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Written By समय ताम्रकर

रमेश सिप्पी : बहुल सितारा फिल्मकार

रमेश सिप्पी : बहुल सितारा फिल्मकार -
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फिल्म डायरेक्टर रमेश सिप्पी आज फिल्म 'शोले वाले डायरेक्टर' के रूप में जाने और पहचाने जाते हैं। आने वाले कई वर्षों तक शोले की चर्चा होती रहेगी और इस बहाने रमेश सिप्पी को हमेशा याद किया जाता रहेगा। हिन्दी सिनेमा में एक नहीं अनेक रिकॉर्ड कायम करने वाली फिल्म शोले की इन दिनों इलेक्ट्रॉनिक तथा प्रिंट मीडिया में लगातार चर्चा जारी है। वह इसलिए कि फिल्म ने अपने निर्माण के हाल ही में 35 साल पूरे कर लिए हैं। आज भी फिल्म के अनेक किरदार 'लार्जर देन लाइफ' होकर फिल्म दर्शकों के बीच बने हुए हैं। मसलन गब्बरसिंह, बसंती, सांभा, जय-वीरू, सूरमा भोपाली को गाहे-बगाहे याद किया जाता है। फिल्म लेखकों की जोड़ी सलीम-जावेद के कलम से लिखी गई चुस्त पटकथा, चुटीले संवाद और दृश्य संयोजन कुछ इस तरह से परदे परदे पर प्रस्तुत हुए कि उन्हें भूल पाना मुश्किल है। इसीलिए फिल्म 'शोले' को ऑल टाइम ग्रेट माना जाता है। एक निर्देशक के रूप में ‘शोले’ की हर फ्रेम पर रमेश सिप्पी का असर नजर आता है। न केवल उन्होंने अपने हर कलाकार से बेहतरीन अभिनय करवाया बल्कि हर सीन को इस तरह पेश किया कि दर्शक मंत्र-मुग्ध हो जाते हैं। रमेश सिप्पी ने इस फिल्म को हॉलीवुड की भव्य फिल्मों के पैमाने पर निर्देशित किया है।

रमेश सिप्पी फिल्म निर्माता-वितरक तथा फिल्म इंडस्ट्री के बरसों तक लीडर रहे गोपालदास परमानंद सिप्पी (जीपी सिप्पी) के बेटे हैं। आपका जन्म 1947 में कराची (पाकिस्तान) में हुआ था। जीपी सिप्पी ने कुछ दिनों तक वकालात की। फिर एक रेस्तरां भी संचालित किया। विभाजन बाद बम्बई आकर जीपी सिप्पी प्रोडक्शन के बैनर तले फिल्म सजा (1951) का निर्माण किया। जब बेटा रमेश सिप्पी बड़ा होकर निर्देशक बना, तो अपने होम प्रोडक्शन में अनेक सफल फिल्मों के निर्माण का श्रेय जीपी सिप्पी को जाता है।

रमेश का अंदाज निराला
रमेश सिप्पी एक फिल्मकार के रूप में बड़े बजट, बहुल सितारा और भव्य पैमाने की फिल्म पूरे परफेक्शन के साथ निर्देशित करने के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और अपने पिता के व्यवसाय में शामिल हो गए। अपनी पहली ही फिल्म में उन्होंने उस दौर के सुपरस्टार्स राजेश खन्ना, हेमा मालिनी और शम्मी कपूर को लेकर अंदाज (1971) का निर्देशन किया। जिंदगी एक सफर है सुहाना गीत का फिल्मांकन तेज भागती मोटर साइकिल पर कुछ इस अंदाज में किया गया था कि युवा वर्ग में उसका क्रेज पैदा हो गया। बॉक्स ऑफिस पर फिल्म ने सफलता दर्ज की और रमेश फिल्म जगत में स्थापित हो गए। इसके बाद हेमा मालिनी को डबल रोल देते हुए उन्होंने सीता और गीता (1972) के रूप में दो विपरीत स्वभाव की बहनों का अनूठा चित्रण किया। यह फिल्म नायिका प्रधान थी और इस तरह की फिल्म बनाना व्यवसाय की दृष्टि से रिस्की था। लेकिन रमेश ने यह जोखिम उठाया और सीता और गीता सुपरहिट रही।

गालियों की बौछार : श्रीफल का उपहार
लगातार दो सफल फिल्म देने के बाद रमेश सिप्पी का उत्साह और बढ़ गया। उन्होंने ‘शोले’ जैसी भव्य फिल्म बनाई। शोले जब रिलीज हुई थी, उन्हीं दिनों जेबी मंघाराम बिस्किट वालों ने 35 लाख की लागत से जय संतोषी माँ फिल्म बनाकर प्रदर्शित की थी। इन दोनों फिल्मों में जबरदस्त विरोधाभास रहा है। जैसे शोले में सर्वाधिक हिंसा का प्रदर्शन होकर रजतपट को खून से लाल कर दिया गया था। जबकि संतोषी माँ के माध्यम से संतोष और शांति का संदेश दिया गया था। शोले की लागत 3 करोड़ रुपए थी और संतोषी माँ सिर्फ 35 लाख में बनी थी। मजेदार तथ्य यह है कि संतोषी माँ का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन शोले से आनुपातिक अधिक रहा। इस तरह शोले फिल्म सिनेमाघरों में गब्बरसिंह की बंदूक से गोलियाँ उगल रही थी जबकि संतोषी माँ की श्रद्धालु दर्शक सिनेमाघरों में नारियल फोड़कर जय-जयकार कर रहे थे।

