सिल्वर स्क्रीन की शान बने अंडरवर्ल्ड और एनकाउंटर
आने वाले दिनों में 'वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई-2' (मिलन लुथारिया, एकता कपूर), 'गैंग ऑफ वासीपुर' (अनुराग कश्यप), 'जन्नत-2' (कुणाल देशमुख, महेश भट्ट), 'शूट आउट एट वडाला' (संजय गुप्ता, एकता कपूर), 'डिपार्टमेंट' (रामगोपाल वर्मा) आदि दर्शकों को परोसी जाएँगी। इन सभी फिल्मों में अपराध जगत, एनकाउंटर तथा अंडरवर्ल्ड का लेखा-जोखा है। अंडरवर्ल्ड की अंदरूनी गलियों में छुपी सच्चाइयों को सामने लाने का काम वैसे तो कई सालों से फिल्में करती रही हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में इस दूसरी दुनिया के सच के साथ ही देश और समाज से जुड़े इसके ताने-बानों के एनालिसिस का काम भी फिल्मों ने किया है। हाल ही में आई फिल्म 'ब्लड मनी' में पैसा कमाने के चक्कर में अंडरवर्ल्ड की गलियों में फँसने वाले युवक की कहानी कही गई है। पहले इसको कलयुग-2 ही नाम दिया गया था पर बाद में इसे ब्लड मनी कर दिया गया। यूँ कि अंडरवर्ल्ड या शॉर्टकट में अथाह दौलत तक पहुँचने वाले रास्ते जन्नत की सी मरीचिका तो उत्पन्न कर सकते हैं लेकिन उस पूरे रास्ते में आप चाहे-अनचाहे अपने वजूद को खून से रंगते चले जाते हैं। शर्त यही कि यह अथाह धन आपको बिना खून में डूबे नहीं मिल सकता। या तो अपनी बली दो या दूसरे की लो। यही कलयुग में जिंदा रहने का फंडा है। खैर... यह एक फिलॉसफीकल मुद्दा हो गया। इस तरह के विषयों से अक्सर महेश भट्ट एंड कंपनी को बहुत प्रेम रहा है। उन्होंने एक के बाद एक कई फिल्में अंडरवर्ल्ड तथा अपराध की दुनिया से जुड़ी हुई दी हैं। लेकिन अब यह विषय केवल भट्ट खेमे के अधिकार क्षेत्र में नहीं रहा। इस विषय के प्रति बढ़ते क्रेज का ही असर है कि आने वाले दिनों में 'वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई-2' (मिलन लुथारिया, एकता कपूर), 'गैंग ऑफ वासीपुर' (अनुराग कश्यप), 'जन्नत-2' (कुणाल देशमुख, महेश भट्ट), 'शूट आउट एट वडाला' (संजय गुप्ता, एकता कपूर), 'डिपार्टमेंट' (रामगोपाल वर्मा) आदि दर्शकों को परोसी जाएँगी। इन सभी फिल्मों में अपराध जगत, एनकाउंटर तथा अंडरवर्ल्ड का लेखा-जोखा है। अंडरवर्ल्ड की अंदरूनी गलियों में छुपी सच्चाइयों को सामने लाने का काम वैसे तो कई सालों से फिल्में करती रही हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में इस दूसरी दुनिया के सच के साथ ही देश और समाज से जुड़े इसके ताने-बानों के एनालिसिस का काम भी फिल्मों ने किया है। साथ ही देश में हुए बम विस्फोटों तथा नवयुवकों के अंडरवर्ल्ड में शामिल होकर एनकाउंटर के बढ़ते ऑपरेशन्स पर भी इन फिल्मों ने अलग तरह से रोशनी डाली। इनमें से ज्यादातर