• Webdunia Deals
  1. मनोरंजन
  2. »
  3. बॉलीवुड
  4. »
  5. ग्लैमर दुनिया
Written By ND

आनंद मरते नहीं...!

आनंद मरते नहीं...! -
ND
मौत के पल-पल करीब आने के अनुभव को जिंदादिली से जीने का नाम है 'आनंद'। हृषिकेश मुखर्जी द्वारा 1971 में निर्मित यह फिल्म क्लासिक का दर्जा पा चुकी है। राजेश खन्ना के 'सुपरस्टार' दौर के शिखर पर तराशा गया यह नायाब हीरा उनके उत्तराधिकारी के तौर पर अमिताभ बच्चन के आगमन की भी सूचना दे गया।

फिल्म यह फलसफा पेश करती है कि मौत की आगोश में भी जिंदगी को पुरजोर तरीके से जीया जा सकता है, बल्कि जीया ही जाना चाहिए। नायक आनंद सहगल (राजेश खन्ना) को कैंसर है और वह कुछ ही दिनों का मेहमान है, लेकिन उसका मानना है कि 'जिंदगी बड़ी होना चाहिए, लंबी नहीं।'

सदा हँसमुख और जिंदादिल रहने वाले आनंद के बरअक्स है डॉ. भास्कर बनर्जी उर्फ 'बाबू मोशाय' (अमिताभ बच्चन)। धीर-गंभीर, कम बोलने वाला, डॉक्टर होते हुए भी आनंद को न बचा पाने की हताशा को गुस्से की शक्ल देता भास्कर। इन दोनों विपरीत ध्रुवों के बीच मौत के साये में पनपती दोस्ती मसाला फिल्मों में दिखाई जाने वाली फॉर्मूलों में बँधी दोस्ती से हटकर है।

...पर आनंद तो मानो आया ही है सबसे दोस्ती करने, सबको अपना बनाने के लिए। फिर चाहे वह भास्कर हो, एक अन्य डॉक्टर प्रकाश कुलकर्णी (रमेश देव), उनकी पत्नी सुमन (सीमा देव), हॉस्पिटल की कड़कमिजाज मेट्रन (ललिता पवार) या फिर राह चलता कोई भी नितांत अजनबी।

अपनी आसन्न मृत्यु को लेकर आनंद न दुःखी है और न ही भयभीत। वह तो अपने शेष बचे दिनों में ज्यादा से ज्यादा जी लेना चाहता है, 'आनंद' पाना और बाँटना चाहता है। वह सवाल भी करता है कि 'बाबू मोशाय, हम आने वाले दुःख को खींच-तानकर इस पल में ले आते हैं। ऐसा क्यों?' मृत्यु रूपी मंजिल का सफर हँसते-हँसाते हुए तय करती यह अनूठी फिल्म ट्रेजेडी होते हुए भी 'रोतली' फिल्मों की श्रेणी में नहीं आती, यह हृषिदा जैसे जीनियस का ही कमाल है।

फिल्म का क्लाइमेक्स लाजवाब है, जहाँ आनंद की साँसे थम चुकी हैं और सदा उसे कम बोलने की नसीहत देने वाला डॉक्टर भास्कर रो-रोकर उससे बोलने को कहता है। तभी आनंद की आवाज कानों में पड़ती है : 'बाबू मोशाय...!' भास्कर चौंककर सिर उठाता है...।

वह टेप बज रहा है, जिसमें उसने आनंद की आवाज रिकॉर्ड की थी : 'बाबू मोशाय, जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ है जहाँपनाह, जिसे न आप बदल सकते हैं, न मैं। हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं, जिनकी डोर उस ऊपर वाले के हाथों में है। कब, कौन, कैसे उठेगा, यह कोई नहीं जानता...।' फिल्म इस संदेश के साथ खत्म होती है कि 'आनंद मरा नहीं...। आनंद मरते नहीं...।'

- विकास राजावत