शक्ति से लबरेज सागर
शोले के रूप में रमेश सिप्पी ने इतनी बड़ी लकीर खींच दी कि हर बार उनके द्वारा बनाई गई फिल्मों की तुलना ‘शोले’ से होने लगी। कलात्मक दृष्टि से भी और व्यावसायिक दृष्टि से भी। शोले की सफलता रमेश पर भारी पड़ने लगी और वे एक तरह के दबाव में आ गए। शोले की अपार सफलता और मुंबई के मेट्रो सिनेमा में लगातार 5 वर्षों से अधिक चलकर रिकॉर्ड बनाने वाली फिल्म के बाद उनकी शान (1980) भी बड़े बजट और बहुल सितारों से लकदक थी। शोले की तुलना में शान बेहद मामूली फिल्म थी और यह फ्लॉप हो गई। निर्देशन की दृष्टि से भी शान रमेश की कमजोर फिल्म थी।

इसके बाद सलीम जावेद की जोड़ी द्वारा लिखित शक्ति (1982) रमेश सिप्पी ने निर्देशित की। पहली बार दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन जैसे मेगा स्टार साथ में आए। उन्होंने पिता-पुत्र के रोल में बेहतरीन अभिनय किया। रमेश सिप्पी का निर्देशन भी कसा हुआ था। एक अच्छी फिल्म होने के बावजूद शक्ति को बॉक्स ऑफिस पर खास सफलता नहीं मिली। रमेश ने ट्रेक चेंज करते हुए अपनी अगली फिल्म में एक्शन की बजाय प्रेम कहानी को महत्व दिया। राजेश खन्ना से अलग होने के बाद डिम्पल कपाडि़या वापसी की कोशिश में लगी हुई थी और रमेश ने उन्हें साइन किया। बॉबी की जोड़ी (ऋषि कपूर - डिम्पल) के साथ कमल हासन को भी जोड़ा गया। फिल्म की कहानी में नयापन नहीं था, लेकिन रमेश सिप्पी ने एक कविता की तरह फिल्म को पर्दे पर पेश किया। लेकिन सागर (1985) को भी औसत सफलता मिली। सागर और केसी बो‍काडि़या की फिल्म ‘तेरी मेहरबानियाँ’ एक ही दिन रिलीज हुई थी। तेरी मेहरबानियाँ का हीरो एक कुत्ता था। इस फिल्म ने सागर की तुलना में अच्छी सफलता हासिल की। रमेश यह देख गहरी निराशा में डूब गए कि एक कुत्ता उनकी वर्षों की मेहनत पर भारी पड़ा।

छोटे परदे की ओर रुख
अपनी अच्छी फिल्मों को भी सफलता नहीं मिलते देख निराश रमेश ने छोटे परदे की ओर रुख किया। उस दौर में इतने बड़े डायरेक्टर को सीरियल बनाते देख लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। विभाजन की त्रासदी पर बुनियाद धारावाहिक भव्य पैमाने उन्होंने बनाया और धारावाहिकों की दुनिया में नए पैमाने स्थापित किए। कुछ एपिसोड्‍स निर्देशित करने के बाद रमेश ने फिर हिम्मत जुटाई और बड़े पर्दे पर वापसी की। मिथुन चक्रवर्ती को लेकर ‘भ्रष्टाचार’ (1989), अमिताभ को लेकर ‘अकेला’ (1991) और शाहरुख खान को लेकर ‘जमाना दीवाना’ (1995) बनाई, लेकिन इन फिल्मों में शोले, सागर या सीता और गीता वाला रमेश सिप्पी कही नजर नहीं आया। ये वाकई में बुरी फिल्में थी और बॉक्स ऑफिस पर इनका वही हश्र हुआ जो होना चाहिए था। इन फिल्मों की असफलता से रमेश टूट गए और पिछले 15 वर्षों से उन्होंने कोई फिल्म नहीं बनाई। इन दिनों उनका बेटा रोहन सिप्पी फिल्म निर्देशन और निर्माण में सक्रिय है। अभिषेक को लेकर उन्होंने ‘कुछ ना कहो’ और 'ब्लफ मास्टर' निर्देशित की और कुछ फिल्में प्रोड्‌यूस की है। पिता रमेश की अमिताभ बच्चन से अच्छी यारी-दोस्ती रही है। बेटा रोहन, अभिषेक का अच्छा दोस्त है। इस तरह सिप्पी खानदान की तीन पीढ़ियाँ ने मनोरंजन की दुनिया में लगातार योगदान दिया और दे रही है।

फिल्मोग्राफी
अंदाज (1971), सीता और गीता (1972), शोले (1975), शान (1980), शक्ति (1982), सागर (1985) भ्रष्टाचार (1989), अकेला (1991), जमाना दीवाना (1995), टीवी सीरियल बुनियाद