फिल्में असल जिंदगी के किसी अंडरवर्ल्ड डॉन या एनकाउंटर स्पेशलिस्ट से जुड़ी कहानी को तफसील से बयाँ करने वाली थीं। धीरे-धीरे इनमें क्रिकेट के लिए सट्टा लगाने वाले बुकी, मैन ट्रैफिकिंग तथा तस्करी जैसे मुद्दे भी बड़े पैमाने पर शामिल होने लगे। इनके अलावा डाकू, ठग और शातिर चोर तो हमेशा से फिल्मों का हिस्सा रहे ही हैं। रामगोपाल वर्मा ने 'सत्या' और 'कंपनी' के जरिए एक अलग ही तरह का सिनेमा रचकर सामने रख दिया। दर्शक अब तक गैंगवार और अंडरवर्ल्ड के बारे में पढ़ा ही ज्यादा करते थे या सुना करते थे लेकिन अब वो एक नए रूप में उनके सामने था। जहाँ बड़े-बड़े डॉन अवैध धन के बूते पर देश में अव्यवस्था फैलाने के साथ ही अपनी अलग दुनिया और वजूद बना रहे थे और नई-नई उगी मूँछों के साथ किशोर-युवा उनके दल के शूटर बन रहे थे। इन स्थितियों को कुछ फिल्मों ने पूरे खुरदुरेपन के साथ उकेरा तो कुछ ने कमर्शियल फिल्मों की नरमी की परत भी इन पर चढ़ा डाली। फिरोज़ खान द्वारा बनाए गए तमिल फिल्म के रीमेक 'दयावान' ने भी इस विषय को अलग अंदाज़ में उठाया था वहीं मुकुल आनंद द्वारा निर्देशित 'अग्निपथ' ने तो डॉन और माफिया वाली फिल्मों के सारे रिकॉर्ड ही ध्वस्त कर डाले। इस फिल्म ने एंग्री मैन अमिताभ की एक नई ही छवि गढ़ डाली जो आज भी लोगों के जेहन में जिंदा है। यहाँ तक कि करण जौहर ने इसी नाम से इसका रीमेक भी कुछ हेर-फेर कर बना डाला। नई अग्निपथ का निर्देशन किया करन मल्होत्रा ने। प्रकाश झा और सुधीर मिश्रा जैसे बुद्धिजीवी डायरेक्टर्स ने इस विषय के कैनवास को और भी बड़ा किया। 'गंगाजल', 'अपहरण', 'ये साली जिंदगी' जैसी फिल्मों ने पूरी बोल्डनेस और देसी अंदाज में इस विषय को पर्दे पर उकेरा। महेश मांजरेकर की 'वास्तव', ई निवास की 'शूल', विशाल भारद्वाज की 'मकबूल' तथा 'ओंकारा', शिमित अमीन की 'अब तक छप्पन', तिग्मांशु धूलिया की 'हासिल' तथा 'साहब बीवी और गैंगस्टर' तथा अनुराग कश्यप की 'गुलाल' आदि को भी इस तरह की फिल्मों की श्रेणी में रखा जा सकता है। कुल मिलाकर गैंगवार, गैंगस्टर्स, डॉन्स, माफिया गिरोह और राजनीति से लेकर फिल्मों तक से जुड़े उनके तार ने हमेशा से बॉलीवुड को आकर्षित किया है। इसके अलावा आज सामने आ रही निर्देशकों तथा लेखकों की नई फौज इस विषय के नए एंगल्स प्रस्तुत करने में जुटी है। चूँकि इनमें से अधिकांश लोग छोटे शहर या कस्बों से जुड़े हैं तथा मध्यमवर्गीय तबके से ताल्लुक रखते हैं इसलिए इस विषय से जुड़ी छोटी-छोटी लेकिन गंभीर बात को मुद्दे की तरह उठा पाते हैं। देसी अंदाज में अपने आस-पास की अव्यवस्थाओं और अराजकता का आंकलन वे आसानी से कर पाते हैं क्योंकि कहीं न कहीं हर डॉन उसी मध्यमवर्ग में से खड़ा होता है।
- निशी मल्होत्रा