाबाद। फिल्म देखने के बाद आप भी यही बोलना चाहेंगे। 
बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, एनएफडीसी इंडिया

निर्माता : नीना लथ गुप्ता, दीपा साही
निर्देशक : केतन मेहता
संगीत : संदेश शांडिल्य, हितेश सोनिक
कलाकार : नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, तिग्मांशु धुलिया, पंकज त्रिपाठी, दीपा साही, गौरव द्विवेदी, अशरफ उल हक
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 1 मिनट 51 सेकंड
रेटिंग : 3.5/ 5