शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. मनोरंजन
  2. बॉलीवुड
  3. फिल्म समीक्षा
  4. Bank Chor, Riteish Deshmukh, Samay Tamrakar, Movie Review Bank Chor

बैंक चोर : फिल्म समीक्षा

बैंक चोर : फिल्म समीक्षा - Bank Chor, Riteish Deshmukh, Samay Tamrakar, Movie Review Bank Chor
बैंक चोर देख 2005 में प्रदर्शित 'ब्लफमास्टर' याद आ जाती है क्योंकि दोनों फिल्मों का प्रस्तुतिकरण एक जैसा है। 'ब्लफमास्टर' के अंत में पता चलता है पूरी फिल्म में जो हो रहा था वो एक नाटक था, कुछ ऐसा ही 'बैंक चोर' में भी होता है। 'ब्लफमास्टर' का ड्रामा न केवल मनोरंजक था बल्कि जो दिखाया जा रहा था वो इतना सच्चा था कि दर्शक उस पर यकीन कर बैठते हैं और अंत में जब दर्शकों को बताया जाता है कि यह सब नकली था तो वे इस तरह ठगे जाने के बावजूद खुश होते हैं, लेकिन 'बैंक चोर' में दर्शक कही भी फिल्म से जुड़ नहीं पाते। अंत में जब उतार-चढ़ाव बता कर राज पर से परदा उठाया जाता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इसके लिए लेखक और निर्देशक को दोष दिया जा सकता है। 
 
चंपक (रितेश देशमुख), गुलाब (भुवन अरोरा) और गेंदा (विक्रम थापा) जेबकतरे हैं। एक ही दांव में ज्यादा से ज्यादा पैसा पाने के चक्कर में बैंक में डाका डालने पहुंच जाते हैं। बैंक डकैती वाले दिन उनके सारे दांव उल्टे पड़ जाते हैं। पुलिस भी पहुंच जाती है और मीडिया भी। फिर एंट्री होती है सीबीआई ऑफिसर अमजद खान (विवेक ओबेरॉय) की क्योंकि बैंक में कुछ 'खास' है। अपनी हरकतों से बेवकूफ नजर आने वाले चंपक, गुलाब और गेंदा किस तरह से परिस्थितियों से निपटते हैं, यह फिल्म में कॉमेडी और थ्रिल के सहारे दिखाया गया है। 
 
कागज पर कहानी भले ही अच्छी लगती हो, लेकिन प्रस्तुतिकरण में मात खा गई है। इस कहानी में हास्य और रोमांच की भरपूर संभावनाएं थीं, जिनका दोहन नहीं हुआ। फिल्म का पहला हाफ बेहद धीमा और उबाऊ है। कहानी ठहरी हुई लगती है। चंपक, गुलाब और गेंदा की बेवकूफों वाली हरकतें हंसाती नहीं बल्कि आपके धैर्य की परीक्षा लेती हैं। चंपक मुंबई का है और गुलाब-गेंदा दिल्ली के। मुंबई बनाम दिल्ली को लेकर जो कॉमेडी पैदा की गई है वो बिलकुल प्रभावित नहीं करती। 
 
फिल्म में एक्शन कम और बातें ज्यादा हैं। बैंक चोर बिलकुल भी हड़बड़ी या तनाव में नजर नहीं आते। वे बड़े आराम से अपना काम करते हैं मानो महीने भर का समय उनके पास है। जबकि बाहर पुलिस खड़ी हुई है। वे घिरे हुए हैं। फिल्म के अंत में इन सब बातों का स्पष्टीकरण दिया गया है, लेकिन ये काफी नहीं है। 
 
स्क्रिप्ट में इतनी कमियां हैं कि उन्हें यहां गिनाने का कोई मतलब नहीं है। इतना बड़ा बैंक, मात्र तीन चोर, अंदर 28 लोग, बाहर पुलिस, सीबीआई, बड़ी आसानी से इन पर काबू किया जा सकता था, लेकिन कुछ नहीं होता। चोर पकड़ने वाले तो मानो हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। इंटरवल के बाद जरूर दर्शकों को चौंकाने में फिल्मकार को सफलता हाथ लगती है, लेकिन यह उफान बहुत जल्दी उतर जाता है। 
 
निर्देशक के रूप में बम्पी फिल्म को विश्वसनीय नहीं बना पाए। कहानी जो हास्य और रोमांच की मांग करती थी, वे पूरी नहीं कर पाए। 
 
रितेश देशमुख का अभिनय अच्छा है, हालांकि उनसे बहुत कुछ कराया जा सकता था। गुलाब और गेंदा बने भुवन अरोरा और विक्रम थापा की जोड़ी अच्छी लगती है और उन्होंने थोड़े राहत के पल दिए हैं। विवेक ओबेरॉय को संवादों के जरिये बहुत काबिल  ऑफिसर बताया गया है, लेकिन वे कभी कुछ करते नहीं दिखाई दिए। रिया चक्रवर्ती का अभिनय औसत है। बाबा सहगल बोर करते हैं। 
 
'बैंक चोर' देखने के बाद लगता है कि जेब भी कट गई और महत्वपूर्ण समय भी गंवा बैठे।  

बैनर : वाय फिल्म्स
निर्माता : आशीष पाटिल
निर्देशक : बम्पी 
संगीत : श्री श्रीराम, कैलाश खेर, रोचक कोहली, बाबा सहगल, समीर टंडन
कलाकार : रितेश देशमुख, रिया चक्रवर्ती, विवेक ओबेरॉय, भुवन अरोरा, विक्रम थापा 
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 9 सेकंड 
रेटिंग : 1.5/5